Salil Saroj

Romance

2.5  

Salil Saroj

Romance

मंज़िल

मंज़िल

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इस बात को आज तकरीबन दस साल गुज़र चुके चुके थे जब मोहित आखिरी बार दिव्या से अलविदा कहने के लिए उसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ने आया था। वक़्त के पैरों में न जाने कौन से पहिए लगे होते हैं कि पलक झपकते ही कभी एक दशक तो कभी एक सदी गुज़र जाती है । वक़्त अपनी रफ्तार से भागता रहता है लेकिन इंसान एक वक्त के बाद ठहराव की तलाश करना शुरू कर देता है। ज़िन्दगी के कुछ क्षण ऐसे होते हैं जिन्हें इंसान रोज़ अपने तसब्बुर में लाना चाहता है,जिसे पानी की तरह पीना,भोजन की तरह खाना और साँस की तरह लेना चाहता है। उस आखिरी मुलाक़ात पर दिव्या की आँखों से ढलके दो मोटे-मोटे आँसू आज भी मोहित की जहन में तस से मस रुके हुए थे और वहीं दिव्या की रूह में मोहित का आखिरी बार गले लगना और उसके आँसू पोंछते-पोंछते अपनी आँखें नम कर लेना,मानो कि बर्फ की तरह जम गए थे।

दिव्या मथुरा से थी और मोहित आगरा से था और दोनों ने हिंदी साहित्य में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली से पी एच डी करने के लिए सत्र 2003-2004 में प्रवेश लिया था। दोनों छोटे शहर से थे ,सो उनका डर, उनकी अपेक्षाएँ, उनकी रूचि,उनका पढ़ने का तरीका और ज़िन्दगी जीने के ढँग बहुत ही मिलता जुलता था। वो अभी बड़े शहर दिल्ली की तबियत में ढले नहीं थे लेकिन दिल्ली ग़ालिब का शहर है और ये मुर्दे से भी प्यार का इज़हार करा सकती है। दिल्ली की पुरकशिश रूमानी इतिहास और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का खुला स्वच्छंद वातावरण दिल के किसी भी कोने में दबे प्यार को चिंगारी दे सकता है। मोहित की रूचि उपन्यासों में थी अतः उसका थीसिस भी बंगाली प्रेम उपन्यासों पर था और दिव्या की रूचि कविताओं में थी अतः उसने अपना थीसिस -बदलते दौर में हिंदी के श्रृंगार रस की कविताओं का नज़रिया था। हालाँकि दोनों की विधा अलग थी लेकिन दोनों की ज़मीन एक ही थी और वो थी -प्यार। दिव्या ने महादेवी वर्मा,सुमित्रानंदन पंत,दुष्यन्त कुमार,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सहित तमाम नामचीन लेखकों को जो कि उसके विषय में शामिल भी नहीं थे,सब को पढ़ डाला। वहीं मोहित शरतचंद्र चटर्जी,गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,धर्मवीर भारती,इस्मत चुगताई जैसी महान रचनाकारों की कृत्यों को आत्मसात करता जा रहा था। मोहित की थीसिस का विषय था-आधुनिक उपन्यासों में प्रेम की परिभाषा कितनी बदल गई है और मोहित विदेशी साहित्यकारों जैसे कि चेखव,सआदत हसन मंटो,क्रुसचेव को भी पढ़ता जा रहा था। दोनों की पकड़ प्रेम पर बढ़ती जा रही थी। जब भी दोनों प्रेम पर बहस करने बैठते तो दिव्या अपनी किसी कविता से शुरुआत करती और मोहित अपने द्वारा लिखे जा रहे किसी कहानी की पंक्ति से और फिर वह बहस आगे बढ़ती थी । सारे दोस्तों में उनकी बहस उत्सुकता का विषय बन गया था। इसकी खबर उनके गाइड को भी थी अतः उन्होनें गंगा ढाबा पर शाम के 7 बजे उस सत्र के सभी शोधार्थियों के साथ एक परिचर्चा रखी। उन्हें इसका इल्म बिल्कुल ही नहीं था कि उनके विषय के अलावे भी अन्य विषय के लोग उनकी बात सुनने पहुँच जाएँगे। दिव्या और मोहित चाय के कप के साथ बीच में ,दोनों गाइड उनके बगल में और 200 छात्रों का समूह उन्हें चारों तरफ से सुनने के लिए घेर कर खड़े हो गए।

