मैं अबला नहीं
मैं अबला नहीं
गाँव की भोली-भाली निर्मला। नाम की तरह ही निर्मल पावन, संस्कारी माता पिता की लाड़ली। यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही वह शहर से आये मोहन पर मोहित हो गई। माता-पिता के मना करने पर भी उससे विवाह कर शहर आ गई।
मोहन ने अपना कहकर जिस घर में ठहराया था। वह तो उसका था नहीं। अभी कुछ घंटे ही तो हुए थे शहर आये। थोड़ा इंतजाम करना है कहकर वह बाहर चला गया। निर्मला दरवाजा बंद करने उसके पीछे आई तो उसने सुना - सौदा पक्का समझूँ दस लाख में। अरे कच्ची कली है मैंने भी नहीं छुआ। निर्मला की पैरों तले ज़मीन खिसक गई। अब दिखाई दिया मोहन का असली रूप।
वह तो जिस्म का सौदागर निकला। उसने संयम में रहकर पुलिस को बुलवा लिया कर सारी कहानी बताई। मोहन और उसका गिरोह पुलिस की गिरफ्त में आ गया मोहन तुम जैसे दरिंदे की भोली भाली बातों में फसकर मैं अपने माँ बाप को छोड़कर आ गयी। पर उनके संस्कार तो मैं मरते दम तक निभाऊंगी। उन्होंने मुझे शिक्षा का सबल हथियार दिया है। तुमने मुझे अबला समझने की भूल कमैं अबला नहीं !"