Arunima Thakur

Inspirational

4.8  

Arunima Thakur

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मन में रख विश्वास

मन में रख विश्वास

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आज जब मैं कॉलेज के स्टेज पर पीएचडी की डिग्री के लिए अपने ही गुरुजनों द्वारा सम्मानित किया जा रहा हूँ, तो यह कहना गलत होगा कि यह सब एक सपने के सच होने जैसा है। क्योंकि मैं जिन परिस्थितियो में रहकर पढ़ाई किया था, उनमें तो यह भी नहीं पता था कि पढ़ाई पूरी भी हो पाएगी या नहीं । जहां आज आपको आधा पेट खाने के बाद यह भी ना मालूम हो अब खाना ना जाने कब मिलेगा । वहां क्या आप आँखों से किसी ऐसे सपने की अपेक्षा कर सकते हैं ? पर परिस्थितियां कैसी भी क्यो न हो क्या हम आँखों से सपने ना देखने की उम्मीद कर सकते है ? कहीं न कही जाने अनजाने कुछ सपने बन्द आँखों ने देखे ही होंगे। आज जब मैं अपने ही कॉलेज में प्रिंसिपल के पद पर पहुँच गया हूँ , तो यह लगता है कि हाँ मैंने सरवाइव कर लिया। शायद अपने उन अनदेखे सपनो को पूरा भी।


 कहते हैं ना कि गरीबी बताकर नहीं आती राजा को रंक बनते देर नहीं लगती । वैसा ही कुछ हमारे परिवार के साथ हुआ बचपन की धुंधली यादें हैं , जिनमें में मैं राजकुमार था । पर दीदी की शादी के बाद जैसे लक्ष्मी ही हमारे घर से रूठ गई । बाबू का दूध का काम धंधा सब बंद हो गया। हमारी पाँच भैसे एक साथ ट्रेन से कटकर मर गई और बाकी भी एक एक करके बीमार पड़ कर या क्या पता कैसे मरने लगी। ऐसे र्दुदिन आए कि हमारे पास गांव वापस जाने तक के पैसे नहीं थे। बाबू की समझ में नहीं आता था कि क्या करें । बाबू परिस्थितियों से हार मान कर वापस गांव जाने की तैयारी करने लगे। पर मेरी अम्मा ने कहा, "नहीं मेरे बच्चों का भविष्य यहां पर हैं मैं अपने बच्चों को पढ़ाऊंगी"। हम तीनो भाई एक ही रुमाल में रोटी बांध का टिफिन के लिए लेकर जाते। टिफिन तो क्या उस समय उतनी रोटियां भी हमारे पास नहीं थी। एक समय था जब बाबू दूध बेचकर मुंबई से आते वक्त हम बच्चों के लिए रोज इमरती रबड़ी लाते थे वहीं आज दो जून की रोटी के भी लाले पड़ गए थे । कभी-कभी बहुत भूख लगती तो रेलवे ट्रैक पर पड़े हुए नारियल को तोड़ कर उसकी गिरी निकाल कर खा लेते। घर पर आते, अम्मा यदि बोलती तो खाना खाते अगर नहीं बोलती तो समझ जाते कि आज घर में खाना नहीं बना है। सच पूछिए तो ऐसा लगता कि गरीब होना बुरी बात नहीं है पर अमीर से गरीब होना जरूर बहुत बड़ी बात है आप किसी को बता भी नहीं सकते कि आप पर क्या बीत रही है ।


           मैं पढ़ने में अच्छा था । पढ़ने की लगन थी। इसलिए जब तक मैं कक्षा छः में आया, तब तक मैंने यह समझ लिया था कि अगर जिंदगी में कुछ करना है, कुछ बनना हैं , तो पढ़ना पड़ेगा और पढ़ने के लिए कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा । क्योंकि मेरे बाबू परिस्थितियों से हार मान कर बार बार गांव चले जाने की बात कर रहे थे । और घर में पैसे नहीं थे । मैंने छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया । उस जमाने में ट्यूशन से कितना मिलता होगा ! पर इतना तो था कि मेरी पढ़ाई चल सके । आठवीं तक की पढ़ाई तो सरकारी स्कूल में हो गई । नवी कक्षा की फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे । प्रिंसिपल के पास गया अपनी मजबूरी बताई । प्रिंसिपल भी इतने अच्छे इंसान , उन्होंने कागज पर लिखवा कर लिया "मैं हर बार कक्षा में अव्वल आया करूंगा" इस शर्त पर फीस ना भरने की परमिशन दी जाती है। फीस की समस्या सुलझी तो एक नई समस्या सामने आ गई, यूनिफॉर्म की, वह भी फुल पैन्ट बनवानी थी ।