"आप इश्क़ जिसे समझ रहे थे,

वो सिर्फ शब्दों का कोई जाल तो नहीं" दिव्या ने बहस शुरू की।

"शब्द इश्क़ में साजिश का कोई जरिया भी तो हो सकता है"मोहित ने पलटवार करते हुए शुरुआत की।

"इश्क़ ठहराव नहीं,गुज़र जाने का नाम है

क्षितिज का मुँह चूमती शायद कोई शाम है" दिव्या ने बात खत्म भी नहीं की थी और हुजूम से वाह वाह की आवाज़ आनी शुरू हो गई।

मोहित अब समझ चुका था कि दिव्या के लिए इश्क़ स्वतंत्रता और एक सफर है लेकिन मोहित के लिए इश्क़ जुड़ाव और ठहराव था।

मोहित ने अपनी बात रखी-"आखिर नदी अकेली कब तक चलती जाएगी। अगर समंदर से नहीं मिलेगी तो सूख जाएगी और समंदर से मिलेगी तो पूर्ण हो जाएगी"

इस शानदार जवाब पर अब मोहित के गाइड ने ताली बजाई और उन्हें अहसास हुआ कि मोहित अपने थीसिस में जरूर कुछ नया लिखेगा जो कभी,कहीं नहीं लिखा गया हो।

"दरिया की प्यास गर समंदर से ही मिट जाती

तो उसको मिलकर फिर क्यों आगे है निकल जाती?" दिव्या ने अपनी बात सभी छात्रों को देखते हुए बोला और ऐसा लगा कि सब उसकी बात का समर्थन कर रहे थे।

"समंदर कब कहता है कि दरिया उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाए। समंदर तो अपना नाम,अपनी पहचान सब दरिया के नाम कर देता है बस दरिया की मिठास के लिए। और कौन नहीं चाहता कि ये मिठास ज़िन्दगी भर बनी रहे।"मोहित की बात खत्म हुई तो लगा कि श्रोताओं का मोह दिव्या की बात से खत्म हो चुका था और सब मोहित की बातों में आ चुके थे।

कितने ही चाय के प्याले खत्म हो चुके थे। कब 2 घंटे गुज़र गए ,किसी को पता नहीं चला। बीच बीच में अन्य छात्रों की राय और गाइड की सलाह और विमर्श इस परिचर्चा को और भी बौद्धिक बना रही थी। चाय पिलाने वाला भी अब वहीं बैठ कर वो चर्चा सुनने लगा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की आवोहवा में सीखने और सिखाने की तलब इस कदर भरी हुई है कि कोई अछूता नहीं रह पाता। गाइड ने सब छात्रों के लिए डिनर का आर्डर वहीं कर दिया।

दिव्या के गाइड ने कहा-"दिव्या,क्या तुम्हें सच में लगता है कि इश्क़ की कोई मंज़िल नहीं। क्या यह केवल एक यात्रा है?"

