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मन का भँवर

मन का भँवर

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पार्क में पंछियों का चहचहाना मधुर संगीत पैदा कर रहा था। पेड़ों के हरे-भरे पत्तों से छनकर-आ रही धूप डी जे, की लाइटों सा आभास करवा रही थी। रंग-बिरंगे फूलों का स्पर्श कर बहती मद्दम-मद्दम हवा वातावरण को सुगंधित व मनमोहक बना रही थी।

अनेक जोड़े अपनी-अपनी आड़ लेकर एक दूजे में खोए हुए थे। वह भी अपनी सहकर्मी छरहरी की बाहों में ज़न्नत की सैर-सी कर रहा था। जन्नत से थोड़ा-सा बाहर निकल जैसे ही उसने अँगड़ाई ली सामने के पेड़ के नीचे उसकी पत्नी पड़ोसी की बाहों में झूलती नज़र आयी। वह आगबबूला हो गया, आस-पास का सारा वातावरण एक ही पल में बंजर, बियाबान नज़र आने लगा। उसके नथुने फुंकारने लगे। वह पसीने-पसीने हो गया।

उसकी आँखें खुल गयी। घड़ी की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो रात के दो बजे हुए थे। उसकी पत्नी उसकी बाँहों में बड़े इत्मिनान से सो रही थी।


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