मॉं की नसीहत
मॉं की नसीहत
हमारे बचपन में पढ़ाई का ज़ोर आज कल की तरह नहीं था। पाँच छह साल का होने पर घर पर ही पढ़ाई शुरू होती थी। स्कूल भेजने की कोई जल्दी नहीं होती थी। हम भी छह वर्ष की उम्र तक खेलते कूदते ही रहे।
एक दिन बाऊजी ने हमारी पढ़ाई शुरू कराने की सोची, तो नौकर ही गोद में चढ़कर हम बाज़ार जाकर हिंदी की पहली पुस्तक ख़रीद लाए। पतली सी पुस्तक थी ,सादी सी श्वेत श्याम। जिसमें अ से अनार आ से आम इ से इमली ई से ईख आदि वर्णमाला चित्रों सहित दी हुई थी। इस तरह हमारी पढ़ाई शुरू हो गई और बड़ी बहिन को पढ़ाने जो मास्टरजी आते थे वही हमको भी पढ़ाने लगे।
मास्टर जी केवल हिंदी और गणित पढ़ाते थे ,कहते थे कि यही मुख्य विषय हैं ,इसमें ख़ूब मज़बूत होना चाहिए। इस तरह क़रीब दो साल घर पर ही पढ़ाई चलती रही।
फिर एक दिन बाउजी ने मास्टर जी से कहा कि इनको अब स्कूल में दाख़िला दिलवा दो। मास्टर जी हमको कन्या पाठशाला ले गए और मुझे कक्षा दो में और मेरी बड़ी बहन को कक्षा चार में दाख़िला दिलवा दिया।
स्कूल में दरी पर बैठना होता था और ख़ुद ही दरी बिछानी होती थी। हमारे दाख़िले के कुछ ही दिन बाद स्कूल में वार्षिक परीक्षाएं होनी थी। स्कूल में हम कुछ ख़ास पढ़ नहीं पाए थे ना इम्तिहान की कोई तैयारी थी।
मेरी इतिहास और भूगोल में भी परीक्षा ली गई , परीक्षा मौखिक थी, पर मुझे कुछ आता नहीं था ,कुछ बता नहीं पाई। मुझे समझ में भी नहीं आया कि क्या पूछा जा रहा है।
बड़ी बहिन की लिखित परीक्षा हुई थी ,पर वे भी इतिहास भूगोल में कुछ लिख नहीं पाईं, क्योंकि कुछ पढ़ा ही नहीं था। परीक्षाफल मिला ,मुझे तो प्रमोशन देकर पास कर दिया गया था ,पर बहिन फ़ेल हो गईं।
परीक्षाफल लेकर घर आए, बहिन दुखी थीं, पर मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ा था।मॉं नेपरीक्षाफल देखा ,बहिन को प्यार से समझाया। मेरा परीक्षाफल देखा तो मुझे एक चॉंटा रसीद किया और बोलीं कि “तुम भी फ़ेल ही हो, तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। वह तो वो छोटी क्लास समझकर तुम्हें प्रमोशन दे दिया गया।”उन्होंने इससे पहले न कभी इतना ग़ुस्सा किया था ना कभी मारा था ,मारा भी हो तो मुझे याद नहीं है।
उन्होंने साथ ही मुझे नसीहत भी दी, कहा कि” अपने नंबर लाकर पास होना चाहिए।”मुझे समझाया कि “ठीक से पढ़ाई करो ,अपने नंबर लेकर पास होओ। ठीक से पढ़कर इम्तिहान दो। हर काम पर तुम्हारी छाप होनी चाहिये कि यह तुमने किया है, और अव्वल दर्जे का काम किया है। तुम्हारा ख़राब काम मुझे पसंद नहीं आएगा और न मैं उससे ख़ुश होंऊगी। “
मॉं का वह बचपन का चॉंटा और नसीहत में कभी नहीं भूली। जब भी मैं लापरवाही करती मुझे वह याद आ जाता और मैं सावधान हो जाती। पढ़ाई में मैं कभी गंभीर नहीं रही पर लापरवाह भी नहीं रही ,और अच्छे नंबरों से पास होती रही , क्योंकि मैं माँ की ख़ुशी देखना चाहती थी।यही मेरा प्रेरणा स्रोत था सभी काम उत्तम तरीके से करने के लिये। मॉं का कहना था कि काम से ही पता चल जाता है कि यह किसने किया है और किस मन से किया है।
