"माँ का आंचल"
"माँ का आंचल"
फ़ैक्ट्री के आला अफ़सर ख़ान साहब के बंगले के, सर्वेन्ट क्वाटर में चौकीदार, अपने आठ वर्षीय पुत्र प्रेम के साथ रहता था। पत्नी पुत्र को जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गई थी। अब पिता ही उसे माँ का भी प्यार दे रहे थे, किंतु अबोध, मासूम बालक माँ के वात्सल्य भरे आँचल की छाँव को तरसता रहता। ख़ान साहब के दो बेटे व दो बेटियां थी। उनका हम उम्र होने के कारण प्रेम हररोज़ ख़ान साहब के घर उन्हीं के बच्चों संग खेलता।
एक दिन छुपन-छुपाई खेलते समय बेख्याली में प्रेम धूल भरी चप्पल पहने ड्रॉइंग रूम के महंगे क़ालीन पर से गुज़र अंदर जाकर छिप गया। ख़ान साहब की पत्नी सलमा यह देख ग़ुस्से से आग बबूला हो गई। उसने प्रेम को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई, यह भी कहा कि तुमने मेंरा क़ीमती क़ालीन ख़राब कर दिया। उन्होंने साफ़ शब्दों में चेतावनी दी कि आज के बाद अगर मेंरे घर में क़दम रखा तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इतना सुनते ही मासूम प्रेम के मुंह से अनायास ही निकल गया कि , "आंटी, अगर आपका बेटा इस क़ालीन पर धूल भरी चप्पल पहन कर चलता तब भी क्या उसे इसी प्रकार दुत्कार घर से बाहर निकाल देती?"
बिन माँ के वात्सल्य को तरसते बच्चे के इन शब्दों ने सलमा के ममत्व को झिंझोड़ दिया, उसी क्षण उन्होंने प्रेम को अपना बेटा स्वीकार कर आँचल में छिपा लिया।