स्नेहधारा
स्नेहधारा
नीमा और सीमा दोनों पड़ोसन। और पक्की सहेलियां। यूं तो सीमा को इस शहर में आये ज्यादा साल नहीं हुआ था। और नीमा इसी शहर की रहने वाली।
लगभग दस साल पहले सीमा इस शहर में नई नई आई और नीमा के सामने वाले फ्लैट में रहने आई तब नई जगह, नए लोग और नए शहर में सेट होने के लिए नीमा ने सीमा को बहुत सपोर्ट किया था।
उदार और साफ दिल की नीमा और सीमा के मिलनसार स्वभाव की वजह से जल्दी ही दोनों बहुत अच्छी सहेलियाँ बन गई।
काफी उदात्त और अच्छे दिल की होते हुए भी नीमा के स्वभाव की खामी कह लो या आदत कहो तो आदत थी कि वो कुछ ज्यादा ही शार्ट टेम्पर थी। और जल्दी से किसी पर भी भरोसा नहीं कर सकती थी। चाहे उसके घरवालों हो या कोई भी बाहर का आदमी हर किसी के प्रति उसके मन में शंका बनी रहती। आत्मनिर्भर भी ऐसी की सारे काम खुद ही करने का आग्रह रखे। कहो कि उसमें भी किसी पर भरोसा न करे। लेकिन उसमें उसकी कोई गलती भी नही थी।
नीमा उसकी हर बात सीमा को बताती। उस पर से वो इतना तो जान ही पाई थी कि शादी करके बड़े से परिवार में आई नीमा ने सास, ससुर, जेठानी, ननदे और उनके बच्चों को पूरे दिल से मान पान दिया था और अपना बना के संभाला था।
उनके अच्छे बुरे वक्त में हमेशा उनके साथ खड़ी हुई थी। लेकिन बदले में उसे सबकी अवहेलना ही मिली थी। खुद उसके पति ने भी अपना और अपने परिवार का काम निकलवाने के लिए मानो उसका इस्तेमाल ही किया था।
फिर सहन नहीं हुआ तब सास से अलग रहने गई तब बच्चे बहुत छोटे छोटे।
पति व्यापार में ठीक से ध्यान नही दे रहा था, तब 'ऐसे में गृहस्थी कैसे चलेगी?' सोचकर बच्चों को साथ लेकर दुकान पे जाना शुरू किया। घर, बच्चे और व्यापार की जिम्मेदारी उठा संघर्ष करके दुकान को खूब जमाया।
देखते ही देखते बच्चे पढ़ लिख के बड़े हो गए। और सबसे बड़े बेटे को ब्याह ने का समय भी आ गया। तब इतने साल में नीमा को बहुत अच्छे से पहचान चुकी सीमा ने उसे समझाया था,
" देख री, बहु आये तब उसे बेटी बनाकर रखना। ये तेरा शक्की मिजाज है वो सास बहू के रिश्ते पर कहीं भारी न पड़ जाए उस बात का ख्याल तुझे ही रखना है।
पर, जहा भी बेटे के ब्याह की बात चलती उसमें भी रिश्तेदारों ने बात को बिगाड़ने में कोई कसर नही छोड़ी। रिश्ता तय होते होते रुक जाता, बात बिगड़ जाती। तब नीमा का आत्मविश्वास डगमगा गया।
रो पड़ती कभी कभी सीमा के पास।
"सीमा मेरे बेटे का ब्याह होगा कि नहीं? सब कुछ अच्छे से चलता है और अचानक ना आ जाती है।
ऐसे ही साल डेढ़ साल निकल गया। आखिर एक जगह बात चली, सब सेट हुआ बात पक्की हुई और बेटे की सगाई हुई। तत्काल शादी तय हुई। और, रूमज़म करती नाजुक गुड़िया सी, नीमा ने सोचा था उससे भी अधिक सुंदर, पढ़ी लिखी बहु आई।
नीमा तो फूलीं नहीं समाती थी। हर जगह कहती फिरती थी,
"देख लो सब कैसी सुंदर , पढ़ी लिखी बहु ढूंढ़ के लाई हूं।" और मन में बोलती
'अब जलते रहो सब!'
