मेरा जिंदगीनामा

मेरा जिंदगीनामा

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मेरे पिता डॉ सुभाष पागे गणित के प्राध्यापक और माँ विजया पागे रशियन भाषा की शिक्षिका। और मैं यानी विनीता, मुझे तो गणित की किताब देखते ही रोना आ जाता था। वैसे मुझे रोने के अवसर ज्यादा नहीं मिले क्योंकि मैं नियमित स्कूल जा ही नहीं पायी बचपन में। दूसरी कक्षा में ही थी कि पिताजी को भारत सरकार ने विदेश भेज दिया और उनके साथ हम यानी मैं, माँ और भैया भी चले गए तो पहली कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही स्कूल एक तरह से छूट ही गया। पिताजी विदेश में रहना नहीं चाहते थे इसलिए वहाँ मुझे स्कूल में भी नहीं डाला गया। भैया को साल भर बाद भारत में ही दादा-दादी के पास रखकर स्कूल में डाल दिया गया लेकिन मैं छोटी थी तो माँ-पिताजी के साथ वापस नाइजीरिया चली गई।


माँ तब घर पर ही अक्षर ज्ञान कराती और कुछ कहानियों की किताबें पढ़ाती। मैं ठीक से पढ़ तो नहीं पाती लेकिन सुनकर ही मुझे कहानियां अक्षर-अक्षर याद हो गई थी। दिन भर बस वो थोड़ी सी किताबें ही मेरी साथी थी, मित्र थी। फिर उन्हीं में बने चित्रों को कागज़ पर पेंसिल से बनाते हुए चित्र बनाने का शौक लग गया। दिन भर बस चित्र बनाती रहती।

माँ-पिताजी के साथ छुट्टियों में भारत आते-जाते दुनिया के पंद्रह देश देख लिए जिनमें इंग्लैंड, अमेरिका, रशिया, फ्रांस, स्विज़्ज़रलेण्ड प्रमुख हैं। 


सभी देशों में देखा कि लोग अपने देश और अपनी भाषा से कितना प्यार और सम्मान करते है। अपने कर्तव्य पूरी निष्ठा से पूरे करते है। 

छुट्टियों में भारत आना मुझे बहुत पसंद था। दादा-दादी, बुआ-चाचा, सारे भाई-बहन जो यहाँ थे। हम सब खूब मस्ती करते। पढ़ने की ललक तभी से थी तो जो भी किताब मिलती मैं पढ़ने लगती बिना देखे की वह बच्चों के पढ़ने योग्य है भी या नहीं। रात भर बल्ब की धीमी रौशनी में बैठकर भी किताब पढ़ती रहती। खाना-पीना भी भूल जाती थी। तब गुलशन नंदा के उपन्यास भी पढ़ लेती। मुझे याद है पहला उपन्यास मैंने नौ वर्ष की उम्र में ही पढ़ा था।


समझ में कुछ नहीं आता था लेकिन बस अक्षरों से प्यार था। चाचा की मार भी खूब खाई उन किताबों के पीछे। उसी समय रांगेय राघव जी का उपन्यास "कब तक पुकारूँ" भी पढ़ लिया था। तब कभी सोचा भी नहीं था कि किसी दिन मैं भी किताबें लिखूँगी। दस वर्ष की थी जब अपने ही हाथ से कुछ चित्र बनाकर एक छोटी सी कहानी लिखी थी। बारह वर्ष की आयु से छोटी-छोटी कविताएँ लिखना शुरू किया। और उसी साल अर्थात बारह वर्ष की उम्र में ही बच्चों के लिए पहला लघु उपन्यास भी लिखा "काँच की चिड़िया।” कुछ छोटी कहानियाँ भी लिखीं। तब वास्तव में मैं बाल साहित्यकार ही थी। क्योंकि थी भी बाल और लिखती भी बाल कहानियाँ थी। फिर बहुत दिनों तक क्या सालों तक लिखना छूट गया।


