मेँ पांचवां

मेँ पांचवां

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अपने बेटे को हॉस्टल छोड़ कर आया तो दिल भारी हो रहा था।

हालांकि सारी ज़रूरत की चीज़ों का इन्तज़ाम कर दिया था फिर भी दिल भारी था। AC वाला कमरा कम्बल तकिया पानी के लिये कमरे में ही फ़िल्टर खाने के लिये अच्छी मेस एटीएम कार्ड हम से राब्ता रखने के लिये मोबाइल और भी बहुत कुछ। फिर भी तसल्ली नही हो रही थी। मेरी पत्नी भी नाराज़ थी,पढ़ाई के लिये घर से दूर भेजना ज़रूरी था क्या,घर पर रहकर भी तो कुछ बन सकते है न।

अब उसे कैसे समझाता कि घर से दूर रह कर ही इरादों को पुख्तगी मिलती है दुनिया की तपिश सह कर ही इन्सान फ़ौलाद बनता है। वो तो माँ थी मेरा ही जी उचाट हो रहा था उसे हॉस्टल में छोड़ने के बाद। याद आ रहा था तीस साल पहले में भी ऐसे ही हॉस्टल आया था तब कहां मोबाइल या एटीएम। बहुत गरीबी के दिन थे वो। बाबूजी ने जैसे तैसे फ़ीस के पैसे भरे थे और कुछ पैसे मेरे हाथ में रख कर आशीर्वाद दे कर चले गये थे।

महीने में एक चिट्टी आती थी माँ की और मनी और्डेर के साथ माँ के हाथ के लड्डू। इसी के सहारे 5 साल गुज़ारे थे और जब घर लौटा तो एक ज़िम्मेदार आदमी के रूप जो परेशानियों से जूझने का हौसला रखता था।

पर मुझसे दूर रह कर बाबूजी भी बहुत दुखी रहते होंगे मेरी बड़ी चिन्ता होती होगी। यही सोच कर अपना दुख बान्ट्ने में बाबूजी के कमरे में आ गया। बाबूजी देखते ही बोले छौड़ आये बिटुए को सब कुशल मंगल होगा चिन्ता न करो। में धीमे से मुस्कुरा कर पास बैठ गया। मेरी पत्नि सब के लिये चाय ले आयी। मैने बाबूजी से पूछा "मुझे छोड़ते समय बड़ी चिंता रहती होगी सम्पर्क करने के साधन भी तो नही थे। वो हँसते हुए बोले नही रे तेरा इकलौता है ना इसलिये इतना लग रहा है मेरे पास तो पांच पांच थे। कोई न कोई तो मेरे बुढापे का बोझ उठा ही लेता। मेरे गले में चाय का घूँट अटक गया और सामने की दीवार धुंधला गयी।


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