Ekta Rishabh

Drama

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Ekta Rishabh

Drama

अनुराधा !!

अनुराधा !!

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रात का अंधेरा और गहरा होता जा रहा था साथ ही मेरे भीतर की जद्दोजहद भी गहरी होती जा रही थी। बीते कुछ वर्षों के दृश्य चलचित्र के समान आँखों के सामने घूम रहे थे। माँ और बाबूजी के आंगन में हम दो फूल खिले थे मैं और अनु दीदी। बहुत प्यार करते माँ और बाबूजी हम दोनों बहनों को एक छोटी सी किराने की दुकान थी घर के अगले हिस्से में और बस वहीं थी हमारे घर की आमदनी का ज़रिया। छोटे मोटे खर्च निकालने के लिये माँ आस पास की औरतों को सिलाई सीखा देती थी।

माँ बाबूजी ने कभी किसी बात की कोई कमी नहीं रखी थी हम दोनों बहनों की परवरिश में बिना इस बात की परवाह किये की समाज समय समय पे उन्हें याद दिला ही देता की "दोनों बेटियां एक दिन चली जानी है फिर बुढ़ापा कैसे कटेगा ?'

बाबूजी हॅंस कर कहते मेरी बेटियां बेटों से कम नहीं। बाबूजी की तीव्र इच्छा थी की उनकी बेटियां खुब पढ़े और नाम कमाये। हम दोनों बहनें ये बात बखूबी समझती और मन लगा के पढ़ाई करती।

समय अपनी रफ़्तार से बढ़ रहा था और साथ ही हम दोनों बहनें भी दीदी मुझसे कोई दो साल बड़ी थी। दीदी जितनी सुन्दर शांत उतनी ही चंचल मन मैं। सुतवा नाक, दूध में केसर मिला सिंदूरी रंग और मधुर बोली कुल मिला बेहद सुन्दर थी दीदी। माँ कभी कभी कहती कहाँ सुदामा के घर राजकुमारी ने जन्म ले लिया बिटिया तूने और हम दोनों बहनें खुब हँसते।

मैं जब ग्यारहवीं में गई तो अनु दीदी ने कॉलेज जाना शुरु किया था। हमारे कस्बे के पास एक ही कॉलेज था जिसमें लड़के लड़की दोनों पढ़ते थे। कस्बे में लड़कियों के स्कूल से पढ़ाई करने वाली दीदी कॉलेज के खुले वातावरण में असहज हो उठती। आते जाते लड़के उनकी खूबसूरती निहारते रहते। बिना नज़रों को उठाये दीदी बस अपने लक्ष्य पाने में जुटी थी।

कॉलेज में जहाँ प्रोफेसर उनके प्रतिभा के कायल थे वहीं लड़के लड़कियाँ उनसे दोस्ती करने को आतुर रहते। वही कुछ लड़के ऐसे भी थे जो दीदी के रूप के दीवाने हो चुके थे। कई दोस्ती के प्रस्ताव को दीदी ने विनम्रता से इनकार कर दिया था। कुछ पीछे हट गए तो कुछ ने दीदी के इनकार को अपनी मर्दानगी का प्रश्न बना लिया था।

आखिर वो घड़ी भी आ ही गई जब हमारा सर्वस्व लूटने वाला था। कॉलेज में सालाना वार्षिकउत्सव था... प्रिंसिपल की प्रिय छात्रा अनु दीदी को विषय रूप गायन की की प्रस्तुति देनी थी। अनु दीदी के गाने को सुन पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।

"अनु, बेटा कैसे जाओगी सांझ होने को है चलो मैं कोई इंतजाम करता हूँ।" प्रिंसिपल सर ने कहा तो दीदी संकोच में मना कर गई।

"पास ही जाना है सर और साइकिल है मेरे पास कुछ लड़कियाँ भी साथ है हम चले।"

धीरे धीरे लड़कियों के घर आते गए और अंत में दीदी रह गई थी। नवंबर महीने के आखिरी दिन थे साँझ जल्दी ढल चुकी थी। तेज़ रफ़्तार में दीदी साइकिल चला रही थी, "बस ये खेत पार करना रह गया है फिर तो अपना गाँव शुरू हो जायेगा ", मन ही मन सोचती दीदी चली जा रही थी की तभी उनकी सोच को तब विराम मिल गया जब रास्ता रोक चार लड़के खड़े दिखे। ना चाहते हुए भी रफ़्तार धीमी कर दी दीदी ने साइकिल की और फिर क्या था चारों टूट पड़े दीदी पे खींच के बीच खेत में ले गए।

"अंधेरा होने को आ गया अनु नहीं आयी क्या?"

