Ekta Rishabh

Tragedy

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Ekta Rishabh

Tragedy

माँ की तपस्या !

माँ की तपस्या !

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अँधेरे कमरे की बत्ती जलाई तो देखा कोने में सिमटी बैठी थी विमला चाची, इस अवस्था में बैठा देख रत्ना का कलेजा मुँह को आ गया लेकिन खुद की भावना पे काबू कर हाथ में पकड़ी खाने की थाली टेबल पे रख चाची के पास बैठ गई रत्ना ।

"अंधरे में क्यों बैठी थी चाची, रात हो चली है आज ना दिया बाती की ना कहीं रौशनी की "।

"अब कैसी रौशनी रत्ना? ठंडी सॉंस भर चाची ने कहा जब कुल का दीपक ही बुझ गया तो कैसी रौशनी"?

और अगले ही पल सिसक उठी विमला चाची," कैसी अभागी माँ हूँ मैं रत्ना अपने लाडले की मौत पे छाती पीट पीट रो भी ना सकी कैसी पापिन हूँ मैं जो घोर शारीरिक कष्ट झलते अपने मनोहर को देख उसे उसके कष्ट से मुक्त करने की दुआ मांग बैठी थी "।

"कैसी बाते कर रही है आप चाची? आप तो माँ के रूप में देवी हो । पिछले दो सालों से खून के आंसू ही तो रो रही थी आप अब तो जैसे आपके आंसू भी सुख गए है और मनोहर तो हर जन्म में आपके कोख़ से ही पैदा हो ऐसा स्नेह करता था आपसे उसकी मुक्ति की कामना करने से आपको पाप नहीं मिलेगा चाची, बल्कि मनोहर की आत्मा आपकी ऋणी होगी की घोर कष्टों से मुक्ति जो मिली उसे खुद को पाप का दोषी ना मानो चाची "।

चाची को शांत कर खाना खिलाया और बिस्तर पे सुला दिया रत्ना ने, "चाची बरामदे की बत्ती जलते छोड़ रही हूँ घबराना मत आप "। इतना कह भारी मन से रत्ना अपने घर लौट आयी बच्चे सो चुके थे तो चुपचाप अपने पति राकेश के बगल में लेट गई ।

जब मन व्याकुल हो तो ऑंखें खुद ब खुद भर आती है, कुछ ऐसा ही हो रहा था रत्ना के साथ आँखों के आगे से मनोहर की मनोरम छवि हटती ही नहीं थी ।

जब नींद ना आयी तो रत्ना उठ कर बाहर आ गई आँखों के आगे दस साल पुराने दृश्य सजीव हो उठे । दस साल पहले दो कमरों का मकान बनवा रत्ना और राकेश इस घर में आये तो पहली मुलाक़ात चाची से तब ही हुई थी ।

विमला चाची और उनके पति की इकलौता बेटा था मनोहर जो उनकी शादी के कई साल बाद ना जाने कितने मन्नतों से पैदा हुआ था । मनोहर जब सात बरस का था तब चाचा चल बसे थे जुझारू चाची ने अपने दम पे अपने लाडले को पाला था ।

मनोहर जैसा नाम वैसी ही छवि थी मन मोहनी सूरत और उससे भी मीठी बोली ।

जल्दी ही विनम्र स्वभाव चाची से एक गहरा नाता रत्ना का जुड़ गया । बचपन से माँ के प्यार को तरसती रत्ना को विमला चाची में अपनी माँ का अक्स दिखता ।

आज भी याद है रक्षाबंधन के दिन अपनी मुट्ठी में राखी छिपाये मनोहर को सुबह सुबह अपने दरवाजे पे खड़ा देखा ।

"आज सुबह सुबह मनोहर और ये हाथों में क्या छिपाया रखा है तूने",, रत्ना के बार बार पूछने पे शरमाते हुए मनोहर ने हाथ आगे कर दिया,

"दीदी आज मुझे भी राखी बांध दो "। और उस दिन से रत्ना को मनोहर में एक छोटा भाई मिल गया मानो और विमला चाची के रूप में माँ ।

रत्ना के गर्भवती होने पे विमला चाची ने कभी माँ बन संभाला तो कभी सास बन मीठी डांट भी पिला दी । मुस्कुरा उठते राकेश विमला चाची और रत्ना के रिश्ते को देख कहीं ना कहीं राकेश को भी चाची में अपनी स्वर्गवासी माँ की छवि दिखती थी ।

सब कुछ बहुत अच्छे से चल रहा था मनोहर भी किशोरावस्था से निकल युवा हो चला था । एक मित्र के बहन की शादी पास के शहर में हुई थी और जब पहला त्यौहार आया था मनोहर के उस दोस्त ने मनोहर को साथ चलने को कहा जिसे मनोहर मना ना कर पाया ।