कोई पूछता, "री' पढ़ी लिखी तो समझे पर गुणी, व्यवहार कुशल है।"
विधी, नीमा की बहु हंसमुखी और मिलनसार थी। घर की रित भात, तौर तरीके, रहन सहन बहुत जल्दी सीखने का प्रयास कर रही थी। घर परिवार के सद्स्य, देवर, ननद, ससुर सब से सुंदर तालमेल बनाये रखने की कोशिश भि करती।
उसके मायके में वो सबसे बड़ी थी तो वहाँ भी सारे काम की जिम्मेदारी उठाती थी, उसपर माँ बापू की लाडो भी थी।
उसकी काबिलीयत का अभिमान उसकी बातों में छलकता हो ऐसा कभी कभी लगता। पर नीमा वह अनदेखा करके उसके गुण देख के उसे 'सवाई' लाडो मान के रखती थी।
दो तीन महीने में तो विधि एकदम ही सबसे घुल मिल गई।
एक दिन अचानक ससुर से पुछने लगी,
"पापाजी, अंकित बता रहे थे कि हमारे घर मे सिवा आपके किसी का भी बीमा नहीं उतारा है और ना ही किसी का मेडिक्लेम वगैरह है? पापाजी आज के महंगाई के वख्त में ये करना बहुत जरूरी है। कल कोई अनकही आफत आती है तो बहुत काम आता है। दूसरा, बैंक और लोन वगैरह का जो भी व्यवहार हो वो मुझे और मम्मीजी को बता के समझा देना। घर की औरतों को भी ये सारी जानकारी होनी चाहिए। मेरे पापा के घर ये सब में संभालती थी। मुझे थोड़ी बहुत जानकारी है इन सब चीजों की।"
पता नहीं क्यों पर नीमा को आज पहेली बार विधि की ये सारी बाते पसंद नहीं आई। उसके मनमें शक का वो कीड़ा फिर से उभरा। उसमें भी किसी की भी बात नहीं सुनने वाले और सदा अपनी ही मनमानी करने वाले पति हेमल ने भी उसकी बात सही लगी और सबका बीमा करवाने की बात सुनाई तब नीमा को उसका वर्चस्व हिलता डुलता लगा।
"ये आजकल की पढ़ी लिखी लड़कियों के लक्षण देखो, छोटे बड़े का लिहाज छोड़ के कैसे अपनी मनमानी करवाती है।"
ऐसा बड़बड़ाने लगी। उसपर, अभी शादी को तीन ही महीने हुए थे की विधि माँ बनने वाली है वो बात पता चली। ये सुन के उसका दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच गया।
"इतने पढ़े लिखे होकर इतना जल्दी बच्चा? क्या सब कुछ में ही सिखाऊँ? थोड़ा घूम फिर ले, एक दूसरे को ठीक से पहचाने, अच्छे से सेट हो बाद में बच्चा करना चाहिये ना!"
हर रोज ये रेकॉर्ड सीमा के पास बजने लगी। तब सीमा को भी लगा कि,
'बात तो सही है। ऐसा क्यों? इतना जल्दी बच्चा?'
फिर भी सीमा नीमा को समझाती,
" देख विधि तो अभी बालक ही है। उसकी उम्र ही क्या है? उसमें कितनी समझ रहेगी? तू सास से माँ बनी थी तो तुझे ही समय रहते समझाना चाहिए था ना।
पर अंदर कहीं नीमा के मन में बहु के प्रति खटाई आ गई थी।
दोनों घर के बीच लेनदेन चलती रहती। एक दिन विधि कुछ काम से आई तो सीमा ने मौक़ा देखते पूछ ही लिया,
"कैसी हो बिटिया, तबीयत तो ठीक है ना।
कुछ खाने पीने की इच्छा हो तब बे- हिजक बता देना।"
"हा आंटी तबीयत एकदम ठीक है। जरूर कहूंगी आंटी। आपको नहीं कहूंगी तो किसे कहूंगी। आप तो मेरे लिए मम्मी जी की तरह ही हो।
"पर बेटा बुरा न माने तो एक बात पूछूं?