जब मेरी उम्र दसवीं कक्षा में जाने योग्य हो गई तो पिताजी हमेशा के लिए भारत वापस आ गए और मुझे स्कूल में डाला गया।

मुझे तो आदत ही नहीं थी कभी स्कूल जाने या पढ़ने की। कोर्स की किताबें देखकर रोना आता। कुछ समझ ही नहीं आता था। खास कर हिंदी विषय क्योंकि कहानी, उपन्यास पढ़ना अलग बात थी और विषय के रूप में भाषा पढ़ना अलग। तो जब छमाही परीक्षा का परीक्षाफल आया तो मैं बाकी सब विषयों में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गई थी लेकिन हिंदी में ही फेल थी। इतनी शर्म आयी न कि पूछो मत।


अपनी ही राष्ट्रभाषा में फेल। भला इससे ज्यादा शर्मनाक क्या होगा। बस तभी से तय कर लिया कि हिंदी में खूब मेहनत करूँगी, खूब पढूँगी। 

लिखना थोड़ा-बहुत कविताओं या डायरी के रूप में चल रहा था लेकिन वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर करने के बाद बड़े लेखकों यथा शरतचंद्र जी, अमृता प्रीतम, आशापूर्णा देवी, यशपाल, आचार्य चतुरसेन, बाबू देवकीनंदन खत्री, बकिमचन्द्र, जयशंकर प्रसाद जी, रांगेय राघव, आदि को खूब पढा। बंगाली लेखकों से ही अभिव्यक्ति की गहनता सीखी। बंगाली लेखकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया।


उसी समय स्वान्त सुखाय ही दो-चार कहानियाँ लिखी। एक दिन भैया ने टेबल से डायरी उठाकर कहानी पढ़ी और कहा अच्छी लिखी है किसी बड़ी पत्रिका में भेज। और न जाने क्या सोचकर मैंने भेज भी दी। कुछ ही दिनों में स्वीकृति की सूचना आ गई। बस मन के भाव और जीवन के अनुभवों को शब्दों में पिरोने का सिलसिला चल निकला और कहानियाँ प्रकाशित होने लगी।

जब पहला कहानी संग्रह निकला तो उसका विमोचन आदरणीया मालती जोशी जी और आदरणीया मेहरुन्निसा परवेज के हाथों हुआ। ये मेरे जीवन के बहुत ही अविस्मरणीय पल थे। 


जब ये कहानी संग्रह आदरणीया चित्रा मुद्गल जी ने पढ़ा तो तुरंत उनका फोन आया। बहुत देर तक बात की उन्होंने और बार-बार यही कहा, “विनीता लिखती रहना। लिखना कभी मत छोड़ना"

माँ सरस्वती का आशीर्वाद और ईश्वर की इच्छा मानकर लेखन कर्म में लगी रही। अक्षरों ने ही मुझे बहुत लोगों से जोड़ा, बहुत सारा स्नेह-सम्मान, ढेर सारा आशीर्वाद भी मिला। जीवन की यही पूंजी है। यही अनमोल थाती है।


भारतीय सेना के जवानों के सम्पर्क में आई तो उनके रोमांचकारी जीवन के अनुभव सुनकर पहले उपन्यास की नींव पड़ी जो सन 2016 में दिल्ली से अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ और हाल ही में भोपाल से इसका हिंदी संस्करण भी प्रकाशित हुआ। 

2018 में दूसरा उपन्यास "कर्म चक्र" अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ तथा जल्दी ही इसका हिंदी संस्करण निकलने वाला है। 

दो कविता संग्रह भी इस बीच प्रकाशित हुए है।


फिर एक दिन एक कार्यक्रम में बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र के निदेशक आदरणीय महेश सक्सेना अंकल जी मिले। अंकल हमेशा प्रोत्साहित करते कि बच्चों के लिए कुछ लिखो। लेकिन मुझे तो स्वयं पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं था कि मैं कभी बच्चों की कहानियाँ लिख भी पाऊंगी। मगर अंकल हमेशा खूब प्रोत्साहित करते।

