मन के फेरे

मन के फेरे

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मैं रेलवे स्टेशन पर लकड़ी की बेंच पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। ज़िन्दगी से हारा था, कहाँ जाना था, किस मंज़िल को जाना था कुछ पता नहीं था। मैं कुछ और ख़यालों में उलझ पाता तभी एक मालगाड़ी बहुत तेज़ हॉर्न बजाती हुई गुज़रने लगी। मैं एकाएक ख़यालों से बाहर आ गया। मालगाड़ी को देखते-2 होश ही नहीं रहा कि कब ग्वालियर-पुणे एक्सप्रेस प्लेटफार्म 4 पर आ चुकी थी।

मालगाड़ी के गुज़रने के बाद सामने प्लेटफार्म पर ग्वालियर-पुणे एक्सप्रेस खड़ी थी। मैं खड़ा हुआ अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर पहुँचने के लिए पुल की तरफ चल पड़ा। अभी जो स्टेशन सुस्त सा लग रहा था, अचानक उसमें जान आ गयी थी, कहीं चाय-चाय, कहीं समोसा, कहीं ब्रेड पकौड़ा, तो कोई कोल्ड ड्रिंक्स बेच रहा था।

मैं पुल की सीढ़ियाँ चढ़ने ही वाला था कि मेरी नज़र एक महिला पर पड़ी, मेरी ही हम-उम्र थी, उसके साथ उसकी दो-ढाई साल की एक बहुत प्यारी बच्ची थी। सामान ज्यादा था उसके पास इसलिए थोड़ी मुश्किल से सीढ़ियाँ चढ़ पा रही थी। मैंने इंसानियत दिखाते हुए उसकी बेटी का हाथ पकड़ा और एक हाथ से उसका बैग पकड़ के कहा, मैं आपकी मदद कर देता हूँ। पहले उसने मना कर दिया कि मुझे किसी की मदद नहीं चाहिए, मैं मैनेज कर लूँगी, फिर न जाने क्या सोचकर ठीक है कह दिया। मैं सीढियाँ चढ़ने से लेकर प्लेटफार्म 4 तक पहुँचने तक उसकी बातूनी बेटी से खूब बतियाता रहा, वो महिला दबे हुए होंठो से हल्के-हल्के मुस्कुराती रही।

जब मैंने उस महिला और उसकी बच्ची को ट्रेन में छोड़ा, तो उस बच्ची ने बड़े ही मासूम अंदाज़ में थैंक यू बोला। मैंने उसका नाम पूछा तो बोली, "चंचल"।

अपने नाम के माफिक थी ये लड़की। उसके साथ उसकी माँ ने भी थैंक यू कहकर मुस्कुरा दिया। फिर उसने पूछा आप कहाँ जा रहे हो??

मैंने सोचते हुए कहा, "पुणे, मुझे पुणे जाना है। मेरा एक कंपनी में इंटरव्यू है।"

उस महिला के सामने वाली सीट खाली थी, वो झिझकते हुए बोली, "अगर आप चाहें तो यहाँ बैठ सकते हैं। "

मैं भी उस वक़्त सच में यही चाहता था कि मैं उस बच्ची के साथ सफर करूँ। मैं बिना कुछ कहे उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया। फिर मैं उठा और पास में लगी एक दुकान से कुछ अच्छी टॉफियाँ चंचल के लिए खरीद लाया और वापस अपनी सीट पर बैठ गया। मैंने वो टॉफियाँ चंचल को दे दी। उसने एक बार फिर खुश होते हुए बड़े ही मासूम अंदाज़ में 'थैंक यू' बोला।

बच्ची के साथ बच्चा बनने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था, मेरी और चंचल के बीच होती बातों पर वो महिला और आसपास बैठे यात्री मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। चंचल मेरे पास खेलते-खेलते मुझसे बतियाती हुई मेरी गोदी में ही सो गई। मैंने अपनी आँखों के कोने से बहते आँसुओं को पोंछ लिया, मेरे सामने बैठी महिला ये सब देख रही थी, उसकी नज़रें अब मुझपे गढ़ गयीं थीं मानो जैसे वो बहुत कुछ पूछना चाहती थी।

मैंने चंचल को उस महिला को दे दिया। मैं आँखें बंद करके बैठ गया। क्योंकि इस वक़्त मुझमें उस महिला के मन में उठने वाले सवालों का कोई जवाब देने की हिम्मत नहीं थी। मेरा मोबाइल बज उठा, मेरे दोस्त अतुल का मैसेज था।

मैंने मोबाइल को ऑफ कर लिया।

सामने बैठी महिला ने पूछा, "कुछ परेशान हो क्या???"

