लूली
लूली
"आ गई लूली। देखो कैसे खिच्यू-खिच्यू चल रही है"- दिव्यांग लड़की को आते देखकर राकेश ने कहा।
"पैर से तो लूली है और भाव देखो ! किसी से बात तक नहीं करती"- संदीप ने हाथ की कापी को संभालते हुए कहा।
"हाँ, ये लूली तो पूरी भावों की दुकान है"- रमेश ने चुटकी ली।
रमेश के ऐसा कहते ही सभी लड़के ही-ही, ही-ही करके हँसने लगे। पैरों से दिव्यांग वह लड़की लड़कों के कमेंट्स पर गौर किये बिना अपनी राह चलती रही। उसके दिमाग में सिर्फ एक ही बात थी-" मुझे इन्हीं पैरों से एक दिन दुनिया की सबसे ऊंची चोटी फतह करनी है।"
पहाड़ में लूली पैर से दिव्यांग लड़की को कहते हैं। वैसे लूली का असली नाम नेहा था। नेहा गाँव के इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा की छात्रा थी। उसका एक पैर कमजोर था, जिस कारण उसे चलने में परेशानी होती थी। जब कॉलेज के लड़कों ने दिव्यांग होने के कारण उसे उपेक्षित दृष्टि से देखना शुरू किया तो, उसके ह्रदय को अत्यधिक चोट पहुंची। कॉलेज के लड़कों के अलावा गाँव के लोग भी उसे दया का पात्र समझते थे। बचुली आमा तो कहा करती थी- "द.. यो बिचारि त नानछना बै लुलि छ ( अरे... यह बिचारी तो बचपन से ही दिव्यांग है )।
नेहा को इस तरह लोगों का बिचारी कहना और उपेक्षित दृष्टि से देखना अच्छा नहीं लगता था। इसीलिए उसने निश्चय किया कि वह जीवन में संघर्ष करेगी और जिन पैरों के कारण लोग उसे बिचारी समझते हैं, उन्हीं पैरों के कारण एक दिन लोग उसे जानेंगे। इसलिए वह हर रविवार को गाँव व उसके आस-पास के ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ा करती। उसका सपना था कि वह बड़ी होकर पर्वतारोही बनेगी। शुरुआत में जब वह पहाड़ों पर चढ़ने का अभ्यास कर रही थी, तब एक दिन उसके पिता ने उससे पूछा- "तू ऐसा क्यों कर रही है बेटी ?"
तब उसने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कहा- "जिंदगी घुटनों के बल नहीं जी जाती पिताजी ! जिंदगी जीने के लिए खड़ा होना पड़ता है। इसलिए मैं भी खड़े होने का प्रयास कर रही हूँ, ताकि अपने सपने को पूरा कर सकूँ। मैं बताना चाहती हूँ दुनिया को कि मैं भी जीवन में कुछ कर सकती हूँ। कुछ बन सकती हूँ। लूली और बिचारी बनकर रहना मुझे अच्छा नहीं लगता।"
तब से पिता को यकीन हो गया था कि बेटी जीवन में कुछ करना चाहती है। इसीलिए उन्होंने उससे फिर कभी सवाल नहीं किया। अपनी बेटी पर उन्हें अब विश्वास हो चला था। उन्हें लगने लगा था कि लोगों की नजर में बिचारी लगने वाली यह लड़की एक दिन गुदड़ी की लाल साबित होगी। इसीलिए जब नेहा ने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की, उसके बाद ही उन्होंने उसका एडमिशन शहर के पर्वतारोहण संस्थान में करा दिया। पहले तो संस्थान के कर्मचारियों ने एक दिव्यांग लड़की को एडमिशन देने से मना कर दिया, किंतु बाद में नेहा के उत्साह और जुनून को देखकर उसे एडमिशन दे दिया गया।
तीन वर्षों तक संस्थान में ट्रेनिंग लेने के पश्चात
नेहा ने पर्वतारोही दलों के साथ अभियान पर जाने की शुरुआत की। उसे पहली बड़ी सफलता तब मिली जब वह इक्कीस साल की थी। उसने अपने पर्वतारोही दल के साथ कंचनजंगा की चोटी फतह की। गाँव के लोगों को यह खबर मिली तो उन्होंने दांतो तले ऊंगली दबा ली। जब न्यूज पेपर के संवाददाताओं को दिव्यांग लड़की के इस साहसिक कारनामे की खबर मिली तो उन्होंने नेहा का इंटरव्यू लिया। उन्होंने पूछा- "आपने इतना असंभव कार्य कैसे कर लिया ?" तब नेहा ने उन्हें जवाब दिया- "जब इरादे मजबूत हों तो असंभव कुछ भी नहीं। मेरा लक्ष्य दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराना है।"
कंचनजंगा पर तिरंगा फहराने के अगले ही वर्ष नेहा अपने सोलह सदस्यीय पर्वतारोही दल के साथ माउंट एवरेस्ट की की चढ़ाई पर निकल पड़ी।
52 दिन की चढ़ाई के बाद उनका दल एवरेस्ट के काफी करीब पहुंचा ही था कि अचानक आये भयंकर आंधी-तूफान के कारण उन्हें वापस लौट जाना पड़ा।
इसी दल ने अगले वर्ष पुनः एक बार फिर एवरेस्ट पर चढ़ाई की किंतु खराब मौसम के कारण उन्हें आधे में ही इस अभियान को विराम देना पड़ा। इस तरह नेहा के अभियान दल को चार बार एवरेस्ट के आरोहण में असफलता प्राप्त हुई।
लगातार मिली असफलताओं के बावजूद नेहा ने हार नहीं मानी। उसने अपना हौसला बनाये रखा। 26 वर्ष की उम्र में एक बार फिर उसने अपने सोलह सदस्यीय पर्वतारोही दल के साथ एवरेस्ट आरोहण की योजना बनाई। 12 मई को उनके दल ने आरोहण हेतु प्रस्थान किया। इस बार भी उनके दल को मार्ग में अनेक प्रकार की परेशानियाँ उठानी पड़ी। तेज आंधी तूफान से उनका सामना हुआ, लेकिन अपने जुनून के कारण किसी भी सदस्य ने हार नहीं मानी। वे निरंतर आगे बढ़ते रहे। इसी बीच अचानक हुए हिमस्खलन ने सबका रास्ता रोक दिया। उनका एक साथी जो नेपाल का था, वह एक बड़े हिमखंड के नीचे दब गया। हिमस्खलन को देखते हुए ग्रुप लीडर व ग्रुप के अन्य साथियों ने नेहा को एक साथी के साथ वापस लौट जाने की सलाह दी, लेकिन नेहा ने साफ मना कर दिया। उसने कहा- "यदि आप लोग वापस जाना चाहें तो जा सकते हैं, लेकिन मैं यहाँ से किसी भी हाल में वापस नहीं जाऊंगी। मैं चोटी पर तिरंगा फहराकर ही वापस लौटूंगी।"
चार जुलाई का वह दिन था नेहा ने अपने पर्वतारोही दल के साथ दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहराया। भारत में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में नेहा के साहस, शौर्य और संकल्प की सराहना हुई। पूरी दुनिया ने नेहा के अदम्य साहस का लोहा माना। नेहा ने साबित कर दिया था कि ना तो वह लूली है और ना बिचारी...वह तो हौसलों के साथ जीने वाली एक जुनूनी तितली है। एक ऐसी तितली जो अपने हौसलों के परों से सारी दुनिया को जीतने की क्षमता रखती है।