दिव्या ने कहा-"सर, हर व्यक्ति मंज़िल अपने हिसाब से तय करता है। किसी के लिए इश्क़ की मंज़िल जिस्म की ख्वाहिश, किसी के लिए प्रेमी का धन,वैभव और सम्मान,किसी के लिए इश्क़ प्रतिशोध की इच्छा तो किसी के लिए इश्क़ केवल इश्क़ भी हो सकता है। मंज़िल की जरूरत ही महसूस न हो। माँ अपने बच्चों से प्यार करती है तो यह तय नहीं करती कि उन्हें भी उस से सदा प्यार रहेगा। बादल इस लिए धरती पर नहीं बरसता कि सदा के लिए धरती के अधरों से लगा रहे या मंज़िल रास्तों का इंतज़ार इस लिए नहीं करती की यह आखिरी यात्रा थी।

"इस जीवन का उद्देश्य नहीं है

शान्त भवन में टिक रहना

और पहुँचना उस सीमा तक

जिसके आगे राह नहीं"

मैं पहली दो पंक्तियों से सहमत हूँ लेकिन आखिरी दो पंक्तियों से नहीं। प्रेम आगे बढ़ने और बढ़ाने को आतुर होना चाहिए,रोकने या रुकने के लिए नहीं।"

गाइड ने दिव्या की पीठ थपथपाई और कहा कि सदियों में कभी कोई छात्रा होती है जिसकी समझ इतनी साफ और विषय पर इतनी गहरी पकड़ हो। मुझे तुम पर गर्व है,बेटा।

मोहित को अब तक अहसास हो चुका था कि दिव्या उसकी तरह प्यार के ठहराव के पक्ष में नहीं थी। हालाँकि उसने अपनी बात रखते हुए उसको समझाने की पहल भी करने लगा।

"मुझे लगता है कि मंज़िल की ख्वाहिश न हो तो पथिक यात्रा को उबाऊ महसूस करने लगता है। आखिर किस यात्रा की मंज़िल नहीं होती या तय नहीं की जाती। जन्म की आखिरी मंज़िल मृत्यु है, माँ के प्यार की आखिरी मंज़िल है बच्चों की खुशी,बादलों की आखिरी मंज़िल है धरती की प्यार बुझाना और मंज़िल चाहती है कि यात्रा कैसी भी हो सुखद या दुखद अंत होनी चाहिए ताकि अगली यात्रा प्रारंभ हो । आदमी एक वक़्त में कई यात्राएँ करता रहता है और कोशिश करता है कि मंज़िल मिलते ही अगली यात्रा पर निकल पड़े। दिव्या ने जो कविता कही,मैं उसकी अंतिम दो पंक्तियों से संबंध रखता हूँ और मेरी समझ कहती है कि अनुभव जो इस यात्राओं से प्राप्त होती है वही अगले सफर का मंज़िल तय करती है। मैं मानता हूँ कि हर व्यक्ति मंज़िल अपने हिसाब से चुनता है लेकिन ये भी सत्य है कि हमेशा कोई सफर में नहीं रहना चाहता। हर कोई मंज़िल का दीदार करना चाहता है। वहाँ रुकना चाहता है और ठहरना भी चाहता है।" इस बार सबसे पहली ताली दिव्या ने बजाई और उसे शाबासी दी। तब मोहित को अहसास हुआ कि दिव्या उसकी बातों को समझ रही थी।

मोहित ने आगे कहा-

" हुश्न जहाँ ठहर जाए,

इश्क़ की वही मंज़िल हो जाती है।।"

हर तरफ से तालियों की गड़गड़ाहट से पता ही नहीं चला कि दिव्या कब मोहित की आँखों में कुछ देर के लिए खो गई थी और उसे लगा कि मेरी मंज़िल यही कही है।

मोहित के गाइड ने कहा-" मुझे तृप्ति है कि मैं ऐसे मेधावी छात्र और छात्राओं को सिखा और पढ़ा रहा हूँ। इनके बहस को सुन कर मैं इतना अवश्य कह सकता हूँ कि जीवन में ये जो भी बने,इनको अपने विचारों को लेकर कोई उलझन नहीं होगी। रात के 11 बज चुके हैं। मैं आप सब को धन्यवाद देता हूँ। चूँकि आप लोगों को आज से एक महीने बाद थीसिस सबमिट करनी है अतः अपने काम पर लग जाइए। मैं दिव्या और मोहित को खासकर इस परिचर्चा के लिए बधाई देता हूँ और मुझे पक्का यकीन है कि ये भविष्य में अच्छा करेंगे। और अब यह सभा समाप्त की जाती है।"

