मझधार
मझधार
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रागिनी रोज की तरह शाम को छत पर जाकर बस एक टक चन्द्रमा को देखकर वही सवाल कर रही थी , जो वह हर रोज करती थी.'' क्या करूं , कुछ समझ नहीं आ रहा है, ऐसा लगता है कि जैसे नदी के बीच में हूं , किनारा तो दिख रहा है , पर किनारे पर पहुंचने के बाद क्या होगा , पता नहीं , इसलिए मैं अपने लिए कुछ भी नहीं कर पा रही हूं! ".