दुकान बंद कर घर आये बाबूजी ने पूछा तो अब तक सब्र रख रही माँ बेचैन हो उठी कभी दरवाजे पे टकटकी लगाती तो कभी बेचैन हो आंगन में फिरती तो कभी भाग के गली तक देख आती। जब घड़ी ने आठ बजा दिये तक बाबूजी ने साइकिल उठाई और निकल पड़े देखने लेकिन दीदी कहीं नहीं मिली। खाली हाथ लौटे बाबूजी के आँखों में खौफ साफ दिख रहा रहा था। मैं, माँ और बाबूजी की हालत देख कोने में सिमटी खड़ी थी।

इंतजार लम्बा चला और फिर दीदी आयी टूटे क़दमों से बदहवास सी उनका वो गुलाबी सलवार सूट जिसे बड़े जतन से माँ ने उत्सव के लिये सिला था वो चीथड़ों में बदल चुके थे। शरीर से जगह जगह खून रिस रहा था। माँ बाबूजी ने तुरंत दीदी को घर के अंदर ले लिया सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दिये गए और फिर माँ की एक घुटी घुटी चीख डरा गई मुझे। दीदी की हालत सब बयां कर रही थी....छोटी थी लेकिन इतनी भी नहीं की हालत समझ ना सकूँ। दीदी को कोई होश ना था।

"माँ चलो थाने चलो रेपोर्ट करवा दे और अस्पताल भी देखो ना कितने दर्द में है दीदी।" बहन का दुःख देख तड़प उठी थी मैं।

"चुप कर लड़की इज़्ज़त तो चली गई बेटी की लेकिन ये बात पूरा गांव जान गया तो जीना दूभर हो जायेगा हमारा यहाँ।"

"लेकिन माँ..."?

"कह दिया ना माँ ने फिर बहस मत कर रूपा।" बाबूजी के मुँह से पहली बार कठोर स्वर फूटा था। दीदी घर के कमरे में कैद हो गई आस पास कह दिया गया दीदी अपनी बुआ के घर गई है।

मेरे गले लग दीदी रोती रहती बार बार पूछने पे भी उन दरिंदों के नाम दीदी कभी नहीं बता पायी। हर गुजरते दिन के साथ बाबूजी और माँ सामान्य होने का दिखावा करते और सारी रात रोते रहते। देखते देखते तीन महीने निकल गए। एक रोज़ जाने माँ ने बाबूजी को क्या कहा की बाबूजी दुकान पे बैठे बैठे ही बैकुंठ निकल गए।

"माँ, दीदी को अंतिम दर्शन करवा दो बाबूजी के।"

माँ कुछ ना बोली।

क्रिया कर्म हो गया और माँ ने दुकान संभाल ली। समय के साथ दीदी के बदलते शरीर को देख समझ गई थी मैं की माँ ने उस दिन क्या कहा था बाबूजी को।

"कहा था अस्पताल चलो माँ हो गई ना बर्बाद दीदी की जिंदगी।"

अपनी बहन की बेबसी मुझे बागी बनाते जा रही थी लेकिन माँ से लड़ना मेरे बस में नहीं था।

दर्द से तड़पती दीदी के लिये माँ ने एक दाई को बुलाया दीदी को इस हालत में देख ऑंखें चौड़ी हो गई उसकी कुछ कहती उससे पहले ही माँ ने अपने गिनती के गहने और कुछ पैसे दाई को थमा उसके पैर पकड़ लिये।

दीदी को चीखना भी मना था। दर्द दांतो में भींचे तड़पती रही घंटों तब जा कर दीदी के बेटी हुई। बहुत खून गिर रहा है मेरे बस का अब नहीं आप अस्पताल ले जाओ इतना कह दाई तो चली गई और वहीं आंगन की नाली के काले पानी में घुलता लाल रंग खुद में दीदी की बेबसी बयां कर रहा था।

दर्द की परिधि लांघ दीदी जा चुकी थी और उधर पूरे गाँव में दाई ने ख़बर फ़ैला दिया था। लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया जितनी मुँह उतनी बातें.. गाँव की बेटी और माँ की हालत देख तरस खा चुपचाप क्रिया कर्म निपटा दिया गया।

