dr vandna Sharma

Drama

5.0  

dr vandna Sharma

Drama

मुश्किल दूर हुई

मुश्किल दूर हुई

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जिसके साथ माँ की दुआ हो उसके साथ गलत नहीं हो सकता। माँ की दुआ उसका रक्षा कवच बनकर हर मुसीबत से उसकी रक्षा करता है। किसी काम से अमरोहा अकेले ही जाना था लेकिन माँ दुआएं, पापा का आशीर्वाद, मैम की शुभकामनायें और मेरे भगवान जी का साथ है किसी और सहारे की क्या ज़रूरत ? साढे तीन बजे उठी थी मैं। सुबह का दैनिक कार्य (झाड़ू, नहाना, धोना ) करने के बाद लगभग साढ़े चार बजे मम्मी और मैं स्टेशन के लिए निकले। मम्मी समझाती जा रही थी किसी से ज़्यादा मत बोलना, अम्बिका मैम से मिलने स्टेशन पर उतरना, संभलकर रहना। मैं पहली बार घर से अकेली जा रही थी न इसलिए मम्मी को चिंता हो रही थी मैंने कहा -" ओहो मम्मी घबराओ मत कुछ नहीं होगा। तुम्हारी दुआएं है न मेरे साथ और भगवान जी है ना। " स्टेशन पर हम पौने पांच बजे पहुंचे। मैंने टिकिट लिया और गाड़ी का इंतज़ार करने लगे। "मम्मी गाड़ी कितनी देर में आएगी ? चलो इतना स्टेशन घूमते है। मम्मी मुझे गाड़ी छोड़कर तो ?" "नहीं जाएगी। यह पीपल वृक्ष है हाथ जोड़ो और प्र्थना करो। "हाँ मम्मी आज शनिवार है न तो इनका भी आशीर्वाद ले लेते हैं। स्टेशन पर एक ही पीपल का वृक्ष है जिसके चारो ओर चबूतरा बना है। वहीं पर ज़रा से छोटे से शनिदेव भी विराजमान हैं। शनिवार के दिन बहुत सी औरते वहां जाकर तेल का दीपक जलाती हैं और तेल व् सिक्के चढाती हैं. .

