Anshu Shri Saxena

Inspirational

1.0  

Anshu Shri Saxena

Inspirational

मुस्कुराहटें

मुस्कुराहटें

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मुझे दिल्ली में रहते लगभग छ: महीने हो चुके हैं। मैं यहाँ अपने बेटे बहू के साथ रहती हूँ। बेटे बहू के ऑफ़िस जाने के बाद मैं और मेरे पति घर पर अकेले रह जाते हैं। हम दोनों शाम के समय अपनी बिल्डिंग के नीचे वाले लॉन में आकर बैठ जाते हैं। यहीं हमारे जैसे कई बुजुर्ग दंपति भी एकत्रित होते हैं और हम सब अपने अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों को साझा करते हैं। अब सभी से हमारी अच्छी पहचान हो चुकी है और हमारी शामें अच्छी गुज़रती हैं।

अभी क़रीब तीन महीने पहले ऐसे ही हम सब शाम के समय लॉन में बैठे थे कि वंदना हमारे सामने ही ऑटो से उतरी। वंदना हमारी बिल्डिंग में ही ग्यारहवी मंज़िल पर रहती है। वंदना और उसकी तीन सहेलियों ने मिल कर फ़्लैट किराये पर ले रखा है और वे सभी नौकरी करती हैं। वंदना हमारे सामने से निकल ही रही थी कि अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ी। हम में से दो तीन लोग उठ कर तुरंत वंदना के पास पहुँचे और मिल कर उसे उठाया। मैंने साथ लाई पानी की बोतल से उसके चेहरे पर पानी के छींटे डाले और उसको पानी पिलाया।

“अचानक क्या हो गया बेटी ?” हमने वंदना से पूछा।

”वो क्या है न आंटी आजकल मेरा पेट ठीक नहीं चल रहा, इतनी दवाइयाँ ले रही हूँ परन्तु कोई फ़ायदा नहीं....बहुत कमज़ोरी महसूस होती है....ऑफ़िस से भी कितने दिन छुट्टी लेकर बैठूँ।“ वंदना ने उत्तर दिया।

“अरे बेटी कुछ दिन घर का बना साधारण खाना खाओ।“ मिसेज़ वर्मा ने सलाह दी।

”क्या करूँ आंटी, खाना बनाने के लिये कोई मेड नहीं मिल रही....और हम चारों में से किसी को भी खाना बनाना नहीं आता....हम तो ख़ुद ही रोज़ रोज़ बाहर का तेल मसालेदार खाना खाकर परेशान हो चुके हैं....दो चार बार यू-ट्यूब देख कर खाना बनाने की कोशिश भी की परन्तु खाना इतना बेकार बना कि पूछिये मत...सारा फेंकना पड़ा।“ वंदना ने अपनी परेशानी हमें बताई।

“अरे बेटी, तुम परेशान मत हो, खाना बनाना कोई बड़ी बात नहीं है...मैं तुम्हें खाना बनाना सिखा दूँगी।“ 

मैंने वंदना के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा।

“सच आंटी...क्या ऐसा हो सकता है ?“ वंदना की आवाज़ में ख़ुशी साफ झलक रही थी।

“हाँ बिलकुल...तुम सब ऑफ़िस कितने बजे तक जाती हो ?” मैंने प्रश्न किया।

“वही लगभग साढ़े दस बजे तक।“ वंदना ने उत्तर दिया।

” तो फिर ठीक है... कल मैं सुबह नौ-साढ़े नौ तक तुम्हारे यहाँ आती हूँ।“ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

“ठीक है आंटी....मैं बिग बास्केट से ऑर्डर कर के सारा सामान मँगा लूँगी।“ वंदना हँसते हुए बोली और थोड़ी देर हमारे साथ बैठ कर अपने फ़्लैट में चली गई।