नियति ने पहले ही बहुत कुछ तय कर रखा होता है और हम प्राणी तो कठपुतली मात्र होते है तभी शायद आसानी से अपनी माँ को कहीं अकेले छोड़ नहीं जाने वाला मनोहर उस दिन आसानी से मान गया ।

बहन के घर से लौटते लौटते देर हो गई थी इसलिए वहाँ सब ने रोका भी लेकिन दोनों लड़के रुके नहीं जाने कैसे एक झपकी सी आयी ड्राइवर को और अनर्थ हो गया ।

किसी को खरोच भी ना आयी और ना ही मनोहर पूरे शरीर पे एक खरोच थी लेकिन सर खिड़की का कांच तोड़ पेड़ की डाली से टकरा गया ।

आनन फानन में अस्पताल में भर्ती करवाया गया, चाची की हालत शब्दों में बयां करना संभव ही ना था । रत्ना और राकेश ने ही सारी भाग दौड़ की डॉक्टर ने साफ कह दिया था ; "मनोहर कोमा में है और कब तक ऐसा रहेगा कह नहीं सकते । ठीक होगा भी की नहीं कहना मुश्किल था डॉक्टर्स के लिये "।

बड़े अस्पताल का खर्च उठाना मुश्किल था तो रत्ना और राकेश ने चाची को मनोहर को घर लाने का सुझाव दिया ।

परिस्थिति से चाची परिचित थी ही सब मनोहर को घर ले आये, हँसता मुस्कुराता घर से जाने वाला जवान बेटा आज निशब्द बिस्तर पे पड़ा था ना हिल सकता था ना बोल सकता था सिर्फ पलके झपकती और सांसे चल रही थी जो उसके जिन्दा होने का प्रमाण थी ।

विमला चाची एक कर्म योगिनी की भांति लगी थी अपने लाडले को संभालने में दिन के चौबीस घंटे कम पड़ जाते मनोहर की सेवा में । नाक में लगी नली से खाना दिया जाता । सांस चल रही थी तो शरीर के दैनिक कार्य खुद हो जाते बिना चेहरे पे शिकन लाये बेटे की गंदगी साफ करती चाची । भरा पूरा जवान बदन धीरे धीरे सुख कर कांटे की तरह होता जा रहा था । कई कई बार पूरी रात आँखों में कटती इस आशा से कहीं बेटा उठ कर बैठ ना जाये ।

बिस्तर पे लेते लेते पीठ पे छाले बन जाते । मनोहर का कष्ट देख एक बार तो ईश्वर से विश्वास हिल जाता रत्ना का ।रत्ना और राकेश हर पल चाची के संबल बन खड़े रहते । दो साल के निरंतर सेवा के बाद भी स्तिथि जस की तस देख किसी नाजुक घड़ी में चाची ने मनोहर की मुक्ति मांग ली शायद ईश्वर से और ईश्वर की लीला तो देखो जिस माँ की चीख चीख कर ईश्वर से आपने बच्चे के लिये दुवाएँ मांगी उसे ईश्वर ने नहीं सुना लेकिन उसकी मुक्ति सुन ली और उसी रात मनोहर की सांसे भी थम गई । घोर कष्ट भोग मनोहर तो चिर निंद्रा में चला गया और उसकी मुक्ति की दुवाएँ मांग चाची ने खुद को अपराधिनी मान लिया ।

तभी कंधे पे स्पर्श पा रत्ना की तन्द्रा टूटी देखा तो राकेश थे, " इस समय यहाँ क्यों खड़ी हो तनिक भी सोई नहीं क्या"?

खुद की भावना पे काबू ना रह सका रत्ना का पति के गले लग ज़ार ज़ार रोई रत्ना ।

"चुप भी हो जाओ रत्ना भाई तो चला गया लेकिन माँ तो है उनकी जिम्मेदारी अब हमारी है और उनको संभलने के लिये तुम्हें खुद को मजबूर करना होगा "।

राकेश की बात सुन रत्ना आश्चर्य से अपने पति का मुँह देखने लगी, "अरे ! ऐसे क्या देख रही हो कल से चाची यही रहेंगी हमारे साथ माँ बन कर " ।

अपने पति के विशाल ह्रदय को देख रत्ना गर्व से भर उठी । दोनों पति पत्नी गले लग रो पड़े । सूर्य उदय हो रहा था और निराशा के अंधकार जैसे छट रहे थे और दूर छितिज से कहीं रत्ना और राकेश को देख मनोहर भी मुस्कुरा रहा था जैसे अब कोई बोझ उसके मन पे नहीं था अपनी माँ की तरह से निश्चिंत हो वो दूर अनंत में अब जा सकता था ।


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