Aarti Rajpopat

Abstract

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Aarti Rajpopat

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मुझसे दोस्ती करोगी

मुझसे दोस्ती करोगी

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"लेडीज़ एन्ड जेंटलमेन अब कुछ ही समय मे.. " एरहोस्टेस की मधुर आवाज में हो रही फ्लाइट लेंडिंग की घोषणा सुनते ही कोई आह्लादक अनुभूति ने जैसे मुझे घेर लिया!

दस साल, दस महीने और बीस दिन, लगभग ग्यारह साल बाद वतन की धरती पर पांव धरने जा रही थी में। ऐसा तो कभी अंदाज़ा भी न था कि इतने साल आ ही न पाउंगी। पर, हालातवश आना ही न हुआ। 

एयरपोर्ट से बहार आ के एक गहरी सांस ले वतन की हवा को अंदर भरा और रोम रोम जैसे पुलकित हो उठा। 

गांव से छोटा भाई अपने दोस्त के साथ मुजे लेने आया था। पर ये क्या?! भाई को देखके तो में दंग ही रह गई। पंद्रह साल का मेरा 'छोटू' किशोर सा छोड़के गई थी वो एक बांका, गभरु जवान बन गया था। और स्याना भी। थोड़ी देर तो एकटक निहारती ही चली गई।

नव विकसित, सुंदर, जाजल्यमान शहर, लम्बे-चौड़े समूध हाइवे पर सरकती गाड़ी के साथ हरियाले खेत, खलिहान, गांव जैसे भागते हुए पीछे छूट रहे थे। सबकुछ जाना पहचाना सा था फिर भी जैसे नया नया ! सब जी भर के देख रही थी। पर, इन सब गतिविधियो को पीछे छोड़के मन मस्तिष्क कही और अधिरता से भाग रहा था। उन परिजनोंको मिलने के उत्साह के साथ पीछे से जो कुछ छूट गया है उसका सामना करने की व्यथा और डर भी था जो बेचेन कर रहा था। बड़ी विचित्र सी दशा थी मन की। 

इसी सोच में न जाने मेरी प्यारी बचपन की पक्की सहेली मीनू की याद ने आँखो को कब नम कर दिया पता ही न चला। और मन -मृग अतीत की स्मृतियों के अरण्य में एक ऊंची छलांग लगाके पहुँच गया।

'मीनू' मीनाक्षी बचपनकी मेरी एकमात्र पक्की सहेली। एकदम आमने सामने घर थे हमारे। दोनो की पढ़ाई, तीज त्योहार, खेल-कूद लड़ाई-झगड़े अहा! कितनी सारी खट मीठी यादे थी। वो ज़माना टीवी का नही था। पूरा दिन बस थोड़ा बहोत पढो और गलियों में खेल कूद और मस्ती, वही हमारा विश्व था। 

सब खेल में मीनू सबकी लीडर। और जब किसीसे झगड़ा हो या कट्टी हो जाये तब सामने वाले को उसके सामने पचास -सो बार बोलना पड़ता ' मीनू मुझसे दोस्ती करोगी?' तब मेडम अपनी टीम में फिर शामिल करती। और हरकोई ऐसा करता भी। क्योंकि नहीतो और कोई भी मीनू के डर से उसके साथ बात न करे और वो अकेला पड़ जाए। ये सारी बाते याद आते ही वेदना के बीच भी में हंस पड़ी। 

खेर, ये सब तो बचपन की बाते। फिर उसके पिता के अचानक चल बसने के बाद वो बहोत धीर- गंभीर और सयानी हो गई थी। 

बढ़ती उम्र के साथ हमारी दोस्ती भी गाढ़, और पक्की होती चली गई। बचपन की पा-पा पगली से अलमस्त यौवन तक पल-पल, पग-पग साथ जिये थे हम। 

