Kuldeep Kannojia

Romance Tragedy

3.7  

Kuldeep Kannojia

Romance Tragedy

बेनाम रिश्ता

बेनाम रिश्ता

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मुझे बहुत अच्छे-अच्छे दोस्त मिले हैं।

ना जाने कितनों ही अनजान चेहरों से एक जाना-पहचाना सा रिश्ता जुड़ गया है। जो लोग मेरे बारे में कुछ जानते ही नहीं है, मैं उन्हें बस यही बताना चाहता हूँ कि हाँ, मेरा भी पहला प्यार अधूरा ही रहा।

लेकिन उस चोट ने मुझे ज़िन्दगी के असल मायने समझा दिये। उस चोट और उस तकलीफ ने ज़िन्दगी जीने का बेहतर तजुर्बा दिया। और फिर इस दुनिया का इक यह भी उसूल है कि ऊपर वाले के घर देर है अँधेर नहीं। खुशियाँ सबके हिस्से में होती हैं, बस वो हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हमारे लिए खुशियों के मायने क्या है???

आज ऐसी ही एक कहानी से मैं आपको रूबरू कराने जा रहा हूँ, जिसे पढ़ने के बाद मेरा दावा है कि ये कहानी आप सबके जहन में एक बहुत लंबे अरसे तक जीवित रहेगी। मेरा यकीन मानिए, आप जब भी कोई अनजान चेहरा देखेंगे, आप इस कहानी को जियेंगे। चलिए शुरू करते हैं -

घड़ी में रात के 2 बज रहे थे, पर मेरी आँखों में नींद का दूर-2 तक कोई अहसास नहीं था। आँखों में नींद की जगह बस बेचैनी थी, छटपटाहट थी, कुछ उलझनें थी, कुछ बेबसी थी और बहुत ज्यादा मायूसी। नींद और खयाल की जद्दोजहद में मैं मन को शांत करने के लिए छत पर जा पहुँचा।

अगस्त का महीना था, पूर्णिमा की रात थी। कुछ समझ नहीं आया तो पूरे चाँद को ही निहारने लगा।

चाँद को कुछ लम्हे निहारने के बाद एकाएक मेरी नज़र एक घर पर पड़ी। हमारे घर से महज सौ या सवा सौ फुट की दूरी पर था। पर वो घर दूसरी गली में था। उस घर के पास ही स्ट्रीट लाइट लगी थी। और फिर पूरे चाँद की दूधिया रौशनी भी थी। मैं उस सफेद घर की बालकनी और छत को अच्छे से देख पा रहा था। और देख पा रहा था उस घर की बालकनी में खड़ी एक लड़की को। वो भी चाँद को देख रही थी। मेरी नज़र कुछ देर के लिए उसी लड़की पर ठहर चुकी थी।

वो लगातार चाँद को देखे जा रही थी और मैं ना चाहते हुए भी उसको ही देखे जा रहा था। तकरीबन कोई दस मिनट के बाद उसने अपने हाथ से अपने बालों को सँवारा। जैसे किसी नाटक की स्टेज से पर्दा उठता है ठीक उसी तरह हौले-2 उसके चेहरे का दीदार हुआ। चाँद की रौशनी और स्ट्रीट लाइट की रोशनी में मैं उसे देख सकता था। कॉलोनी में स्ट्रीट लाइट होने का ये भी फायदा है।

मैं भी अब बालकनी में आकर खड़ा हो गया। उसने रैलिंग पर अपने दोनों हाथों को रखा और इधर-उधर नज़रें घुमाने लगी। और मेरा एक हाथ रैलिंग पर था और दूसरे हाथ को मोड़कर अपना चेहरा अपनी हथेली पे रखके उसको एकटक देखे जा रहा था।

अचानक हम दोनों की नजरें एक दूसरे से उस रात में पहली बार टकराई, कुछ पल के लिए एक दूसरे पर नज़रें टिकाये रहे। वो नज़रों का मिलना और उसका मिलना, उस पूर्णिमा की रात में भी धुँधला-धुँधला नज़र आया। बस उस रात एक ही बात समझ आयी कि सिर्फ मैं ही अकेला नहीं जाग रहा था, कोई और भी था जो जाग रहा था।

उस धुँधली मुलाकात का मंजर कुछ अजीब था। वो लड़की अब बालकनी से जा चुकी थी और अब मैं भी वापस अपने कमरे में आ चुका था। लेकिन बार-2 उस लड़की का खयाल आ रहा था, लेकिन खयालों की उधेड़बुन में कब सो गया पता ही नहीं चला।