तू अभी बहुत छोटी है और इतना जल्दी ये बच्चा?"
"आंटी एक्च्यूली मुझे हॉर्मोन की थोड़ी प्रॉब्लम है तो लगा कि एक बालक समय रहते हो जाय तो अच्छा है। फिर प्रॉब्लम न हो। बाद में दवाइयाँ करने से तो अच्छा है नैचरली ही हो जाये।"
"तब सीमा को उसकी बातों में उम्र से ज्यादा परिपक्वता दिखी थी।
ऐसे ही पांच महीने निकले। मनमे थोड़ी सी नाराजगी रखते हुए भी नीमा विधि को बहुत खुश रखती उसका अच्छे से ख्याल रखती। अतः विधि भी संतुष्ट थी।
तभी भाग्य का चक्कर अपनी तीव्रता से घुमा!
कभी बीमार न पड़ने वाली नीमा ने खटिया पकड़ी। देखते ही देखते छोटी सी बीमारी में से ऑपरेशन, और उसमें कुछ कॉम्प्लिकेशन होते बीमारी ने जानलेवा रूप लिया।
डॉकटर ने अच्छे होने का फिफ्टी परसेंट चांस बताया। अचानक आन पड़ी इस मुसीबत में विधि के सूचन से किया बीमा खूब काम आया।
'अच्छा हुआ समय रहते करवा लिया। नहीं तो एक मिडल क्लास आदमी इतना रुपया एक साथ कैसे जोड़े ?'
ससुर हेमल ने विधि की समझदारी को मन ही मन सेल्यूट किया।
एक हफ्ता हॉस्पिटल रह के नीमा घर आई। हफ्ता भर रही और फिर तबीयत बिगड़ गई तो पिछले बीस दिन से फिर हॉस्पिटल में थी। इस दौरान विधि ने प्रेगनंट होते हुए भी घर, हॉस्पिटल, मेहमान और दसवीं कक्षा में पढ़ रही ननद की पढ़ाई की सारी जिम्मेदारी अकेले हाथों बखूबी संभाली।
आज जब सीमा हॉस्पिटल में नीमा के पास थी तब नीमा की एकटुक छत को देखती सुनी, वीरान आंखों में उठती चिंता देख पूछा था,
"नीमा, क्या सोच रही है? तुझे कौन सी चिंता अंदर ही अंदर खाए जा रही है, मुझे नहीं बताएगी? देख तू ऐसा करोगी तो जल्दी ठीक कैसे होगी। तुझे तेरे बच्चे, हेमल भैया और आने वाले पोते के लिए बीमारी को हराकर अच्छा होना है। खटिया छोड़नी है।"
पर, अंदर ही अंदर सच जानती सीमा क़ा गला इतना बोलते बोलते भर आया। उसको खुद के बोल ही ठाले लग रहे थे।
सीमा की बाते सुनकर नीमा टूट सी गई।
फफककर रो पड़ी।
"सीमा अब मुझसे सहन नहीं हो रहा है। लगता है जाने का समय आ गया है। पर, चुटकी की चिंता खूब सता रही है। मेरी छोटी सी, फूल जैसी नाजुक गुड़िया.. आज तक छोटी ही मान के कुछ भी तो नही सिखाया। बच्ची जैसी है। दुनियादारी की बिलकुल समझ नहीं है। ईश्वर का बुलावा आएगा तो जाना तो पड़ेगा ही! पर, मेरी बिन माँ की बिटिया का क्या होगा? और मेरी विधि, उसको भी बेटी बनाकर लाई उसके लिए भी कुछ भी न कर सकी। उल्टा, उसके सर पे इतना बड़ा बोझ डाल के इधर लाचार सी पड़ी हूं।"
ओर फूटफूट के रो पड़ी थी।
बस, आज नीमा से मिल के आई तब से सीमा का दिमाग जैसे सुन्न सा हो गया था। वही खयालों में उलझी हुई थी कि विधि आई।
"आंटी मम्मीजी कैसी है? मुझे कोई ठीक से कुछ बता नही रहा है। और ऐसी हालत में मुझे वहां जाने भी नहीं दे रहे। प्लीज़ आंटी आप ठीक से बताओ ना!"