मैं अपनी किस्मत पे मुस्कुरा दिया, सोचने लगा, "जिसका नाम तक नहीं जानता, उसे भी मेरी तकलीफ दिखाई दे रही है। और जिसे समझना चाहिए था, उसका क्या।"

मैं कुछ नहीं बोला।

उस महिला ने मेरी तरफ हाथ आगे बढ़ाया और बोली, "मैं रागिनी और आप ?"

मैं इस परिचय के लिए तैयार नहीं था, लेकिन हड़बड़ाहट में मैंने भी अपना हाथ बढ़ाकर उसको अपना नाम बताया। उस महिला का नाम जानने तक 1 स्टेशन गुज़र चुका था।

नाम जानने के बाद भी एक अजीब सी खामोशी थी हम दोनों के बीच, लेकिन एक न टूटने वाली चुप्पी हम दोनों के होंठों पर थी, सिर्फ पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी के पहियों की आवाज़ हो रही थी।

मैंने फिर अपना मोबाइल अपनी जेब से निकाला, उसको चालू किया और अतुल का भेजा हुआ मैसेज पढ़ने लगा। पकड़ सही नहीं थी तो मोबाइल हाथ से छूट गया और नीचे गिर गया, मैं मोबाइल को उठाने के लिए झुका तो मेरी शर्ट की जेब में रखी डायरी नीचे गिर गई, उस डायरी में रखी मेरी और खुशी की तस्वीर रागिनी के पैरों में जा गिरी। रागिनी ने वो तस्वीर उठायी और एक पल निहारकर मुझे वापस दे दी।

मैं उस तस्वीर को देखते ही फिर से मायूस हो गया। चंचल अभी तक सोयी हुई थी।

उस तस्वीर को अपने हाथ में लिए मैं ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रहा था, जितना अंधेरा बाहर था उससे कहीं ज्यादा मुझे अपने सामने दिखाई दे रहा था, एक अंतहीन अंधेरा, मैं अपनी और खुशी की तस्वीर को देखता रहा। और रागिनी मुझे निःशब्द निहारती रही।

मैं न जाने कब ट्रेन की भीड़भाड़ को चीरता हुआ अपने आप में उतरता चला गया। कल खुशी से मेरी बात हुई थी, कल तारीख थी 6 जून, और आज उसका जन्मदिन है 7 जून।

वो मुझसे कल जब मिली तो आँखों में वो चमक नहीं थी, जो मुझसे मिलने पर हमेशा उसकी आँखों में होती थी। कल शाम को थरथराते हुए लबों से उसने कहा था, "मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ, एक जॉब के बिना इतनी सारी परेशानियाँ खड़ी हो गईं, तुमने ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझी, तुमने मुझपे भरोसा नहीं किया, मैं हमेशा के लिए तुम्हारी थी, तुम्हें बातों को समझना चाहिए था। मेरे लिए क्या दुनिया की किसी भी लड़की के लिए अपने पिता और अपने प्यार को चुनना मुश्किल होता है। अगर तुम्हारे पास जॉब होती तो मैं तुम्हारा साथ देती, लेकिन ऐसे नहीं। मैंने अपने पापा की बात का मान रखने के लिए शादी की बात पर अपनी रजामंदी दे दी है। लेकिन तुम ये मत समझना कि मुझे तुमसे प्यार कम था या मैंने बेवफ़ाई की है, मैं तुम्हें बता चुकी हूँ। उम्मीद करती हूँ तुम मेरी बात को समझोगे।"