पर, उस सफर में नए मोड़ भी रास्ता देखे खड़े थे। मीनू की शादी की बाते चलने लगी। मेरी दादी को मेरे बड़े भाई के लिए मीनू पसंद थी पर पापा ने पहले 'मेरी' शादी करेंगे कहके मना कर दिया। उसवख्त मीनू को ह्रदय की कोई छोटी बीमारी है वो बात पता चली। ऐसी बाते फैलते देर कहा लगती है। तो उसकी शादी होने में बाधाएं आने लगी। फिर तबियत सम्भली और एक अच्छा रिश्ता मिला तब शादी तय हो गई। 

मीनू की शादी में उसकी मां के बाद सबसे ज्यादा काम की जिम्मेवारी मेरे पर थी। वहां मेरे लिए भी एक दो रिश्ते आये। पर, मीनू ने " तु ऐसे किसी आलतू फालतू के साथ शादी करने के लिए मान मत जाना। तुझे तो बड़े शहर का कोई सुंदर सा लड़का मिलेगा।" उसने मुझे समजा दिया था। 

उसकी शादी के दो साल में ही मेरी भी शादी मुम्बई में हो गई। पर हमारी दोस्ती उतनी ही गहरी थी। 

में जब भी गांव जाती सबसे पहले जा के उससे ही मिलती। कभी वो आ जाती और हम खूब गप्पे लड़ाते एकदूजे का सुख दुःख बांटते। 

और फिर अचानक मेरे पति को विदेश जाने का मौका मिला और हमारा अमरीका जाना तय हुआ। 

अमरीका जाने से पहले गांव आई सबसे मिलने। मीनू को भी मिली। 

दोनो सखिया पहेली बार इतने लंबे अंतराल के लिए अलग हो रही थी। 

आखरी बिदाय पर मुझे बोली कि

"देख हां, वहां जा के भूल मत जाना। संपर्क में रहना नहीतो बचपन की तरह रुठ जाउंगी। और फिर कितनी भी बार बोलेगी "मुझसे दोस्ती करोगी।" तो भी नही बोलूंगी तुजसे। और हँसते हँसते गले लग गई फिर दोनों बिलखकर रो पड़ी थी। भारी मनसे बिदाय ली। तब...

तब कहा पता था कि वो हमारी आखरी मुलाकात थी। वो तो सचमुच हमेशा के लिए सबसे रुठ के चली जाने वाली है !

इन्ही यादो के बीच गांव कब आ गए

पता ही नही चला। घर पहूंचते ही सबको जी भर के देखा। इतने सालों के बाद मिली खूब हंसी और बहोत रोइ। उसमे ही रात हो गई थी। तो सुबह पहले मीनू के घर उसकी माँ को मिलने जाउंगी सोचा।  

सुबह उठते ही फटाफट तैयार हो के वसुमौसी को मिलने निकल गई। 

मौसी मुझे देखकर "इस जीवनमे फिर कभी तेरा चहेरा देख पाउंगी ये सोचा न था।" फिर लिपटकर खूब रोइ। दीवार पर टंगी तस्वीर में मंद।मंद मुस्कुराती मीनू जैसे अभी बोल पड़ेगी ऐसा लग रहा था। 

एकटक भीगी पलको से उसको 

 देखते हुए मुंह से निकल गया,

"मीनू देख, में आई हूं। देख तुझे बुला रही हूं। ऐसे नही रूठते.. में बोलती हु सुन, एक बार नही, सो बार नही हजार बार बोलूंगी मुझसे दोस्ती करोगी? अब तो मान जा। एकबार बोल दे ना.. " 

और फूटफूट कर रो पड़ी में। 

"ज़िद्दी है एक नंबर की। अपनी जिद नही छोड़ेंगी ना ?" रोते हुए मेरी बड़बड़ाहट चालू थी। 

मेरी पीठ पे हाथ सहलाते वसुमौसी कहने लगे,

"बिटिया शांत हो जा। अब हजार क्या लाख कोशिशों के बाद भी वह नही बोलेंगी। बराबर रूठी है हम सबसे। जात को संभाल बेटी। थोड़ी देर एकदूजे को शांत करके स्वस्थ हो के दोनो पुरानी बातें ले के बैठे। 

बातो बातों में दोपहर हो गई। मौसी ने खाना खा के ही जाऊ ऐसा आग्रह किया। और खानेकी तैयारी में लगे। 

तभी, "नानी हमारे घर कौन आया है ?"