मोहित ताप्ती छात्रावास और दिव्या साबरमती छात्रावास में रहती थी और दोनों के छात्रावास में महज 5 मिनट की भी दूरी नहीं थी। दोनों रात रात भर बहस करते लेकिन उन्हें यह अहसास नहीं था कि दोनों एक दूसरे के लिए कितने जरूरी होते जा रहे थे।

अगली सुबह दिव्या को दिल्ली विश्वविद्यालय में सेमिनार के लिए दो दिनों तक वहीं ठहरना था। सुबह से शाम तो मोहित की दोस्तों के बीच कट गई लेकिन जैसे ही शाम हुई उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। यह अहसास उसे पहली दफे हुआ था। उसे लगा कि वह आधा हो गया था। उधर दिव्या की सेमिनार आज की खत्म हो गई थी और शाम होते ही उसकी भी यही हालत हो गई थी।

इससे पहले की मोहित कुछ और समझ पाता या कर पाता,उसके मोबाइल पर मैसेज आया-"मेरी मंज़िल वहीं रह गई है?"

मोहित कुछ समझा नहीं,और उसने मैसेज किया-"कौन सी मंज़िल और कहाँ?"

"जो मंज़िल पर इतनी बातें कर सकता है,उसे अपनी ही मंज़िल का पता नहीं!!!" दिव्या ने मैसेज किया।

"मैं तो कब से मंज़िल पर ठहरना चाह रहा था,लेकिन जिसे मंज़िल बनाना चाह रहा था वो अब भी शायद रास्ता ही है।"मोहित ने जवाब दिया।"

"जो कल तक रास्ता थी,आज किसी की मंज़िल बनना चाहती है। बनाओगे?" दिव्या ने पूछा।

" तुम सदा से मेरी मंज़िल थी , आज यह बात पक्की हो गई बस। तुम बस अब आ जाओ। मैं बेचैन हो रहा हूँ। कल का दिन कैसे कटेगा पता नहीं।"मोहित ने कहा।

"मैं भी उतनी ही बेचैन हूँ। कल शाम को मिलती हूँ। मैं सोने जा रही हूँ।आई लव यू। गुड़ नाईट। टेक केयर।" दिव्या ने कहा ।

मोहित मानो कोई बंजर जमीन हो जो दिव्या की बात सुनकर आज लहलहाता हुआ हरा भरा खेत बन गया हो। यह बात सुनकर नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थे। उसने अपनी लैपटॉप खोली और दिव्या की तस्वीरें देखनी शुरू की। लगभग 5000 से भी ज्यादा तस्वीरें दिव्या की मोहित ने खींच रखी थी और दिव्या को इस बात की भनक भी नहीं थी। उसे पता तो था कि मोहित उसकी तस्वीरें लेता है लेकिन इतनी सारी ये बात पता नहीं थी।

अगली शाम साबरमती ढ़ाबे पर मोहित ने पहली बार दिव्या को गले लगाया तो उसे अपने पूरे होने का अहसास हुआ।

"अब मुझे समझ में आया कि मैं दो दिनों से खुद को आधा क्यों महसूस कर रहा था। " मोहित ने दिव्या से कहा।

"तुम्हें तो भनक भी थी, मुझे तो कोई अहसास ही न था। अगर उस दिन वह बहस न हुई होती तो मैं आज भी किसी और ही दुनिया में होती। मुझे लगता है हमें कल से अपनी थीसिस पर काम शुरू कर देना चाहिए। "दिव्या बोली।