सीमा एक पल उसे देखती रही। फिर बोली,
"बिटिया एक बात बोलू? तू एकबार उसे मिल के आजा। तुझे बहुत याद कर रही है। में तेरे घरवालों से बात करती हूं। तुझे मिलने जाने देंगे।"
आज नीमा के साथ हुई बात के विषय मे वो कुछ न बोल पाई।
दूसरे दिन नीमा के घरवालों को समझा कर वो ही विधि को नीमा के पास ले गई।
हॉस्पिटल जा के सास की हालत देखी तो विधि का दिल बैठ गया। उसको भी सही हालात का अंदाज़ आ गया।
खुद को संभालते हुए सास के पास जाकर हाथ पकड़ के बैठी।
"मम्मीजी, ये क्या हालत बना के रखी है अपनी। हौसला रखिए। सब ठीक हो जाएगा। आप तो कैसे बड़े बड़े संघर्ष के सामने लड़ते हुए उनको हराया है। और इतने से थक गए?"
"बिटिया अच्छा हुआ तू आ गई। में अब सचमुच थक गई हूं, हार गई हूं.. पर क्या करूँ माँ का दिल है तो छूटता भी नहीं है। मेरी चुटकी... "
आगे कुछ नही बोल पाई वो।
"मम्मीजी आपको कुछ नहीं होगा। आप जल्दी ही ठीक हो के घर आओगे देखना।
फिर भी एक बात कहती हूं। आप जरा भी दिल पे मत ले ना। आज मेरे अंदर पनपते मेरे बच्चे की कसम खा के कहती हूं कि मेरे बच्चे की माँ बनूँ उससे पहले आज से में चुटकी की माँ बनूँगी। आप उसकी जरा भी फिकर मत करो। बस आप जल्दी ही ठीक हो जाओ।"
बोलते बोलते गला भर आया तो दौड़ के बहार निकल गई। हकीकत भांप जो गईं थी..!
नीमा ने आभारवश भीगी पलकों से उसकी और देखा..
"मेरी समझदार बेटी को देखा सीमा..?
कह के दो हाथ जोड़ के आंखें मूंद ली।
उसके बाद दो दिन में ही नीमा चल बसी।
तब भी विधि ने घरवालों को संभालते हुए मृत्यु परंत की सारी विधियां करी। और मात्र पन्द्रह दिनों के बाद आने वाली, चुटकी की, दसवीं की परीक्षा की तैयारी करवा के, उसकी ढाढ़स और हौसला बढ़ाकर परीक्षा दिलवाई भी। ताकि उसका साल बर्बाद न हो। सारी जिम्मेदारी या बराबर निभा के अपने मायके गई डिलीवरी करने।
आज पोते को दादी के फोटो के सामने ले जा के हेमल भैया, जो विधि और नीमा की
हॉस्पिटल में हुई बातों से अनजान थे वह,
नीमा को भरे गले और भीगी पलकों से कह रहे थे..
"देख नीमा, ये तेरा पोता। हमारी बहु.. अरे नहीं.. नहीं हमारी बेटी विधि ने हर जिम्मेदारी में अपनी सूझबूझ दिखाकर मुझे, हम सबको स्नेह के संबंधों की गिनती सिखाई।"