“ यह क्या कह दिया स्वाति जी आपने ? आप क्या इस बुढ़ापे में लोगों के घर खाना बनाने का काम करेंगी।“ मिसेज़ वर्मा उलाहना भरे लहज़े में मुझसे बोलीं।” तुम कहाँ परेशान होगी “ मेरे पतिदेव ने भी अपनी चिन्ता ज़ाहिर की।“ कुछ दिन कर के देखती हूँ....खाना बनाना सिखाने का निर्णय लिया है....कोई नौकरी करने का नहीं...आप सब बेकार में चिन्तित हो रहे हैं।“ कह कर मैं हँस पड़ी। दरअसल मुझे खाना बनाने का बेहद शौक़ है। मेरे बेटे और बहू सुबह साढ़े आठ-नौ बजे तक ऑफ़िस निकल जाते हैं। उनके ऑफ़िस जाने से पहले ही पूरा लंच बन जाता है क्योंकि वे दोनो ही लंच टिफ़िन ले जाते हैं। दोपहर में मैं बस पतिदेव और अपने लिये कुछ चपातियाँ ही बनाती हूँ। घर की साफ़ सफ़ाई, बर्तन वग़ैरह भी काम वाली बाई सुबह ही कर जाती है। उन दोनों के जाने के बाद मैं पूरी तरह ख़ाली हो जाती हूँ। मैं अपना ख़ाली समय या तो कुछ पढ़ कर या टीवी के सामने बैठ कर बिताती हूँ। इसी ख़ाली समय में मैं इन बच्चियों की सहायता कर दूँगी तो इसमें क्या बुराई है ?

अगले दिन सवेरे बेटे-बहू के ऑफ़िस जाने के बाद मैं वंदना के फ़्लैट में जा पहुँची। वंदना और उसकी तीनों सहेलियों ने मेरा स्वागत फूल देकर किया। मैं अचम्भित सी ख़ुशी की भावनाओं के बीच बोल पड़ी“ ये फूल किस लिये बच्चों ?”

“आंटी आपने हमारे लिये इतना सोचा...इसलिये“ चारों लड़कियाँ चहकते हुए बोलीं। मैंने उनके मँगाये सामानों का निरीक्षण किया और खाना बनाने में जुट गई। इस काम में मैंने चारों को लगा लिया, किसी से प्याज़ कटवाई तो किसी से सब्ज़ी....किसी से दाल चावल साफ़ कराये तो किसी को आटा गूँथना सिखाने का प्रयास किया। नाश्ते में बना पोहा उन लड़कियों को बहुत पसन्द आया। “आंटी, पोहा बहुत टेस्टी बना है...मेरी मम्मी भी ऐसा ही पोहा बनाती हैं“ कहते-कहते उन लड़कियों में से एक निधि भावुक हो गई। मैंने उसे प्यार से गले लगाया और बोली।“

मैं भी तुम सबकी माँ जैसी ही तो हूँ।“

“आंटी....” कह कर चारों लड़कियाँ मुझसे लिपट गईं।

अब मैं रोज़ वंदना के घर जाने लगी थी। मुझे इन लड़कियों से बहुत लगाव हो गया था और मेरा ख़ाली समय भी अच्छी तरह व्यतीत हो जाता था। मेरे साथ खाना बनाते बनाते चारों लड़कियाँ खाना बनाना सीख गईं थी और अब मेरे साथ मिल कर नये-नये व्यंजन बनाने में उन्हें मज़ा आने लगा था। 

मुझे वंदना के घर जाते हुए एक महीना हो चला था। एक दिन मैं वहाँ पहुँची तो चारों लड़कियों ने मुझे घेर लिया और बड़े प्यार से मुझसे बोलीं। “आप फ़ीस क्या लेंगीं आंटी ? आपने हमें खाना बनाना सिखाया है...तो गुरु-दक्षिणा तो बनती है।“ मैंने हँसकर उत्तर दिया “तुम चारों खूब तरक़्क़ी करो... अपनी मुस्कुराहटें दुनिया में बिखेरो...और अपने अच्छे कामों के द्वारा अपनी सुगंध चारों ओर फैलाओ।“

“ तो अब क्या आप यहाँ नहीं आया करेंगी ?“ निधि रुआँसी हो कर बोली।

“आऊँगी ना...बीच बीच में आया करूँगी....अब जो तीसरी मंज़िल पर फ़्लैट में जो बच्चे रहते हैं उन्हें खाना बनाना सिखाऊँगी “ कह कर मैं ज़ोर से हँस पड़ी।

दोस्तों बुजुर्ग होने पर यह ज़रूरी नहीं कि आप घर में बैठ कर अपना समय बेकार करें। अपने आस पास देखें, कितने लोगों की आप सहायता कर सकते हैं...पैसे के लिये नहीं, अपने समय के बेहतर सदुपयोग के लिये। 


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