सुबह के 8 बज रहे थे, सुबह बमुश्किल से आँख खुल रही थी।

मैं अनमने ढँग से जाग के बैठता ही जा रहा था कि तभी मेरी छोटी बहन निशा चाय लेके आ गई। मुझे चाय का कप हाथ में देते हुए बोली, "जल्दी से चाय पियो और मुझे कॉलेज छोड़ के आओ, जल्दी से तैयार हो जाओ भईया।"

मैंने उसको हैरानी से देखा और फिर अनमने ढंग से चाय का कप उठाया। और वापस छत पर पहुँच गया। छत पर पहुँचकर सबसे पहले उसी घर की तरफ देखा जहाँ रात में मैंने एक लड़की को देखा था, पर अभी वहाँ कोई नहीं था। मैं चाय की हर चुस्की के साथ उसी घर को देख रहा था। अबतक चाय भी खत्म हो चुकी थी पर वहाँ कोई नहीं आया।

मैं पलटकर चलने लगा, फिर सोचा कि एक बार और उस घर की तरफ देख लूँ। व्याकुल मन से फिर उस घर की तरफ देखा, इस बार वो रात वाली लड़की छत पर थी। वो छज्जे पर आकर अपने बाल सुखा रही थी, और उसको देखकर मैं वैसे ही खुश हो रहा था जैसे बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना।

अब मैं उसे रात की तरह धुँधला-2 नहीं साफ-2 देख रहा था। कुछ वक़्त बाद फिर हम दोनों की नजरें एक दूसरे से टकराई। लेकिन इस बार जैसे ही हम दोनों की नजरें मिली, मैंने अपना चाय का कप उसकी तरफ करके चाय पीने का इशारा किया।

मगर, मेरा चाय के लिए इशारा करना उसको पसंद नहीं आया, उसने अपना मुँह बनाया और नज़रें घुमाकर बायीं ओर देखनी लगी।

मुझे लगा कि शायद मैंने गलत किया और उससे वापस नज़रें मिलने तक का इंतज़ार किया। थोड़ी देर बाद फिर उसकी नज़रें मुझपे पड़ी। मैंने बिना एक पल गँवाये अपने बायें हाथ से अपना कान पकड़कर सॉरी बोला, अब वो एकटक मुझे देख रही थी। मैंने फिर अपनो दोनों कान पकड़ कर माफी माँगी।

इस बार वो होंठों के किनारों से हल्की सी मुस्कुरा दी, और हाथ से कप लेने का इशारा कर दिया। मैं कुछ और बात कह पाता कि तभी निशा ने फिर आवाज़ दी, "भैया, कल नहीं आज ही चलना है, इतने में तो दो बार चाय खत्म हो जाती।"

मैंने अनमने ढँग से उस लड़की की तरफ हाथ हिलाकर Bye बोला, उसने भी जवाब में हाथ हिला दिया।

निशा को कॉलेज तक ले जाने और कॉलेज से घर वापस आने तक मेरी नज़रों में अभी भी उसी लड़की का वो मुस्कुराता हुआ चेहरा बार-बार आ रहा था।

रात के 2 बजे से लेकर अभी दोपहर के 12 बजे तक वो लड़की सैकडों बार मेरे सामने होंठों से हल्की मुस्कान बिखेरती नज़र आती रही।

अब तो हर रोज़ का यही नियम बन गया, हम दोनों वक़्त-बेवक़्त अपनी-अपनी छतों पर नज़र आ जाते। लगभग एक महीना हो गया था लेकिन हम इशारों-इशारों में ही बात करते थे, ना तो उसे, और ना ही मुझे उसका नाम पता था। और नाम पता चलता भी कैसे मैं उसका नाम खुद उसके लबों से सुनना चाहता था।

आज भी सुबह-सुबह मैं छत पे खड़ा उसे निहार रहा था, वो भी मुझे एकटक देखती रही फिर अचानक मुझसे नीचे जाने का इशारा किया, मैंने हाथ हिलाकर पूछना भी चाहा कि क्यों??? पर उसकी सादगी पे मैं हार गया, इस बार उसने जितनी भावुकता से आग्रह किया मैं फिर कोई सवाल नहीं कर पाया। मैं अपने घर के बाहर जाकर खड़ा हो गया।

करीब 5 मिनट बाद एक 14-15 साल की लड़की मेरे पास आई और मुझसे बोली, " कल सुबह 8 बजे दीदी ने आपको नैना झील के किनारे महादेव के मंदिर में बुलाया है, उन्होंने बोला है कि आप उन्हें झील के किनारे पर ही मिल जाना।"

मैंने उस लड़की से पूछा कि कौन सी दीदी????