अगले दिन से दिव्या और मोहित सुबह 10 बजे से रात के 10 बजे तक पुस्तकालय में पढ़ाई करने लगे। खाना कभी मेस में तो कभी केंटीन में खा लेते। दोनों की थीसिस अपने वक़्त से पूरी होती हुई दिख रहती थी। कब सुबह से शाम हो जाती थी,पता ही नहीं चलता था। जनवरी के मौसम में दिल्ली में बारिश जरूर होती है। उस दिन मोहित और दिव्या 10 बजे लाइब्रेरी से पढ़ कर निकले और आधे रास्ते ही पहुँचे थे कि झमाझम बारिश शुरू हो गई। दोनों को कोई अंदेशा नहीं था कि बारिश होगी। दोनों अपनी किताबें लाइब्रेरी में ही छोड़ कर आते थे,सो बारिश में भीगने के लिए दिव्या और मोहित का बदन ही था बस। मोहित किसी पेड़ की आड़ में जा कर खड़ा हो गया। लेकिन दिव्या मानो बारिश को पी रही हो। ठंड और उस पर बारिश में भीगने का अहसास ,मोहित पहली बार देख रहा था। इससे पहले कि मोहित कुछ समझ पाता,दिव्या ने मोहित को खींच कर बारिश से तरबतर कर दिया। और थोड़ी देर बाद दोनों की ठंड न जाने कहाँ खो गई और दोनों बारिश का मज़ा लेते हुए अपने हॉस्टल की तरफ बढ़ने लगे। बारिश की बूँदों को चीरते हुए जब पीली रोशनी दिव्या के चेहरे पर पड़ती तो लगता जैसी कोई शोला बारिश में भी जल रहा है। जिसकी लपट आस पास के वातावरण को गर्माहट दे रहा हो। काजल,लाली सब बह गई उस बारिश में और रह गया दिव्या का खलिश हुश्न जिसका दीदार आज मोहित ने पहली बार किया था। मोहित सिर्फ उसे देखे जा रहा था। हॉस्टल से कुछ दूरी पर दिव्या ने मोहित को खींच कर बाँहों में भर लिया और अपने होंठों के अंगारे उसके होंठों पे रख दिए। वो कौन होगा जो इस शोलों में नहीं जलना चाहता होगा। दिव्या मोहित में आग लगा के अपने रूम में चली गई और मोहित न जाने कितनी देर तक बारिश में जलता रहा।

आज थीसिस सब्मिट करने का दिन था। दोनों ने अपनी कड़ी मेहनत का परिचय दिया और दोनों को उस साल के स्वर्ण पदक से सम्मानित करने की घोषणा की गई। दोनों को पी एच डी की उपाधि प्रदान करते हुए विश्वविद्यालय गौरवान्वित महसूस कर रहा था। सारा महकमा दोनों को बधाई दे रहा था तभी दिव्या को मैसेज आया कि उसी दीदी और जीजा का एक्सीडेंट हो गया है और उसे घर बुलाया गया है। मोहित अभी भी प्रोफेसर के साथ व्यस्त था सो दिव्या ने मोहित को मैसेज ड्राप किया और घर के लिए निकल गई। मोहित जब 2 घंटे बाद खाली हुआ तो मेसेज देखा और दिव्या को कॉल किया तो पता चला वो घर पहुँच चुकी थी। उसके जीजा और दीदी की मौत हो चुकी थी । अतः वह अपने प्यार की बात अपने माँ बाप को बता न सकी। दिव्या ने अपनी दीदी की दोनों बेटियों को पालने की जिम्मेदारी ले ली। दिव्या के लिए जितने भी रिश्ते आते थे सब कहते थे कि जे एन यू में पढ़ी लड़कियाँ किसी की सुनती नहीं और अच्छी बहू नहीं बन सकती।

दिव्या ने आखिरी बार मोहित को मैसेज किया-"मोहित,मैं अब इन बच्चियों की माँ हूँ। मैं ने खुद इनकी जिम्मेदारी ली है। हमारा प्यार इन्हें कैसा लगेगा,मुझे नहीं पता,लेकिन मैं इन्हें छोड़ कर नहीं आ सकती।"

इससे पहले कि मोहित कुछ समझा पाता, दिव्या ने फ़ोन कट कर दिया और उसका नंबर ब्लॉक् कर दिया और नया नंबर ले लिया।

आज जब इस बात को दस साल बीत चुके थे। एक दिन मोहित पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बैठा था। तभी पास बैठी महिला ने पूछा-"मोहित कैसे हो?"

