मृग तृष्णा

मृग तृष्णा

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अलसुबह डोर बेल बजी, दरवाजा खोला सामने प्रतिष्ठा खड़ी थी, सूटकेस पकड़े हुए। मैने उसे साइड दे दी। वो चुपचाप सोफे पर आकर बैठ गई। उसकी आँखो के पपोटे सूजे हुए थे, लग रहा था कई रातों से सोई नहीं, रोती रही है। मैने किचन में जाकर एक गिलास में पानी ला सेंटर टेबल पर रखा और फिर किचन में जा चाय बनाने लगा। ट्रे में दो कप चाय ले वापिस आया, देखा पानी का गिलास खाली था। "चाय लो" मैने उससे कहा, और एक कप खुद के लिये उठा लिया। उसने भी धीरे से अपना कप उठाया और चाय के सिप लेने लगी। मौन हम दोनो के बीच पसरा हुआ था। बीता कल मेरे सामने आ खड़ा हुआ।


पन्द्रह दिन पहले मैं और प्रतिष्ठा विवाह बंधन में बँधे थे। मैने इसे इसकी फोटो देखकर पसंद किया था। उन्नीस बरस की ये लड़की,चेहरे पर भोलापन भा गया। उम्र में वो मुझसे पांच साल छोटी थी। मैने माँ से अपनी ये चिंता व्यक्त की तो वो हँस कर बोली "तेरे बाबूजी और मुझ में तो दस साल का अंतर है, फिर रिश्ता तो वो लोग ही लाये है" धूमधाम से शादी हुई। विदाई के समय प्रतिष्ठा कुछ ज्यादा ही रोती हुई लगी। मैने खास नोटिस नहीं किया। वो रात जिसके लिये हर नव विवाहित उत्सुक रहता है सपने संजोता है, मैं भी उनसे अलग नहीं था। बहुत से उपहार ले के आया था,अपनी पद्मिनी सी पत्नी को देने के लिये। बेसब्री से कमरे में टहल रहा था, की खबर मिली, प्रतिष्ठा मेरी माँ के पास सोयेगी तीन दिन तक। ओह ये भी इसी समय होना था। तीसरे दिन पग फेरे के लिये इसके भाई आ गये। चार दिन बाद जब ये लौटी तो मुझे अपना ऑफ़िस जॉइन करने के लिये ट्रेन पकड़नी थी। माँ ने अपनी बहू की भी तैयारी मेरे साथ कर दी। मैने मन ही मन माँ को धन्यवाद कहा। मैं खुश था मेरी प्राण प्रिया मेरे साथ होगी। दिन होली और रात दीवाली होगी, अब कोई तीन दिन का बंधन नहीं।

पंख पसारे मैं उड़ रहा था अंतहीन। उत्साहित मैं, कमरा फूलों से महक रहा था, सारे उपहार सजा कर रख दिये, इंतज़ार करने लगा। ये आईं, बिना किसी श्रंगार के,आकर पलंग के छोर पर बैठ गई। लगा पहल मुझे ही करनी पड़ेगी। आगे बढ़कर इनका हाथ अपने हाथ में लिया। इसने हाथ ऐसे खींचा जैसे करेंट लगा हो। मुझे बुरा लगा,मैं कुछ कहता ये बोल पड़ी--" ये विवाह मेरी मर्ज़ी का नहीं है ,मैं किसी और से प्यार करती हूँ" अब करंट लगने की मेरी बारी थी।गुस्से में बोला- "उससे शादी क्यो नहीं की।" "मेरे मम्मी पापा तैयार नहीं हुए, वो मेरे साथ बी ए कर रहा था। हमारी रिश्तेदारी में है। प्लीज आप मुझे उसके पास जाने दे। जब मैं पग फेरे पर मायके में थी, मुझे खबर मिली उसने सुसाइड की कोशिश की,अस्पताल में था वो।" वो फफक फफक कर रोने लगी।

हाथ जोड़ने लगी। पैर पकड़ लिये। क्रोध, प्रतिशोध, कितने ही विचार मेरे दिमाग में भर गये और किंकर्तव्यविमूढ़ता की मथनी से मथे जाने लगे। दूसरे दिन मैने उसका रिजर्वेशन करवा दिया। चाय खत्म हो चुकी थी ।खाली पड़े प्याले अपने उठाये जाने के इंतज़ार में थे। लेकिन वो अपने खाली प्याले में अपनी उंगली घुमा रही थी। मैं एकटक उसकी ओर देख रहा था, अचानक उसने सिर उठाया, नज़रे मिली। मैने प्रश्न दाग दिये--"क्या हुआ, उसने तुम्हें स्वीकार नहीं किया। क्या सोचा तुमने मैं अपना लूँगा तुम्हें जो लौट कर यहाँ आ गई " वो रोई नहीं, याचना भी नहीं की, सपाट शब्दो में बोली "मैं इशान से मिली।लेकिन ये वो इशान नहीं था ,जो मु झ्से प्यार करता था। वो बोला उसने सुसाइड की कोशिश कर अपनी कायरता दिखाई है। अफ़सोस है उसे इस बात का। मैं व्यंग्य से मुस्कराया, बोला--"अच्छा,और क्या कहा उसने।" "उसने कहा जिन्दगी जीने के लिये है, मरने के लिये नहीं। तुम्हारे और मेरे घाव समय के साथ भर जायेंगे। तब शायद हमें अपने इस पागलपन पर हँसी भी आये।" वह आगे बोली--"उसने कहा, सब कुछ भूल कर अपने पति के पास लौट जाओ। तुम्हारी ये नादानी वे अवश्य माफ़ कर देंगे"। इतना कह वह फिर कप पर अपनी उंगली घुमाने लगी। मैं क्या कहता, मेरी पत्नी, जो उन्नीस बरस की है। क्या प्रेम की गहराई तक पहुंच पाई है। ये तो उम्र का उछाह है, ये उम्र तो उन सपने में खोई रहती है, जो मृगतृष्णा है। उसका चेहरा देख बरबस मेरे दिल में ममत्व, प्रेम उमड़ आया। इतना ही कह पाया-- "प्रति,अब तुम अपने घर लौट आई हो। उठो, फ्रेश हो लो, तब तक मैं हम दोनो के नाश्ते की व्यवस्था करता हूँ।"


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