मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
"निशा, मेरा तो महानगर में बसने का सारा शौक काफूर हो चुका है, कितना ललचाते थे, हम बड़े शहर का हिस्सा बनने के लिए पर अब मेरा मोह भंग हो चुका था। सब मशीनी जिंदगी जी रहे है वहाँ।" राकेश बड़बड़ाऐ जा रहे थे।
"सच में, हँसी मजाक, व्रत त्यौहार किसी के लिए उत्साह नहीं। पैसा बहुत है पर खर्च करने का समय नहीं। हमारे मोहल्ले मे शादी ब्याह तो छोड़ो, गमी मातम में भी पूरा मोहल्ला शामिल रहता है। अम्मा के जाने पर तेरह दिन तक पड़ोसी ही खाना पहुंचाते रहे थे।" निशा ने पुरजोर समर्थन किया।
निशा-राकेश महानगर घूमने अपने भतीजे के घर गये थे। चार दिन पहले शाम को सामने वाले बुजुर्ग को दिल का दौरा पड़ा। घर पर कोई सहायता करने वाला नहीं था। महरी के बुलाने पर सोसायटी के कुछ लोग उन्हें कार से हास्पिटल लेकर भागे लेकिन घण्टा भर ट्रैफिक मे ही फँसे रहे। बुजुर्ग ने रास्ते मे ही दम तोड़ दिया और तो और उन के अति व्यस्त बेटे ने तीन दिन में तेहरवीं, बरसी सब कुछ निबटा दिया।
"वहां तो समय के साथ साथ भावनाओं की भी कमी हो जाती है।" निशा हैरान थी।
"भगवान जाने सैकड़ों गाड़ियों के काफिले किस दौड़ मे शामिल है ? क्या पाने की आपाधापी है ? कहाँ पहुंच कर ये दौड़ खत्म होगी ?" राकेश भी बहुत व्यथित हो रहे थे।
"अच्छा हुआ जो हम वापस आ गए। अपने छोटे शहर पहुंच कर हम कितने सुकून मे हैं।" निशा चाय चढ़ाते हुऐ बोली।
"और क्या....बडे शहरों की, सोने से दमकते इन रेत के टीलो की सच्चाई हमारे के सामने जो आ गयी।" राहत की साँस लेते राकेश बोले !