फरवरी का महीना था और प्रातः समय। ठंडी हवा चल रही थी। तारे अभी चाँद के साथ आकाश में विधमान थे। वे सब मेरी तरह भोर होने का इंतज़ार कर रहे थे। स्टेशन पर खड़े पेड़ अँधेरे में काले -काले डरावनी आकृति में मुझे डरा रहे थे। स्टेशन के दूसरी तरफ मिल कालोनी में लाइट जल रही थी। "मम्मी ये स्टेशन वाले एक बल्ब की बिजली मिल से उधार नहीं ले सकते ?" "नहीं ऐसा नहीं होता। हाँ यहाँ जनरेटर की व्यवस्था होनी चाहिए। वो देखो गाड़ी आ रही है। "कुछ ही देर में गाड़ी आ जाती है। मैं एक डिब्बे में चढ़ जाती हु। वहीं गेट के पास ही जो अकेली सीट होती है मैं उस पर बैठ जाती हु ये सोचकर कि यहाँ मेरे पास बैठेगा। खिड़की को खोलने कोशिश करती हूँ। गाड़ी चलने लगती है और मैं हाथ हिलाकर विदा लेती हूँ मम्मी से। जब तक मैं ओझल नहीं हो गयी मम्मी वहीं खड़ी मुझे देखती रही। डिब्बे में कोई लड़की नहीं थी ,मुझे डर लग रहा था। मैं अपनी किताब पढ़ने लगती हूँ कि ध्यान हटेगा यहाँ से। लेकिन मेरी सीट टॉयलेट के सामने थी बड़ी बदबू आ रही थी। दो कहानी तो जैसे तैसे पढ़ ली पर बैठना मुश्किल हो रहा था। मैंने पीछे घुमाकर देखा, एक सीट खाली थी। मैं अपना बैग उठाकर वहां चली गयी। वहां बल्ब नहीं जल रहा था इसलिए किताब बंद करनी पड़ी। एक महिला उसी जगह बराबर वाली सीट पर सो रही थी। शुक्र है कोई महिला तो दिखाई दी। लेकिन मैंने उससे भी बात नहीं की फिर वो मेरे बारे पूछती, वैसे मम्मी ने किसी से बात मना किया था। मैं चुपचाप शॉल में मुहं ढककर बस आँखे खुली रखकर सतर्क होकर बैठ गयी। धनोरा स्टेशन पर पहुंचकर जब गाड़ी रुकी तो मैंने खिड़की बाहर झाँका क्युकी वो मेरे गांव का स्टेशन था। मैंने अपनी मित्र प्रीती को फोन किया, उससे उसका पता पूछा। बहुत अच्छी है वो। जब तक मैं अमरोहा नहीं पहुंची मेरा पूछती रही और कहा -"तू ही रुकना मैं पापा को भेजती हूँ " अंकल मुझे स्टेशन पर लेने आये। उन्होंने मुझे कॉलेज का रास्ता समझाया। कहाँ ऑटो पकड़नी है, कितने रुपए देने हैं। जब हम घर पहुंचे प्रीती पढ़ाने जा रही थी. आंटी तैयार हो रही थी। मुझे देखकर खुश हुई। मैं ठण्ड कांप रही थी। आंटी ने गरमागरम चाय के साथ नाश्ता कराया और कहा -" हम दवाई लेने मुरादाबाद जा रहे हैं, तू यहाँ रुक। ये रहा लिहाफ, थोड़ी आराम तब कॉलेज जाना। मुझे बहुत ठण्ड लग रहीं थी। उनके जाने के बाद मैं लिहाफ ओढ़कर सो गयी। करीब दस बजे सविता मैम का फोन आया। उन्होंने मेरा उत्साह बढ़ाया और समझाया कि कॉलेज में जाकर कैसे -कैसे करना है। ११ बजे कॉलेज के लिए निकली। वहां बहुत भीड़ थी। मैंने तीन फॉर्म लिए और रजिस्ट्रशन कराया। लगभग बारह बजे सेमीनार शुरू हुआ। बीच -बीच में मैम और मेरे भाई के फोन आते रहे, अतः मुझे बिलकुल डर नहीं लगा। अजीब सा रोमांच हो रहा था। मैंने तो बस इतना जाना कि जब तक हम डरते है तभी तक डर लगता है जिस क्षण हम डरना बंद कर देते है तो डर अपने आप गायब हो जाता है। फिर कोई डर नहीं लगता। एक बार ठान लिया तो मुझे ये काम करना है तो करना है। क्योकि डर से मत डरो डर के आगे बढ़ो। डर के आगे ही जीत है।

मेरे भगवान् जी मेरा बहुत साथ देते हैं। वहां मैं किसी को नहीं जानती थी लेकिन अच्छे लोग हर जगह होते हैं। भीड़ अधिक होने से मैंने सर से कहा - "हमे रजिस्ट्रेशन स्लीप व् किट दिलवा दीजिये। और मेरा काम हो गया। सेमीनार हाल पहुंचकर अच्छा लगा। मुख्य वक्ता प्रो सुषमा यादव का व्याख्यान बहुत अच्छा लगा। उन्होंने नारी शशक्तिकरण व् वर्तमान स्थिति पर बहुत अच्छा बोला। उनकी दो लाइन दिल को छू गयी -

" तुम भी दर्द कब तक देते, मैं भी दर्द कब तक सहती

तुम भी उतने बुरे नहीं हो, मैं भी अब इतनी भली नहीं। ."

मुझे घर पहुँचने की चिंता हो रही थी. घर पहुंकर मेरी मुश्किल दूर हुई।


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