वो पलटकर चलने लगी और बोली, "वही जिन्हें आप रोज अपनी छत से देखते हैं।"

मेरे लिए ये कितनी बड़ी खुशखबरी थी मैं आज भी बयाँ नहीं कर सकता। मैं उस दिन उस लड़की का संदेश सुनकर दौड़कर वापस अपनी छत पर गया मैं उससे कुछ इशारा करता इससे पहले वो पलट के चल दी, फिर एकाएक उसने पलट के मुझे देखा, अपने चेहरे पे सुकूनभरी मुस्कान लाते हुए मुझसे बाय कहकर नीचे चली गई। मैं बहुत खुश था, कल मैं उसको बहुत करीब से देखने वाला था, आज की रात भी बड़ी अजीब थी, उसे कल सुबह देखने की खुशी कह रही थी कि जल्दी सो जाऊँ, पर एक उसका खयाल था जो कि बार-2 नींद को कोसों दूर छोड़ आता था। मगर जैसे तैसे किसी तरह मैं सो गया। सुबह जल्दी जाग गया तैयार हुआ और नैना झील के किनारे पहुँच गया।

मैं तय वक़्त से 30-40 मिनट पहले पहले पहुँच गया। पर वहाँ पहुँचने के बाद एक विडंबना थी। झील के दोनों तरफ महादेव का मंदिर था और मैं पैदल ही गया था, पुल से दूसरी तरफ जाने में 20-25 मिनट लगते। पुल थोड़ी सी दूरी पर भी था।

ये वक़्त और भी कम हो जाता अगर मुझे तैरना आता होता, लेकिन मुझे तो पानी मे जाने से भी डर लगता था। मैं झील के उस पार महादेव के मंदिर को देख ही रहा था कि तभी मन्दिर से जरा सी दूरी पर मैंने देखा कि नीले सूट में वही छत वाली लड़की खड़ी है। मैं बिना कुछ सोचे भागता हुआ उसकी तरफ चल पड़ा। हाँफते-2 मैं उस लड़की के पास पहुँचा, लेकिन मेरी बदकिस्मती से ये दूर से दिखने में उस जैसी लग रही थी लेकिन असल में ये वो लडक़ी थी ही नहीं। उस पार पहुँचने के बाद मैंने देखा कि हाथ में पूजा की थाल लिए हल्के गुलाबी सूट में वो ही आ खड़ी थी।

एक बार ही दौड़ने में मैं थक चुका था, अब फिर से दौड़ते हुए उस पार गया। वो झील को निःशब्द निहार रही थी, मैं उसके पास पहुँच के वहीं बैठ गया। मेरी साँसें बहुत जोर जोर से चल रही थीं।

उसने मुझे देखा और मेरी हालत देखकर एक मीठी शिकायत करते हुए बोली, "वक़्त से 20 मिनट देर से आये हो, अब तो मेरे जाने का भी वक़्त हो गया।"

मुझे उसकी बात सुनकर ऐसा लगा, जैसे मैं कोई रेस बस एक कदम की दूरी से हार गया।

मैंने उसको पूरी बात बता दी, वो खिलखिलाकर हँस दी। मैं उसको एकटक देखता रहा, उसका मुस्कुराना, उसका थोड़ी देर पहले का झूठा गुस्सा वो इन दोनों अदाओं में मुझे बहुत प्यारी लगी।

अचानक मेरी तरफ हाथ करते हुए बोली, "क्या हुआ???"

मैंने कुछ नहीं हुआ बोलके उससे उसका नाम पूछा?

वो बोली ,"अपर्णा"

मैंने जवाब में कहा बहुत अच्छा नाम है। अगर मैं सही समझ रहा था तो अपर्णा भी माँ पार्वती को कहा जाता है, ये भी माँ पार्वती का ही नाम था।

उसने फिर मेरा नाम पूछा, मैंने उसको अपना नाम बताया। अब हम दोनों अनजान नहीं थे, हम एक दूसरे का नाम जानते थे। हम दोनों एक घंटे तक एक दूसरे से बतियाते रहे।

न चाहते हुए भी अब विदा लेने का वक़्त आ गया था। हम अनमने ढँग से एक दूसरे से बाय कह रहे थे।

हम लोग अब हर सोमवार को झील के किनारे मिलते थे, खूब बातें करते, अपनी खुशी अपना दर्द बाँटते। जब भी कठिन परिस्थितियों में होती तो मैं निश्छल मन से उसकी मदद करता, और बदले में उसने भी मुश्किल वक़्त में मेरी बखूबी मदद की, लेकिन न हम दोस्त थे और न ही कुछ और, पर जो भी था इस रिश्ते से हम खुश थे, आज की तरह तब हर घर में फ़ोन नहीं था। लेकिन हम दोनों के घर में टेलीफ़ोन था।

