मेरे आदर्श प्रोफेसर गोपाल शरण
मेरे आदर्श प्रोफेसर गोपाल शरण
लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. (एन्थ्रोपोलोजी) करने के दौरान हमारे विभागाध्यक्ष थे प्रोफेसर गोपाल शरण। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी उन्होंने। वे बहुत विद्वान और जाना माना नाम थे। उनकी लिखी किताबें हमारे कोर्स में थी। बहुत सौम्य व्यक्तित्व था उनका। ज्यादा बातें नहीं करते थे।
पर रौब बहुत था उनका। उनको आता देख कर हम इधर-उधर खिसक जाते थे। छोटे से दुबले- पतले से थे प्रोफेसर शरण। एक हाथ में कपड़े का झोला और दूसरे हाथ में छतरी लेकर चलते थे।
उन दिनों हम लखीमपुर खीरी के दुधवा नेशनल पार्क के घने जंगलों के मध्य स्थित मशानखम्भ नामक स्थान पर निवास करने वाली थारू जनजाति पर शोधकार्य के लिए गये हुए थे। प्रोफेसर शरण भी हमारे साथ थे। वे हमारा नेतृत्व कर रहे थे। साथ ही हमारे विभाग के चपरासी मिश्रीलाल जी भी हमारे साथ थे और वे हमारे लिये भोजन का इंतजाम करते थे। हम सब भी उनकी सहायता कर देते थे।
एक दिन वहाँ मेरी तबियत बहुत खराब हो गयी। उल्टी, बुखार और पेट दर्द से मैं पस्त हो गयी। खाना खाने की इच्छा नहीं होती थी। सर प्लेट लेकर मुझे स्वयं खाना खिलाते और मेरा ध्यान रखते थे। खाना खाने के बाद नियम था कि हम अपने बर्तन साफ करें परन्तु मैं कुछ भी नहीं कर पाती थी। तब सर अपनी प्लेट के साथ ही मेरी प्लेट भी साफ़ करते थे। वे किसी को भी यह कार्य नहीं करने देते थे।
फिर जब मैं एम.ए. अंतिम वर्ष में आयी तो कुछ आर्थिक तंगी की वजह से प्रवेश नहीं लिया और एक जगह नौकरी कर ली। सर को जैसे ही पता चला उन्होंने मेरे मित्रों से ऑफिस का फोन नम्बर लेकर मुझे फोन किया और मुझे तुरन्त एम.ए. पूरा करने के लिए कहा। फिर मेरे बाॅस से बात की और मुझे लेक्चर अटैंड करने की आज्ञा दिलवा दी।
एम. ए. पूरा करने के पश्चात
मैंने एन्थ्रोपोलोजिस्ट की पोस्ट में झाँसी मेडिकल कॉलेज ज्वाइन किया। और उसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में। सर जब भी विश्वविद्यालय में मिलते मेरे प्रणाम करने से पूर्व ही अपना हाथ जोड़ कर हाल-चाल पूछते थे।
आज सोचती हूँ कि मैं आज जो कुछ भी हूँ सर की वजह से ही हूँ। आज सर हमारे बीच नहीं है परन्तु उनके आदर्श और विचार मेरा मार्ग प्रशस्त कर रहे है।