मैंने खुशी की बातों को समझने की कोशिश की और कहा, "तुमने तो प्यार में शर्त सी रख दी। तुमने तो हमेशा हर हाल में मेरा साथ देने का वादा किया था। मैं कभी एक पिता और एक बेटी के बीच में नहीं आऊँगा, लेकिन तुमने मुझे हमेशा यही एहसास दिलाया कि तुम सारी दुनिया से लड़ जाओगी मेरे लिए, लेकिन मेरा साथ नहीं छोड़ोगी। फिर आज ये बात कैसे।"

मैं थोड़ा अलग किस्म का इंसान हूँ, सीधा बोलना और सीधा सुनना पसंद करता हूँ।

खुशी कुछ देर चुप रही फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर बोली, "उम्मीद करती हूँ कि तुम मेरी मजबूरी समझोगे, हर किसी को सबकुछ नहीं मिलता।"

खुशी को शायद समझा सकता कि उसकी कही हुई एक-एक बात मेरा कलेजा छलनी कर रही थी। 6 साल के रिश्ते को 6 मिनट भी नहीं लगने दिए और एक ऐसा फैसला सुना दिया जिसके बाद मेरी ज़िंदगी में बस गम ही गम था।

आज उसका जन्मदिन है, पिछले 6 सालों के बाद ये साल ऐसा था, जब मैं ना चाहते हुए भी उससे दूर जाना चाहता था, अपनी पहचान बनाने निकल पड़ा था।

फिर से आँख के कोने से आँसू ढरक आये, इस बार सामने सीट पर बैठी रागिनी से रहा नहीं गया और मुझपे कोई अनचाहा हक़ जताते हुए बोली, "तकलीफें बाँटने से कम होती हैं, क्या बात है मुझे बताओ, कोई रिश्ता तो नहीं हमारे बीच पर फिर भी तुम भरोसा तो कर सकते हो।"

मैंने अपनी और खुशी की उस तस्वीर को ट्रेन की खिड़की से हवाओं को विसर्जित कर दी। और रागिनी को जवाब देते हुए कहा, "बस एक अतीत था जिसे हमेशा के लिए पीछे छोड़ आया हूँ।"

वो मुझपे नज़रें टिकाते हुए बोली, "अगर छोड़ ही आये हो तो फिर ये आँसू मन के किस कोने से बहा रहे हो।"

कितना अजीब होता है ना, कभी-कभी अनजाने लोगों से भी कितने जाने पहचाने रिश्ते बनवा देती है जिंदगी।

मैं फिर कुछ नहीं बोला।

उसने फिर मुझसे पूछा, "आगे के लिए क्या सोचा है, वक़्त तो किसी के लिए नही रुकता। आगे बढ़ना ही ज़िंदगी है।"

मैंने अब रागिनी से सवाल किया, "अगर ऐसे किसी हादसे से तुम गुजरती तो क्या तब भी यही बातें कहती।"

अभी जो थोड़ा-थोड़ा मुस्कुरा रही थी वो मेरा सवाल सुनके खामोश हो गयी।

फिर अपने लबों को धीरे से खोलते हुए बोली, "ये मेरी दो साल की बेटी है, इसके पैदा होने के बाद ही इसके पापा अमेरिका चले गए। उसके बाद सिर्फ तलाक के कागज़ आये मेरे पास। कहते थे, कि मुझे घर का वारिस चाहिए था। तुम और तुम्हारी बेटी के लिए जो भी हर्जाना बनता है, मैं उसे देने को तैयार हूँ। लेकिन तुम अपनी ज़िंदगी देखो।"

रागिनी के चेहरे पे एक मायूसी छा गई। थोड़ी देर चुप रही फिर बोली, "मैंने हर्जाना लेने से मना कर दिया, ऐसे इंसान की दौलत से अपनी बेटी की परवरिश नहीं करनी थी, जिसके अंदर संवेदनाएँ न हो, जो लड़का-लड़की में भेदभाव करे। और फिर ये बड़प्पन दिखा के दुनिया की नज़रों में अच्छा बन जाने का तमगा लग जाता उसे। अगर उसके दिए रुपये ले लेती तो समाज की नज़रों में वो कभी गुनहगार नहीं कहलाता।"

