mamta kashyap

Classics

1.6  

mamta kashyap

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मांडवी

मांडवी

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 जब भी रामायण की बात चलती है लोग राम की बात करते हैं, बात करते हैं सीता की, सीता का राम के प्रति प्यार की। लक्ष्मण की, उनकी अपने भाई के प्रति श्रद्धा की। लोग तो उर्मिला की भी बात कर लेते हैं। भरत का भी जयकारा कर लेते हैं। रह जाती हूं मैं, मांडवी। भरत की अर्धांगिनी। वो बात अलग है कि भरत ने मुझे मौका ही नहींदिया, कभी अपना आधा माना ही नहीं । उनकी गलती है नहीं, उनके दिल में इतना दर्द था कि प्यार के लिए जगह बचा ही नहीं। मैं दोष उनको क्या ही दूँ।


स्वयंवर सीता के लिए था, और शादी हम् सब की हुई, मेरे पिता कुशध्वज तो बहुत खुश थे, मैं और श्रुतकीर्ति, यहाँ तक की उर्मिला भी थोड़ा डरे हुए थे। हम नहीं थे तैयार शादी के लिए। पर महाराजा जनक- मेरे ताऊजी, और ऋषि वाल्मीकि ने हमें समझाया। हम समझ भी गए। कोई और चारा था क्या!? थे तो चारों भाई बहुत ही खूबसूरत। और गंभीर। वैसे भी कौन नहीं जानता पूरे भारतवर्ष में महाराजा दशरथ का न्याय। संबंध बुरा नहीं था। हम चारों बहनों ने विदा भी ली।

सब जैसा होना चाहिये था वैसा ही था। वो शुरू के कुछ महीने रोमांचक, गुदगुदी वाले थे, प्यार वाले थे। घर का प्यार तो था ही, पति का भी था। पर कभी कभी कुछ चुभता सा था। मुझे गलत नहीं समझना, हर पत्नी के लिए उसका पति सबसे प्यारा होता है। मेरे लिए भी भरत सबसे आगे, सबसे ऊँचे थे। पर जो उन्हें सामान्य लगता था वो मुझे वो सामान्य नहीं लगता था।

राम सबसे बड़े, लक्ष्मण सबसे चुलबुले, शत्रुघ्न सबसे छोटा। इन सबके बीच में गुम हो जाते थे मेरे भरत। वैसे तो भरत की माँ थी ससुर जी को सबसे प्यारी, पर वो भी मस्तमौला एकदम, थोड़ी कान की कच्ची, बड़ी हैं, मेरे पति की माँ हैं, और मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात है, पर वो वही करती जो या तो सब करते या फिर वो करती जो उनको कहा जाए... ससुर जी राम भैया को ज़्यादा मानते तो वो भी भरत से ज़्यादा उनको मानती। कौशल्या माँ या सुमित्रा माँ जो करते, केकैयी माँ भी वही करती।

मुझे तो बस अपने पति का सम्मान चाहिये था, वो नहीं जी उन्होंने मंथरा के कहने पर किया।


याद है वो दिन। मैंने सुना मंथरा को भैया के खिलाफ कैकेयी माँ का कान भरते हुए। मुझे लगा माँ संभाल लेंगी, चुप कर देंगी, बड़ा दिन आने वाला है। शुभ दिन वाला है! पर ऐसा नहीं हुआ। मैं किसे बोलती, मैं कुछ बोलती किसी को तो कौन ही विश्वास कर लेता मेरा। भरत भी नहीं थे, वो तो नाना जी को राम भैया के राज्याभिषेक के लिए न्योता देने गए थे। क्या मेरी बहने कर लेती मेरा भरोसा, क्या मेरा किसी को कुछ बोलना आने वाले तूफान को रोक देता!?

जो हुआ वो सब जानते हैं। बच्चा बच्चा जानता है। राम भैया चले गए, सीता भी गयी, और उर्मिला को अपनी नींद दे कर लक्ष्मण भी। शत्रुघ्न और श्रुति तो दोनो माँओ को संभालने में लग गए, ससुर जी ने तो जैसे मौन व्रत ले लिया और कुछ दिन बाद तो चल बसे, कैकेयी माँ, वो मंथरा के साथ मंदिर चली गयीं। रह गयी मैं, उर्मिला के सोते हुए चेहरे को देख कर मुझे टीस सी हुई, दर्द हुआ मेरी उस बहन के बिछोह के लिए, मुझे क्या पता था मेरा भाग्य तो और भी मज़ाक करने वाला है।


