Find your balance with The Structure of Peace & grab 30% off on first 50 orders!!
Find your balance with The Structure of Peace & grab 30% off on first 50 orders!!

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Drama Romance

4.4  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Drama Romance

माटी की सुगन्ध (कहानी)

माटी की सुगन्ध (कहानी)

6 mins
205


मौसमें गर्मा अपने शबाब पर था। जून का शुरूआती सप्ताह वाक़ई बड़ी मुश्किल से गुजरता है। ऐसा लगता है जैसे सूरज भी अपनी तपिश दिखा कर थक चुका है। बादलों की ओट में कहीं छुप जाना चाहता है। हालाँकि मानसून ने समुन्दर के साहिली इलाक़ों पर अपनी आमद की दस्तक दे दी थी। लेकिन यहाँ तक मानसून पहुँचने में अभी वक़्त लगेगा। बादलों की आवाजाही जारी थी। ऐसा लग रहा था जैसे ये बादल समुन्दर से पानी की खेप भरकर लाने वाले हैं।

खिज़ां का मौसम तो कब का जा चुका था। पूरे सहरा के दरख्तों ने नया हरे रंग का लिबास पहन रक्खा था। नन्हीं-नन्हीं पत्तों की कोंपलें अब जवान हो चुकीं थीं।दरख्तों की डालियाँ, हवा के झोंकों से लहलहा कर उस पल का इंतिज़ार कर रहीं थीं, जब मानसून की नन्हीं-नन्हीं बूंदें उन्हें एक नई ज़िन्दगी बख़्शेगी। और मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू से सारा जंगल महक उठेगा।

 काशिफ तो इन उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरता हुआ जंगल ड्राइव का मज़ा ले रहा था। न जाने, कितने घुमावदार रास्ते अभी तक गुज़र चुके थे। कितने ही "खतरनाक मोड़" लिखे साइन बोर्ड, वो लापरवाही से पढ़ता हुआ आगे बढ़ चुका था। एक अलग तरह की बेखयाली थी। आज तो वो चाहता था, बस यूँ ही ड्राइव करता रहे। "माइल स्टोन" यूँ ही एक बाद एक गुज़रते रहें। और ये सफर कभी ख़त्म ही न हो। 

कभी बेख्याली टूटती तो सोचता, "हक़ीक़ी ज़िन्दगी का सफर भी तो इन्हीं उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर गुज़रा है। ये रास्ते कभी ख़त्म ही नहीं होते। अगर किसी चौराहे पर सही दिशा में मुड़ने का फैसला न किया हो तो बस भटकते-भटकते, मंज़िल से कोसों दूर निकल जाते हैं। और जब मंज़िल मिलती भी है तो वह ख़ुशी नहीं मिलती। क्योंकि मंज़िल पाने का सही वक़्त तो निकल चुका होता है। लेकिन देर-आयद, दुरुस्त-आयद वाली कहावत के भी अपने मायने हैं। बहरहाल सफर तो आखिर सफर है। कभी मीलों का सफर भी लगता है पल भर में तय कर लिया हो, पता ही नहीं चलता। कभी दो क़दम भी दूभर लगते हैं। 

अगर हमसफ़र, हमख्याल भी हो तो मुश्किल से मुश्किल घाटियों के पहाड़ी घुमावदार रास्ते भी पता नहीं चलते, नहीं तो सीधे सपाट रास्ते भी मृग मरीचिका के जाल में उलझ कर रह जाते हैं।"

काशिफ़, इन रास्तों से कभी न गुज़रा था। उसने सुना ज़रूर था, इस पहाड़ी के पीछे एक बड़ा सा डेम है। जो नदी के दोनों तरफ की पहाड़ियों को जोड़कर बनाया गया है। यहाँ एक सन सेट पॉइंट है। जहाँ से सूर्यास्त का मंज़र बहुत दिलकश लगता है। 