रेलवे स्टेशन पर घास डिब्बों में लोड होती थी हमालीगिरी की । जो घास गठ्ठर से बाहर गिर जाती थी, वह बेच - बेचकर जो पैसे जमा हुए , उनसे मेरी पहली फुल पैंट बनी । पढ़ने में अच्छा होने के कारण गुरुजनों का सहयोग बहुत मिला । ग्यारहवीं की पढ़ाई के लिए भी कॉलेज के प्रिंसिपल से मिला उन्होंने भी बहुत सहयोग किया और एक प्लास्टिक की फैक्ट्री में नौकरी भी लगवा दी । मैं रोज रात पाली में फैक्ट्री में काम करता । सुबह उठकर चलते हुए ही रोज कॉलेज जाता पढ़ने के लिए । फैक्ट्री शहर के एक कोने पर थी और कॉलेज शहर के दूसरे कोने पर । मैं कैसे भागकर पहुँचता था, यह मैं ही जानता था । दोपहर को कॉलेज से घर आकर मुझे सिर्फ दो- तीन घंटे की नींद ही मिल पाती । उसके बाद वापस अपनी पढ़ाई,, ट्यूशन और रात की पाली में नौकरी के लिए जाना यह मेरी दिनचर्या थी। मेरी फैक्ट्री के मालिक ने मुझे देखा तो उन्होंने अपनी एक पुरानी पड़ी हुई साइकिल मुझे दे दी । इससे मुझे थोड़ा आने जाने में अच्छा हो गया । मैंने अपना बी. काम. पूरा किया । मुझे मेरे प्रिंसिपल ने कॉलेज में ही शिक्षक की जॉब का ऑफर दिया, पर बोला कि जब तक तुम एम.काम. नहीं कर लेते, तब तक पगार नहीं मिल पाएगी । मैं दिन में कालेज में पढ़ाता , बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता , और रात की पाली में फैक्ट्री में नौकरी करता। साथ ही साथ मैंने पत्राचार कोर्स द्वारा एम.कॉम. में दाखिला ले लिया ।


एम.कॉम. की परीक्षा कोल्हापुर में थी । मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं होटल में रुक कर के परीक्षा दे सकूं । मुझे पूरे बीस दिन वहां रुकना था । मेरे एक दोस्त की बहन वहां थी । मैं उसके यहां परीक्षा देने के लिए रुक गया। पर फिर खाने की समस्या । क्योंकि मुझे लगता था कि वह लोग भी कुछ ज्यादा अमीर नहीं थे और मैं भी उन पर बोझ नहीं बनना चाहता था । उससे भी बड़ी समस्या तो यह थी कि वो लोग मांसांहारी थे और मैं शुद्ध शाकाहारी, तो मैंने उनको बोला कि मैं खाना बाहर होटल में खा लिया करूंगा । पर मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं रोज रोज होटल में खाना खा सकूं। मैं शाम को आजू-बाजू के 2 - 4 मंदिर में जाता वहाँ प्रसाद खाता और घर आकर दीदी को बोल देता, हाँ मैं होटल से खाना खा कर आया हूं । कभी कभी वह जबरदस्ती घर पर खाना खिला देती। वही वह कुछ दिन होते जब कि मुझे खाना खाने को मिलता था । बाकी बीस दिन में से पंद्रह दिन मैं मंदिरों के प्रसाद पर ही जिंदा था । मेरा एम. काम. का परिणाम आ गया था । मैं फर्स्ट क्लास से पास हुआ था । फिर मेरी नौकरी पक्की हो गई उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । मैं जूनियर कालेज में धीरे धीरे पढ़ाते पढ़ाते बी.काम. को पढ़ाने लगा। मेरे आदरणीय प्रिंसीपल सर की हौसलाफजाई के कारण मैंने पी. एच डी. में दाखिला लिया । पी एच.डी. पूरी होने से पहले ही मुझे इंचार्ज प्रिंसीपल बना दिया गया। और आज मैं अपने ही कालेज में प्रिंसिपल हूँ।


              जीवन में बहुत बार ऐसे पल आयें जहाँ लगा कि बस अब हौसला टूट रहा हैं। कुछ कर पाऊंगा, कुछ बन पाऊँगा, इस आशा का दामन हाथ से छूट रहा हैं। पर हर बार मेरी अम्मा की कहीं हुई ये पंक्तियां मुझे संबल देती जो वो अक्सर हमसे कहाँ करती थी ," जब वे दिन नहीं रहें तो ये दिन भी चलें जायेंगें। " अर्थात जब अच्छे दिन नहीं रहें और गुजर गये तो खराब दिनों से क्या घबराना ये भी गुजर जायेंगे। आज भी यह पंक्तियां मेरे जीवन का गुरू मंत्र हैं। इन्ही  पंक्तियों के कारण आज भी मैं कठिन समय या कठिन परिस्थितियों को हंसते हंसते पार कर जाता हूँ।


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