माटी
माटी
रविवार की सुबह, बारिश की हल्की रिमझिम अभी भी शुरू है, ये दो दिन से बिन मौसम बारिश इस ठंड में कोढ़ में खाज का काम कर रही है। बारिश की वजह से किसानों के चेहरे में उदासी और चिंता की रेखाएं पांव पसार रहीं थीं।
कहीं दूर किसी माटी के गांव में, कच्ची माटी के बने घरों की दीवारें भी अब दरकने लगीं हैं, उन दरकती दीवारों के सहारे ही वो धन्नीयों से बनी माटी की टपकती छत भी टिकी है जिसके नीचे कुछ जिंदगियां एक कोने में सिमटी सिकुड़ी ठिठुरती ऊपरवाले से रहम की उम्मीद कर रही हैं।
माँ के फ़टे आंचल में दुबक कर ठंड से लड़ने की जद्दोजहद करते वो छोटी जिंदगियां और अपने बच्चों को इस जानलेवा मौसम से बचाने की नाकाम कोशिश करती वो दो बड़ी ज़िम्मेदारियाँ। सच मायने में वो एक दूसरे को बचाती जिंदगियां।
अचानक एक तेज शोर उठा और उस शोर के नीचे कुछ दर्दनाक चीखें दब गईं। कुछ लम्हे पहले जो एक घर था वो अब माटी का मक़बरा था जिसके नीचे कुछ धडकते दिल रुकने वाले थे और कुछ कबके रुक चुके थे।
लोगों का हुज़ूम उमड़ पड़ा, ज़िन्दगी बचाने की जद्दोजहद शुरू हुई, माटी के मक़बरे से कैसे भी करके उन बन्द होती सांसों को खुली हवा में लाने की कोशिशें थीं। दिलों मे ऊपरवाले के लिए गुस्सा, होंठो पर उन डूबती नब्ज़ों के खैरियत की दुआएं और आंखों में आँशुओ की नमी थी जो बारिश के पानी मे ही कहीं खो रहीं थी बिल्कुल उन जिंदगियों की तरह...
मुंह से चीख दिल से आह निकल गई, गले शुष्क हो गए, आंखें पथरा गईं,
अब भी माँ के आँचल में ही दुबके थे दोनों, बाप ने ढाल बन अपनी बांहो में समेट रखा था पूरे परिवार को......उफ़्फ़! देर हो गई...
माटी माटी में ही मिल गईं। बारिश अब भी चालू है लोगों के आंसुओं के जैसे....