भरत के आने के बाद, उनको सारा किस्सा पता चलने के बाद इन्होंने अपनी माँ को वो कहा जो कोई माँ सुन नहीं सकती थी। मंथरा की हत्या ही कर देते वो अगर शत्रुघ्न ने रोक नहीं लिया होता। कैकेयी माँ, वो शर्मिंदगी से सार सार थी, पर राम भैया भी तो ज़िद पे अड़ गए थे ना! नहीं !? सीता कर सकती थी न बीच बचाव? उन दोनो ने भी तो अपने माताओं का नहीं सोचा ना? एक माँ को खुश करने के लिए, अपने पिता के अरसों पुराने वचन के लिए, अपने खानदान के रीति के लिए, उन तीनों ने पूरे परिवार को एक दूसरे अलग नहीं किया? जितनी दोषी कैकेयी माँ, क्या उतने दोषी ससुर जी नहीं !? राम भैया नहीं ! लक्षमण नहीं ? सीता नहीं !?

लेकिन दोष हम तीन बहनों का क्या जो पीछे रह गए!? उर्मिला का दोष क्या? क्या दोष श्रुतकीर्ति का, जो पति के साथ रहते हुए भी इस माहौल में खुश नहीं रह सकती? और मेरा दोष क्या?


भरत ने माता का त्याग क्या किया, मुझे भी त्याग दिया। अपने दुख में, संताप में, अपने मन में उन्होंने अपराधभाव को जगह दी। मुझे नहीं। वो तो शायद भूल ही गए मैं हूँ। गए थे न वो राम के पास!? क्यों नहीं आये राम वापस? क्यों उन्होने इस 14 साल को अपने अहं पर लिया!? दिल तोड़ा भाई ने, भरत ने जैसे मुझसे बदला लिया। मुझे फरमान सुना दिया गया की मैं घर संभालू और वो भी रहेंगे वनवास में, अपने भाई की तरह, कहा मुझसे की मांडवी में अब राजमहल नहीं आऊंगा, मैं कुटिया में रहूँगा, अकेले रहूँगा, न मुझे खाना चाहये, न बिस्तर न ये राजसी कपड़े और न ये आभूषण। न ही तुम मांडवी। तुम अब इस घर को सम्भालो! मुझे मेरे भरत ने कपड़े आभूषणों के श्रेणी में रखा।

14 साल, मैं सोचती रही की वो मुझे बुलाएंगे, मेरी सासुएँ कहेंगी की मांडवी तू जा भरत के पास। और शायद सबको यही लगा की कैकेयी माँ के कर्मो की यही सज़ा की उनका पुत्र भी राम और लक्षमण की तरह रहे। लेकिन मेरा क्या!? मेरे लिए किसी ने नहीं सोचा। मैंने अपनी इच्छा से, अपने सक्षमता से त्याग किया राजसी सुख का, पर रहना तो मुझे महल में था, अपनी तीन माताओं और उर्मिला का ध्यान रखने के लिए, श्रुति अकेली न पड़ जाए इसलिए...


रात को मैं अकेलेपन से ऊब कर उर्मिला के पास जाती पर वो तो सो रही होती, हाँ उसके बगल वाले कमरे से कभी कभी पलंग की चरमराहट सुनाई देती, श्रुति की आह सुनाई देती, तब एक शूल से चुभता दिल में की मेरा भी तो ये हक़ था, मेरी उर्मिला का भी तो ये हक़ था। जाती थी में भरत के पास, नंदीग्राम कभी कभी, मन नहीं मानता था मेरा। पर मैं उनसे इतना प्यार करती थी की मैं नहीं मांग सकती थी अपना हक़, नहीं छू सकती थी उनको, उनके मन को ठेस नहीं पहुँचा सकती थी, मैं इतनी छोटी नहीं बन सकती थी। सबके अहं के तले, सही गलत के तले, रीति के तले पिसे तो हम दो बहने ना?


राम सीता और लक्ष्मण के 14 साल के बाद आने का भी किस्सा सबको पता है। लेकिन क्या सब सामान्य हुआ!? मेरे 14 साल वापस आये! भरत के मन का अपराधभाव कम हुआ? मेरे पुत्र भी हुए, तक्ष और पुष्कल, पर मेरे मन का चोट नहीं भरा। भगवान न करे मेरे पुत्रों को वो झेलना पड़े जो इन चारों भाइयों ने झेला है, पर मैं इन्हें तब भी ये शिक्षा दूंगी की कोई भी फैसला अपनी पत्नियों के बिना कभी न ले, अर्धांगिनी सिर्फ कहने के लिए नहीं होती वो, उन्हें अर्धांगिनी बनाना पड़ता है। उन्हें बोलूंगी की अपने पिता, ताऊ लोगों की गलतियों से सीखें।

और आपसे बोलूंगी की अपने घरों की मांडवियों की मनःस्थितियों को समझें...


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