लेकिन शबाना, काशिफ के साथ बड़े बेफिक्राना अंदाज़ में थी। उसे उन सुनसान रास्तों पर भी किसी का डर ख़ौफ़ न था। वो तो सिर्फ और सिर्फ अपने सामने से गुज़रते हुए , मंज़रों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो रही थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो क़ुदरत के क़रीब जा रही हो। पलक झपकते ही पेड़ों का रक़्स करना। तो कभी सपाट चटियल मैदानों से दूर-दूर तक देखना। कभी सोचती, ऊपरवाले ने भी इन मौसमों को बड़ी खूबी से तरतीब दी है। कभी बहार का मौसम है तो कभी खिज़ा का। जो दरमियानी मौसम हैं वह तो बस इनकी तैयारी भर है। ज़िन्दगी के भी तो बस दो ही मौसम हैं, कभी ख़ुशी है तो कभी ग़म है। कभी चारों तरफ ख़ुशियाँ हैं तो कभी पलक झपटते ही ग़म के पहाड़ टूट पड़ते हैं। लेकिन इन सबसे एक सबक़ तो मिलता ही है कि बहार के बाद खिज़ां और खिज़ां के बाद बहार का मौसम लाज़मीं है। जीवन के भी दो ही पहलू हैं। हरियाली और रास्ता।

शबाना ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा- काशिफ़, हमारे कॉलेज के ज़माने में ये डेम नहीं था क्या? 

- नहीं था न, अगर होता तो हम आते ज़रूर। 

- हाँ काशिफ़, वह भी क्या दिन थे। हमने कोई भी, इस शहर की ऐसी जगह बाकी नहीं छोड़ी जहाँ हम गए न हों। जानते हो काशिफ़, तुम्हारा साथ मुझे बहुत अज़ीज़ था। मैं ने कभी नहीं पूछा कि तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो। एक अजीब सा विश्वास था तुम पर। मैं तुम्हारे साथ, इस ज़माने से बेपरवाह हो जाती। तुम जब भी कहते, मैं तुम्हारी बाइक के पीछे आँखें बन्द करके बैठ जाती। अगर तुम जहन्नुम में भी ले जाते तो मुझे इसकी परवाह न थी। 

- लेकिन शबाना फिर ऐसा क्या था कि मेरे लाख चाहने पर भी, तुम खामोश थी। तुम्हारा जवाब न '"हाँ" था न "न"

तुम तो एक पल में, उसकी हो लीं। जिसे तुम जानतीं भी न थीं। फिर उस विश्वास का क्या, जो तुम मुझ पर करतीं थीं? 

एक बात पूछू, शबाना।

- हाँ काशिफ़, बोलो। 

- "तुम्हें इन चौतीस सालों में एक पल के लिए भी मेरा ख्याल आया कि नहीं ????"

काशिफ़ ने शबाना की तरफ मुड़ कर देखते हुए पूछा। 

शबाना के पास आज भी जवाब नहीं था। आज भी उसकी जुबां, "हाँ" या "न" कहने से मजबूर थी। 

हाँ, उसकी खामोशी और नम आँखें ज़रूर बहुत कुछ बयाँ कर रहीं थीं। जैसे कह रही हों- "अरे, काशिफ़, तुम इन चौतीस सालों में से केवल एक पल का ही हिसाब क्यों पूछ रहे हो? मैं ने तो तुम्हें सोते जागते, हर साँस में बसा रक्खा था। मैं कैसे साबित करूँ?- काशिफ। मैं, नहीं कर पाऊँगी। 

लेकिन इतने अरसे बाद हमारा वापस मिलना काफी नहीं है। क्या? तुम हमेशा सवाल करते रहे, और मैं ---- ???