बहार चप्पल देखके एक आवाज आई फिर एक सात- आठ सालकी लड़की स्कूल यूनिफॉर्म में दाखिल हुए। 

"आप कौन है ?" 

मुझे देख के ही पूछने लगी।

पर, में तो अवाचक देखती ही रह गई। अदल मीनू की कॉपी। वही कद काठी, गेंहुआ रंग, गोल मटोल प्यारा सा चहेरा.. मेंने प्रश्नार्थ मौसी की और देखा। 

मौसी तुरन्त बोल उठी,

"ले, तू ने इसे नही पहचाना ? ये मीनू की बेटी सोनू !"

"ओह, पर मौसी उसके पापा के पास न होकर इधर क्यों ?"

"नानी ये आंटी कौन है?" 

बीच मे सोनू बोल पड़ी।

"बिटिया, ये तेरी आशा मौसी है। तेरी माँ की बचपन की पक्की सहेली। जा तू हाथ मुंह धोले, फिर खाना खाते हुए बाते करेंगे।"

फिर मेरी और मुड़कर, एक हल्की आह ले के मौसी बोली,

"उसके बाप को दूजा ब्याह करना था। इतनी बड़ी लड़की के रहते कौन अपनी बेटी ब्याहे ? आ के मुझे बोला, 'ले के जाओ अपनी बेटी की निशानी। मेरे से न होगा! और में उससे सारे नाते तोड़कर इसे यहां ले के आ गई। पर, बस एक ही चिंता लगी रहती है कि मेरे बाद इसका क्या? कौन?" मौसी का गला भर आया। 

उस समय कब एक विचार आकर मनमे घर कर गया पता ही न चला मुझे। खाना खाके जल्द ही फिर मिलने का वायदा करके घर आई। 

घर आके मैंने मेरे पतिको सारी बाते बताई। और जो विचार मनमें घर कर गया था वो इच्छा भी जताई। सोनू को गोद लेने की इच्छा!

ऐसे भी हमारी कोई संतान नही थी। फिर भी उनको थोड़ा वख्त लगा सोचने समझने में। आखिर वो मेरी भावनाओ को समझे और अपनी खुशी भी जताई। मेरे घर मे भी सबने एक सुर में मेरी बात का स्वागत किया।

दूसरे दिन अपने पति के साथ मौसी के घर पहोंची। और अपनी इच्छा जताई। सुनके वह एकदम अचम्बित हो गए। फिर पुलकित हो उठे। और मुझे कहने लगे,

"अब मुझे सोनू की कोई फिक्र नही रही। में सोनू को उसकी दूसरी माँ के हाथ ही जो सौंप रही हु। खुश रहे बिटिया.. " कहके हजारो आशीष दे ने लगी। 

थोड़ीदेर में दौड़ती भागती सोनू आई और मासूमियत के साथ पूछने लगी

"ये सब कह रहे है कि आप मेरी नई मम्मी बनने वाली हो ! क्या ये सच है ? आप मेरी माँ को मिले हो? सब बोलते है कि वो भगवानजी के घर गई है। भगवानजी का घर क्या आपके घर के पास है? 

उसके मासूम दिल में उठ रहे अनगिनत सवाल जुबा पे आ गए।

मैंने उठके उसको गले लगा लिया।

"हां बेटी, तेरी मम्मी मुझे मिली थी। भगवान को उसका खास काम था तो उसे अपने पास बुला लिया। और मुझे खास तेरे लिए भेजा है। जैसे तुजे खास मेरे लिए भेजा है!"

"वहाँ अमरीका में मुझे मेरी माँ मिलेगी ?"

"हाँ बेटी, तू मुझे मम्मी कहके बुलाना तुझे जरूर तेरी माँ मिलेगी। 

और ऐसे मीनू ने जैसे खुद न आ सकी तो अपनी परछाई को मेरे जीवन में भेज कर अपनी प्यारी सखी की 'मुझसे दोस्ती करोगी' की अर्जी स्वीकार की !


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