तब फरवरी 2015 में एक कहानी लिखी बच्चों के लिए और बड़ी खुशी से अंकल को बताया। अंकल तुरंत बोले कि अप्रैल में बड़ा कार्यक्रम है किताब निकलवाओ तो विमोचन करवा लेना। मैंने कहा, अंकल अभी तो एक ही कहानी लिखी है। तो अंकल बोले, अरे तुम तो कर लोगी सब, मुझे पता है।

अंकल ने इतने विश्वास से कहा कि मैं भी ऊर्जा से भर गई। बस तुरंत एक के बाद एक बच्चों की कई कहानियाँ लिखीं। बचपन का चित्रकारी का शौक काम आया। पुस्तक का मुखपृष्ठ और अंदर के सभी चित्र मैंने ही बनाये। बस पुस्तक तैयार हो गई "घर आँगन" और अप्रैल में विमोचन भी हो गया। इसके बाद अंकल जी की ही प्रेरणा से दो वर्ष बाद, “पुस्तक मित्र" नाम से एक और पुस्तक भी आ गयी जो सौभाग्य से एक संस्था द्वारा देश भर की ग्यारह सर्वश्रेष्ठ बाल साहित्य की पुस्तकों में से एक चुनी गई।

और इसके बाद बच्चों के लिए लिखने में इतना आनंद आने लगा कि पूछो मत। 


बच्चों के लिए लिखना अर्थात अपने बचपन को दुबारा जीना। बच्चों की तरह ही सोचना, परियों की दुनिया में घूमना, बड़ी प्यारी दुनिया होती है बच्चों की। जहां फूल-पत्ते, मधुमक्खी, गिलहरी, खरगोश सब आपस में बातें करते है। मिलजुल कर रहते है। जहां राजा-रानी होते है, होती है एक सुंदर राजकुमारी। थोड़ी मस्ती, कुछ सीख भी। तो बस इसी प्यारी सी दुनिया की सैर करते-करते और अपनी बिटिया को कहानी सुनाते हुए ही बच्चों की कहानियों का तीसरा संग्रह भी तैयार हो गया। 

मुझे खुशी है कि मेरी बाल कहानियाँ सबको पसंद आती है। बच्चों और बड़ों का भी बहुत सारा स्नेह मिलता है। कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले लेकिन सबसे बड़ा पुरस्कार है मेरे लिए मेरी कहानी सुनकर बच्चों के चेहरे पर आने वाली मुस्कान। लिखना सफल हो जाता है। आदरणीय महेश सक्सेना अंकल जी का हार्दिक आभार कि उन्होंने मुझे बाल साहित्य लिखने को प्रेरित किया और मैं बचपन की वो सुंदर दुनिया फिर से जी पा रही हूँ। ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहे आप सभी की शुभकामनाएं और स्नेह सदा बना रहे। 


2015 में पहली लघुकथा लिखी और वरिष्ठों के मार्गदर्शन में थोड़ी-बहुत लघुकथाएँ लिखती रही। कई अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई और इस विधा में भी पहचान मिली। अखिल भारतीय स्तर पर पुरुस्कृत भी हुई।

जब भी कोई रचना प्रकाशित होती है आदरणीया मालती जोशी जी का फोन अवश्य ही आता है और उनसे ढेर सारा प्यार और शुभकामनाएं मिलती हैं। उनका फोन आना मेरे लिए किसी भी पुरस्कार से बढ़कर है। 

साहित्य की इस यात्रा पर कलम का सहारा है, अक्षरों का काफिला है, वरिष्ठों के आशीर्वाद की ठंडी छाँव है और साथी साहित्यकारों का साथ है। ये यात्रा यूँ ही अनवरत चलती रहे। लिखना मेरे लिए ईश्वर की पूजा करने के समान है। मेरा मन सदैव अक्षरों की माला जपकर भक्ति में लीन रहे।


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