"वक़्त का इंतज़ार करती रही कि वक़्त ही साबित करेगा। मैं क्या चाहती हूँ, क्या नहीं?" तभी शबाना की नम आँखों से आंसूओं का बांध टूट गया। दो क़तरे उसके रुखसार पर लुढ़क गए। जिसे काशिफ ने संभाल लिया। 

- अरे शबाना, तुम तो सीरियस हो गईं। मैं तो बस यूँ ही पूछ रहा था। ये देखो यहाँ से इस डेम का मंज़र कितना सुहाना लग रहा है।

- हाँ, काशिफ। वह भी इस सदीद गर्मी में। पानी को देखने से ही, कितनी राहत मिलती है। 

- कहते हैं, इस सनसेट पॉइन्ट से सूर्यास्त होते देखना बड़ा सुहाना लगता है। 

- लेकिन काशिफ़, मैं सूरज को डूबते नहीं देखना चाहती। मुझे डर लगता है। 

- इसमें, डर कैसा?

- नहीं काशिफ़, तुम नहीं समझोगे। मुझे तो तुम कहीं और ले चलो। 

- तो चलो, उस टूटी हुई दीवार पर बैठते हैं।

- हाँ, काशिफ़। वहाँ सही है। 

- शबाना अपना सर, काशिफ़ के सीने पर रख कर, उसकी आगोश में बैठ गई।

काशिफ ने कहा - "शबाना, जैसे ये डेम का पानी, सूरज को अपनी आगोश में समा लेता है। ऐसे ही तुम, मेरे वजूद में समा जाओ। तुम्हें, पूरा का पूरा मैं अपने अंदर महसूस करूँ और ये दूरियाँ हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँ। फिर न, मैं तुम से कोई सवाल करूँगा। न तुम्हें जवाब देना होगा। फिर तो सवाल भी मेरा होगा और जवाब भी। ज़िन्दगी की इस कशमकश से तंग आ चुका हूँ। मुझे बस किसी भी सूरत में तुम चाहिए।"

- शबाना के गर्म-गर्म आँसुओं की गर्माहट काशिफ़ के, धड़कते दिल के पास महसूस हुई। सीने को भिगो दिया। 

जैसे कह रही हो- 

"हाँ काशिफ़, मैं भी ज़िन्दगी से भागते-भागते तंग आ चुकी हूँ। बस, अब तुम्हारे अलावा और कुछ नहीं चाहिए। बहुत प्यासी हूँ। उस प्यार की जो तुम मुझे देना चाहते थे। लेकिन हमारी बदकिश्मती हमें भटकाती रही। अब मैं भी तुम से जुदा नहीं होना चाहती। बेशक, तुम मुझे अपने आगोश में समा लो।"

तभी अचानक बादलों की गड़गड़ाहट शुरू हो गई। तेज़ बिजली चमकी और शबाना काशिफ के और नज़दीक आ गई। 

- काशिफ, ये क्या हो रहा है? क्या, ख़ुदा को आज भी हमारा मिलना मंज़ूर नहीं है?

तभी दूर, कहीं से मिट्टी के सोंधी-सोंधी खुशबू आने लगी। 

- शबाना, ये मिट्टी के सुगंध जानती हो किस बात की अलामत है। 

- हाँ, काशिफ़ कहीं दूर, बारिश ने इस तपते रेगिस्तान जैसी मिट्टी को नम कर दिया है। मिट्टी का ज़र्रा-ज़र्रा इस एक-एक बूंद का शुक्र बजा लाना चाहता है। 

अरे ये बादल तो देखो, चारों तरफ अंधेरा छा गया। 

तभी उस अंधेरे को चीरती हुई ज़ोरदार बिजली की कड़क सुनाई दी। और पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदें इनके बदन को भी भिगोने लगीं।

अब तक सूखी बेजान मिट्टी पूरी तरह से नम हो चुकी थी। 

शबाना ने कहा- "बहुत शिद्दत की गर्मी से आज निजात मिली है। अब तो बादल भी बरस कर जा चुका है। 

"चलो हम भी घर चलते हैं, ........।"



Rate this content
Log in

More hindi story from मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Similar hindi story from Drama