इन सब में वो नन्ही बच्ची उसे गोद में ले कोने में बैठी रही मैं। हम दोनों एक दूसरे को बस टुकुर टुकुर देख रहे थे। चाहे जिस की भी बीज रही थी वो लेकिन छाया तो मेरे अनु दीदी की ही थी, वहीं ऑंखें वहीं सुतवा नाक वैसा ही सिंदूरी रंग।

कुछ औरतें जिज्ञासा में आती और झांक के देखती उसे और मैं अपने कलेजे में उसे ज़ोर से भींच लेती जैसे अनु दीदी को खोने के बाद इसे नहीं खो सकती थी।

"क्या करना है इस बच्ची का कुछ सोचा है ?" सरपंच आये शाम को माँ से पूछा।

"जैसा आप कहें", मिमियाती आवाज़ में माँ बोली भय से चेहरा पीला पर चूका था।

"जिन्दा है तो किसी अनाथालय में भिजवा दो लेकिन इस पाप की निशानी को हम गाँव में रहने नहीं देंगे। तेरी बेटी का पाप तुमने छिपा लिया था लेकिन इस निशानी को हम यहाँ रहने नहीं देंगे।"

"मैं इसे कहीं नहीं भेजूंगी, और पाप मेरी दीदी के साथ हुआ था मेरी दीदी ने किया नहीं था।" आज पहली बार मैंने आवाज़ उठाई थी। सब की नज़रें मेरी ओर उठ चली।

"पागल हो गई है क्या जो इसे रखेगी।" माँ घृणा से चीख उठी।

"हां माँ पागल हो गई हूँ, दीदी को खो दिया लेकिन उसकी परछाई को नहीं जाने दूंगी कहीं और ये मेरा अंतिम फैसला है आप सब जाये यहाँ से।"

जैसा की अनुमान था मेरे कदम से सरपंच नाराज़ हो उठे और अब गाँव में रहना संभव भी ना था। गाँव में चाचा को घर दुकान सब दे दिया और बदले में जो रकम दी उसे ले चल दी नई दुनिया बसाने। पढ़ाई और नौकरी की माँ को संभाला और दीदी की परछाई को भी नाम दिया "अनुराधा।"

दस साल बीत गए आज मेरे पास सब कुछ था। अनुराधा भी दस साल की हो चली थी और माँ वृद्ध। ऑफिस के एक सहकर्मी राहुल के शादी का प्रस्ताव आया मुझे। माँ भी चाहती थी की मैं शादी कर लूँ। राहुल को मेरी जिम्मेदारी का पूरा आभास था।

अनुराधा के विषय में राहुल अकसर पूछते रहते लेकिन मैं टाल देती थी।

"राहुल को अनुराधा के विषय में कुछ मत बताना।" माँ ने कहा तो मैं चौंक गई।

"क्यों माँ अनुराधा मेरी जिंदगी है और राहुल को मुझे अनुराधा के साथ ही अपनाना होगा और झूठ के बुनियाद पे रिश्ते नहीं बना करते।"

माँ के लाख मना करने पर भी जब मैंने सच्चाई बताई तो साफ साफ राहुल ने कह दिया माँ तो ठीक है लेकिन अनुराधा की जिम्मेदारी शादी के बाद मुझे छोड़नी होगी उसे हॉस्टल में डालना होगा तभी वो मुझसे शादी कर सकेंगे।

मर्द के और रूप से आज परिचय हो चूका था मेरा। मेरी निर्दोष बहन की जिंदगी कुछ मर्दों के अहम ने खत्म कर दी थी और अब एक और मर्द की शर्त

मेरी अनुराधा का भविष्य निगलने को तैयार बैठा था। बगल में अनुराधा सोई थी। भोली सी मुस्कान कितनी निश्छल निष्पाप।

अनुराधा को बांहों में भर लिया मैंने। एक निर्णय ले बहुत दिनों बाद सुकून से सो गई मैं। " सुबह पांच बजे के करीब नींद खुली, फ़िल्टर कॉफ़ी माइक्रो कर जब बालकनी में आयी, अद्भुत नजारा था.. सामने वाले पार्क से आता कलरव आस बंधा गया की अब मेरी अनुराधा और मैं कभी किसी के शर्तों पे हम जिंदगी नहीं जीयेंगे। अभी कॉफ़ी का अंतिम सिप लिया ही था की अनुराधा भाग कर आयी और गुडमॉर्निंग माँ कह गले लग गई मेरे। मैंने भी समेट लिया अपनी बांहों में अपनी दीदी की परछाई को अपनी जिंदगी को और अपनी" अनुराधा" को।


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