जब भी मुझे या उसे मिलना होता तब हम अपनी गली के छोटे बच्चों को एक चॉकलेट के बहाने अपनी खैर-खबर भेजते रहते। उसकी लिखी दर्जनों चिट्ठियाँ मेरे एक सूटकेस में जमा थीं। अपर्णा से जुड़ी हर चीज़ को मैं सहेजकर रखना चाहता था और मैंने रखा भी था।

मगर ज़िन्दगी में खुशियाँ ज्यादा दिन कहाँ रुका करती हैं। उस दिन पहली बार अपर्णा ने मुझे फ़ोन किया और उसी झील के किनारे मिलने बुलाया। मैं आवाज़ से समझ गया था कि उसका गला रुँधा हुआ था, किसी बात को लेकर उलझन में थी, मगर ये सब उससे मिलने के बाद ही साफ होता।

मैं नैना झील के किनारे उसका इंतजार कर रहा था, वो आयी, मेरे पास बैठ गई। चेहरे पर शून्यता थी, आँखों में फिक्र और उसे देखकर लग रहा था कि होंठो पर कभी न टूटने वाली चुप्पी घर कर गई है। अपर्णा को ऐसे देखकर मैं अंदर से बेचैन था, मुझे वो मुस्कुराती हुई, खुशमिजाज ही अच्छी लगती थी। अजीब रिश्ता था वो किसी उलझन को लेकर उदास थी और मैं उसे ऐसे देखकर उदास था। कहते हैं ना कि तूफान के आने से पहले एक गहरी खामोशी होती है, आज उसके होंठों पर भी कुछ वैसी ही चुप्पी थी।

आज मेरे कँधे पे अपर्णा अपना सिर रखे कुछ देर खामोश ही रही, फिर बोली, "अगले महीने की 13 तारीख को मेरी शादी है। तुम्हें बस यही बताने आयी थी।"

मेरे सभी अंदाज़े गलत साबित हुए, अब अपर्णा के हिस्से की उदासी मेरे हिस्से में आ चुकी थी। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे अंदर मेरा कुछ टूट गया था, अपर्णा मेरे कँधे पे सर रखके थोड़ा रो ली, कहीं मुझे शक न हो इसलिए पलटकर चलने लगी, फिर रुक कर बाय कहकर बोली, "खयाल रखना अपना।"

मैंने भी उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा कि तुम भी अपना ख्याल रखना। हम दोनों की आँखों में अनन्त आँसू थे फिर भी एक दूसरे से छुपाना चाह रहे थे।

उस दिन के बाद भी हम हर सोमवार को वहीं झील के किनारे मिलते, साथ हँसते, साथ में रो लेते, और फिर आगे की ज़िंदगी में दोबारा यूँ ही मुस्कुराकर एक दूसरे से मिलने के वादे करते। अक्सर उसकी सवालिया नज़रें मुझसे वक़्त-बेवक़्त इस रिश्ते का नाम पूछा करती थी, जवाब उसकी आँखों में भी था और मेरे दिल में भी। लेकिन ये रिश्ता सुकूनभरा था। अब हम जब भी मिलते तब एक दूसरे से विदा लेते वक़्त बिछड़ाव का अहसास होता था। जो लफ्ज़ों में कभी बयाँ नहीं हो सकती थी, उस तकलीफ से हम दोनों रोज़ रूबरू होते थे।

जिस दिन से अपर्णा ने मुझे अपनी शादी की बात बताई थी उस दिन से मेरी आँखों में एक उदासी ठहर गई, बेवजह आँखों में नमी रहती थी।

आज 13 तारीख थी, अपर्णा की शादी का दिन था आज। मैं पिछले कुछ दिनों से महसूस करना भी भूल गया था। हर वक़्त 13 तारीख का इंतज़ार रहता था। उसके लिए मैं खुश भी था तो दूर कहीं मन के किसी कोने में रोज़ कुछ न कुछ टूटकर बिखर जाता था।

उसकी शादी में उसे क्या तोहफा दूँ और तोहफा ले भी आऊँ तो उस तक पहुँचेगा कैसे, इसी कश्मकश में आँखों से कुछ आँसू ढरक ही आये।

मैं बाजार गया वहाँ से सबसे अच्छी चूड़ियों का डिब्बा और एक अँगूठी ले आया। मुझे नहीं पता था कि ये कभी उस तक पहुँचेंगी भी या नहीं लेकिन मैं ले आया।

यूँ तो अपर्णा ने कई बार मुझसे कहा था कि मेरी शादी में जरूर आना। मगर कैसे जाता???