ये सब कहते कहते उसकी आँखें गीलीं हो गई।

मैंने हिम्मत करके उसका हाथ अपने हाथ में लिया और उसे दिलासा देने लगा। वो जब थोड़ा सहज महसूस करने लगी तब अपनी किस्मत पर हँसने लगा।।।

अभी तक मैं रागिनी से बात करने में हिचक रहा था, या शायद मैं उससे बात करने के लिए तैयार नहीं था

मगर उसकी जिंदगी के एक पहलू को जानने के बाद मेरे मन ने उसके साथ न जाने कितने फेरे कर लिए। मन ही मन सलाम कर रहा था रागिनी की हिम्मत को। लोग रुपयों के पीछे भागते हैं, क्या कुछ नहीं कर गुजरते, लेकिन रागिनी स्वाभिमानी लड़की थी, उसने बहुत कठिन निर्णय लिया था।

और अब मैं खुदको नहीं कोस रहा था क्योंकि मुझे तो खुशी ने सफर के पहले ही छोड़ दिया, लेकिन रागिनी का क्या, उसकी तकलीफ के आगे मेरी तकलीफ तो कुछ भी नहीं थी।

हम लोनावला पहुँच चुके थे, अब पुणे तक का सफर महज़ सवा दो घंटे का बचा था। ट्रैन अपनी रफ्तार से चल रही थी।

रागिनी अभी भी एकटक मुझे निहारे जा रही थी, उसकी नज़रें मुझपे गड़ रही थीं, मानो वो मन ही मन मुझसे कह रही हो कि तकलीफ सभी को होती है। परेशानियाँ सभी को होतीं हैं, लेकिन फिर भी जीना तो हर हाल में पड़ता है।

अचानक मायूसी भरे माहौल में चंचल के शब्द घुल गए, वो जाग चुकी थी। अभी कुछ घंटों पहले हुई मुलाकात का सफर मुझे अब किसी नए रिश्ते का आगाज लग रहा था।

आज रागिनी से मिलने के बाद ये बात मैं बहुत अच्छे से समझ चुका था कि प्यार होने में वक़्त नहीं लगता। कुछ लोग आँखों के जरिये सीधा दिल में उतरते चले जाते हैं। 6 घंटे पहले हुई रागिनी से मुलाकात ने मुझे एक नया आयाम दे दिया था।

रागिनी अब पलकों के कोने से हौले हौले रो रही थी, मैंने अपना हाथ उसके हाथ पे रखके कहा, "अभी थोड़ी देर पहले जो बातें तुम मुझे समझा रही थीं, वही बातें अब मैं तुम्हें समझाऊँ क्या।"

वो मन के किसी कोने से दबी मुस्कान को अपने होंठों तक ले आयी, वो बहुत प्यारी लग रही थी। मैंने उसका हाथ थामे मन ही मन में उसके साथ सात फेरे ले लिए, और मन ही मन में सारे वचन भी उसे दे दिये। रागिनी ने मेरा हाथ अपने हाथ पे ही रहने दिया, इस वक़्त शायद हम दोनों को ही सहारे की जरूरत थी। रागिनी ने फिर सवालिया नज़रे मुझपें गड़ाते हुए पूछा, "क्या सोच रहे हो।"

मैंने चंचल को उसकी गोद से अपनी गोद में बिठा लिया, फिर रागिनी के हाथ को लेकर चूम लिया और कहा, "सोच रहा हूँ कि ज़िन्दगी के हर मोड़ पर तुम मुझे यूँ ही समझाओ।"

रागिनी ने कसके मेरा हाथ थाम लिया पर जुबाँ से कुछ नहीं बोली। शायद जो मन के फेरे मैंने अकेले लिए थे, अब उसमें वो भी शामिल हो गई थी।

दो सफर करने वालों को इस वक़्त ने आज हमेशा के लिए एक हमसफर बना दिया था।


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