मोहित को आवाज़ जानी पहचानी लगी लेकिन जिस आवाज़ ने पूछा था उसकी शक्ल पर चश्मा और जिस्म पर साड़ी था।

"जी,मैंने आपको पहचाना नहीं।"

"मैं दिव्या"

मोहित को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि दस साल बाद एक दिन यूँ मुलाकात हो जाएगी।

""दिव्या,तुम यहाँ कैसे?"

"मैं स्टेशन के पास के नेशनल कॉलेज में 10 सालों से लेक्चरर हूँ। और तुम सामने वाली दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के इन चार्ज बन गए हो।"

"ये बात तुम्हें कैसे पता?"

"ये बात मुझे पिछले 10 साल से पता है। मुझे ये भी पता है कि तुम्हारे बालों में सफेदी आनी कब शुरू हुई। मुझे यह भी पता है कि तुमने नेहरू कोट कबसे पहनना शुरू किया और मुझे ये भी पता है कि तुम आज कल कौन सा उपन्यास पढ़ रहे हो और एक घंटे में कितनी बार पानी पीते हो"

"लेकिन कैसे?"

"मैं पिछले 10 सालों से इसी इंटरसिटी से आती हूँ जो 1 घंटे के लिए यहाँ रूकती है और यहाँ बैठकर तुम्हें देखती रहती हूँ।"

"'लेकिन क्या तुम्हें यह पता है कि जहाँ मैं बैठता हूँ उसके पीछे किसकी तस्वीर लगी रहती है ?''

"नहीं '"

"'देखो ज़रा गौर से "'

दिव्या ने देखा तो उसे अपनी ही सारी तसवीरें दिखाई दी।

''मैंने पिछले 10 सालों में एक भी तस्वीर दुबारा नहीं लगाईं है तुम्हारी। इतनी यादें हैं मेरे पास तुम्हारी तस्वीर के रूप में।"'

तभी दो 15 साल की लड़कियाँ मम्मी कहती हुई वहाँ आई और दिव्या के पास बैठ गईं।

"ये तुम्हारी बच्चियाँ है?"मोहित ने पूछा।

"हाँ"

"तुम्हारी शादी कब हुई?"

"नहीं,हुई।"

"फिर ये बच्चियाँ?"

"मेरी दीदी की हैं और अब मैं ही इनकी माँ हूँ।"

दोनों लड़कियाँ छोले भटूरे खाने वहाँ से चली गई।

मोहित ने कहा-"दिव्या,तुम ट्रेन की तरह सफर करती हुई गुज़र गई और मैं आज भी स्टेशन सा रूका हुआ हूँ।"

दिव्या-"लेकिन मैं 10 साल से रोज़ इस स्टेशन के करीब से गुजरती हूँ।"

"तो रूक क्यों नहीं जाती?"

"ट्रेन रूक जाएगी तो मंज़िल को कैसे मिलेगी?"

"क्या है तुम्हारी मंज़िल?"

"इन बच्चियों की बेहतर ज़िन्दगी। इनकी मंज़िल ही मेरी मंज़िल है। औरत की ज़िंदगी अपनी नहीं होती। 10 साल पहले तुम्हारी थी

और आज इनकी है। मेरी ट्रेन आ गई है। मैं निकलती हूँ। मैं ताउम्र यह सफर करती रहूँगी। तुमसे गुज़रती रहूँगी। तुम्हें देखती रहूँगी। पर तुम तक ठहर नहीं पाऊँगी।"

इतना कहकर दिव्या चल पड़ी और मोहित एक बार फिर अपनी मंज़िल को पाकर भी सफर में ही रह गया।


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