आज निशा भी कॉलेज नहीं गई थी, मेरे पास आयी मेरे सर पे माँ की तरह हाथ फिराते हुए बोली, "भईया, सब ठीक तो है ना, कुछ परेशान से लग रहे हो।"

मैंने निशा को सोफे पे बिठाया, उसकी गोदी में अपना सर रखके सोफे पे लेटते हुए कहा, "सब ठीक है छुटकी, बस थोड़ा सर दुख रहा है।"

निशा मेरा सर दबाती रही मैं ना जाने कब उसकी गोद में सो गया। आज निशा में मैंने अपनी माँ की एक झलक देखी थी।

जब मेरी आँख खुली तब शाम के 7 बज रहे थे, मैं नहाने चला गया। मन को थोड़ा शाँत करना चाहता था।

शाम के 8 बज रहे थे मैं अपनी छत से अपर्णा का घर देख रहा था, रंग-बिरंगी लाइटों से सजा घर और उस घर की छत पर आज अपर्णा को छोड़कर बहुत से चेहरे दिख रहे थे।

मैं अपने घर की बालकनी पर खड़ा-खड़ा खुद से एक कभी न खत्म होने वाली जंग लड़ रहा था।

मैंने अचानक देखा कि तीन लड़कियाँ मेरे घर की तरफ आ रहीं थीं, बीच में वो वाली लड़की भी थी जो अक्सर अपर्णा का संदेश लेके आया करती थी।

वो तीनों मुझे अपने साथ ही लेने आयीं थी। मैं उनके साथ चल पड़ा।

उन तीनों ने मुझे एक कमरे के बाहर लाकर खड़ा कर दिया और सब एक साथ बोली, "अपर्णा ने बुलाया है आपको।"

मैं चेहरे पर एक अच्छी मुस्कुराहट लाने की कोशिश करने लगा, लेकिन तभी अपर्णा ने मुझे कमरे के अंदर बुला लिया।

उस कमरे में अपर्णा की बड़ी दीदी, उसकी भाभी, वो और मैं, हम चारों ही लोग कमरे के अंदर मौजूद थे। आज अपर्णा बला की खूबसूरत लग रही थी। शादी के जोड़े में वो परियों की रानी लग रही थी।

मैंने सबसे हाय-हेलो किया और अपर्णा के सामने जाके खड़ा हो गया। अपर्णा मुझे और मैं अपर्णा को निःशब्द निहारता रहा। उसकी आँखों से आँसू छलक उठते उससे पहले ही मैंने उसके हाथ में चूड़ियों का डिब्बा थमा दिया, उसी डिब्बे में वो अँगूठी भी रख दी थी मैंने।

मैंने अपर्णा से कहा, "परी लग रही हो तुम, तुम अपनी दुनिया में हमेशा खुश रहो। जहाँ भी रहो और जिस हाल में भी रहो, अपने होंठों पे मुस्कुराहट हमेशा सजाये रखना। तुम मुस्कुराते हुए बेहद खूबसूरत लगती हो।"

मैं पलट के चलने लगा तो उसकी दीदी और भाभी ने मुझसे पूछा, "क्या रिश्ता है तुम्हारा उससे, क्या लगती है वो तुम्हारी।"

दोनों के सवाल सुनकर मैं पास ही पड़ी कुर्सी पे बैठ गया, एक पल को खामोशी छा गई उस कमरे में,

फिर अचानक अपर्णा मेरी तरफ बढ़ी मुझे कुर्सी से खड़ा करके कसके मेरे गले लग गई, फिर भाभी और दीदी को जवाब देते हुए कहने लगी कि मैं बताती हूँ, मेरा इनसे क्या रिश्ता है....

अपर्णा ने जैसे ही अपने लब खोले, मैंने अपनी उँगली रख दी उसके लबों पे। फिर अपर्णा का हाथ उसकी दीदी के हाथ में थमा के बोला, "दीदी, कुछ रिश्ते किसी नाम के मोहताज नहीं होते, कुछ रिश्ते बेनाम ही अच्छे लगते हैं।" मैंने अपर्णा को फिर आखिरी बार कसके गले लगाया, अपने कुछ आँसू उसके माथे पे और उसके कुछ आँसू अपने सीने पे लेके इस बेनाम रिश्ते की खुशबू लिये मैं कमरे से बाहर आ गया.........।

बस इतनी सी थी ये कहानी।


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