saurabh maheshwari

Drama

4.8  

saurabh maheshwari

Drama

लाफिंग बुड्ढे

लाफिंग बुड्ढे

9 mins
921


पूरी रात करवटों में ही निकल गई। दिमाग ने भी जाने कहाँ-कहाँ की बातों को एक दूसरे में पिरोकर ऐसा ताना-बाना बुना था कि पलकों से नींद और दिल से सुकून जैसे रुसवा से हो गए। ऑफिस के हालात एक तो वैसे ही कुछ अच्छे नहीं चल रहे थे और ऊपर से घर परिवार की परेशानियां। अब सुनीता को छोटी सी बात ऐसे दिल पर लगाने कि क्या जरूरत थी। माना मैंने उस से वादा किया था कि उसके चचेरे भाई कि शादी में जरूर जायेंगे लेकिन ऑफिस में अचानक इतना काम आ गया तो इसमें मेरी क्या गलती। पहले ऑफिस देखूं या शादी-ब्याह। मेरी बात समझे बिना जिद पकडे बैठी गयी थी। अब तो याद भी नहीं लेकिन गुस्से में रात को काफी कुछ बोल दिया था मैंने उसे।

बाहर अभी भी हल्का-हल्का अँधेरा सा था। मेरी उम्मीद से उलट, इतनी सुबह भी झील के चारों तरफ ऐसी चहल पहल देख थोड़ा अचरज हुआ। या तो आजकल लोगों में स्वास्थय के प्रति जागरूकता ज्यादा ही बढ़ गई है या फिर इन लोगों को भी मेरी तरह नींद नहीं आई होगी। खैर जो भी हो लेकिन सुबह की ठंडी-ठंडी हवा, पेड़ कि झुरमुट में छिपी चिड़ियों की चहचाहट और झील के पानी में पंक्तिबद्ध तैरती बत्तखों के बीच मेरा सिर दर्द अब कुछ कम सा होने लगा था। रोज के उस ए.सी. ऑफिस के घुटन भरे माहौल और सड़क पर चीखती हुयी गाड़ियों से इतर एक सुखद एहसास हो रहा था। झील का एक चक्कर लगाने की सोच कर तेज कदम ताल से मैं अभी बच्चों के पार्क तक ही पंहुचा था कि चाल धीमी हो गई। जोर-जोर से हँसने की आवाजें आ रही थी। पास पहुँच कर देखा तो १०-१५ लोग, जिनमें से अधिकतर सीनियर सिटीजन थे, गला फाड़-फाड़ कर हँस रहे थे। पास ही में पेड़ कि टहनी पर एक बैनर टंगा हुआ था "लाफिंग बुड्ढे “”।

फिल्म वगैरह में बूढ़े लोगों को ऐसे करते हुए देखा था लेकिन ये कुछ अलग सा था। उत्सुकतावश वहीं रुक कर मैं उन्हें देखने लगा। कुछ लोग प्रसन्नचित्त लग रहे थे तो कुछ के चेहरे पर उदासी और शून्यता थी। लेकिन चेहरे के इन भावों कि भिन्नता के बावजूद सबके बीच में बैठे वो अंकल जब कोई मंत्र सा पढ़ने के बाद “स्वाहा” बोलते तो सब लोग हाथ ऊपर कर के जोर जोर से हँसने लगते। मेरे कुछ और समझ पाने से पहले ही बीच में बैठे अंकल ने हाथ दे कर साथ बैठने का निमंत्रण दिया। बैनर पर लिखे उस “बुड्ढे” शब्द को देख कर पहले तो हिचक हुयी... “इन बुड्ढे लोगों के बीच में मेरा क्या काम?”। मैंने टालने की काफी कोशिश करी लेकिन उनके स्नेह आग्रह को आखिरकार मना नहीं कर पाया।

शुरुआत में स्वाहा बोलने पर जहाँ सब लोग हँस रहे थे वहीँ इस अजीब सी स्थिति में बैठे हुए मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था... “क्या पागलपन है ये। एक तो पहले से ही दिमाग खराब है...सिर में दर्द हों रहा है और ये लोग हँसने को बोल रहे हैं।” शायद मेरे चेहरे के भाव से अंकल मेरी सोच और उलझन को समझ गए थे इसीलिए इस बार स्वाहा बोलने के बाद अपने हाथ से मेरा हाथ पकड़कर ऊपर उठा दिया और आँखों में आँखें डाल कर जोर-जोर से हँसने लगे। उनकी आँखों कि हरकतें मुझे से हँसने को बोल रही थी। झूठ-मूठ को ही सही लेकिन इस बार मैं भी थोडा बहुत हँस दिया। अगले १० मिनट मंत्र-स्वाहा-हँसी का ये क्रम बदस्तूर चलता रहा। मेरी झिझक या कह लीजिए मन का अवरोध धीरे-धीरे कम होता गया। सबके साथ बिना बात ऐसे हँसने में अब मजा आ रहा था।

लॉफिंग सेशन खत्म हो चुका था। सब लोग अपनी-२ चटाई समेटकर जाने लगे थे लेकिन चेहरे पर मुस्कराहट लिए मैं वहीँ बैठा रहा। हँसने-हँसाने के बीच पत्नी से लड़ाई, ऑफिस की परेशानियाँ, दर्द वगैरह-वगैरह सब भूल चुका था। “हाँ भाई...अब कैसा लग रहा है?” अचानक आई इस आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ। पीछे मुड कर देखा तो वही अंकल मेरे पीछे खड़े मुस्कुरा रहे थे। “ Good… Thank You” मेरे इस संक्षिप्त से जवाब के बाद हम दोनों के बीच कुछ देर खामोशी बनी रही। शायद अंकल मुझे बोलने का मौका देना चाहते थे। आखिरकार मैंने ही बातचीत दुबारा शुरू करी “आपके सारे दोस्त तो चले गए। आप नहीं गए ?” “दूसरे बैच के लोग अभी आने वाले हैं और तुम हों ना तब तक मेरा साथ देने के लिए।” अंकल के इस अपनेपन ने मेरी बात करने की झिझक को कम कर दिया। ”ये क्लब तो बूढ़े लोगों का है न...फिर आपने मुझे साथ आ कर बैठने को क्यूँ कहा? ” दिमाग में बहुत देर से चल रहे इस सवाल को जब मैंने पुछा तो अंकल जोर से हँस पड़े।

“अच्छा तभी तुम्हें हम लोगों के बीच में अटपटा सा लग रहा था। माना हम अधिकतर बूढ़े थे लेकिन तुम जवान हो इसमें मुझे शक है।” अंकल के इस अजीब से प्रश्न का मतलब मुझे समझ नहीं आया। ”आपको क्या लगता है?...अभी तो मैं ४० साल का भी नहीं हुआ। ” अपनी जवानी का प्रमाण देने की मेरी ये कोशिश शायद अंकल के लिए नाकाफी थी। “बर्खुरदार उम्र और बुढ़ापा तो दूर के रिश्तेदार होते हैं। बुढ़ापे की असली जड़ तो हमारी नकारात्मक सोच, हमारी परेशानियाँ और जीवन शैली है ”। अंकल की कही बात इस बार संजीदा थी। जब तक मैं इसे पूरी तरह समझ पाता उस से पहले ही उनकी अगली बात ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। ”और जहाँ तक रही तुम्हें अपने पास बुलाने की बात तो तुम्हारा उदास चेहरा और झुके हुए कंधे कहीं ना कहीं बुढ़ापे की तुम्हारे जीवन में दस्तक को बयाँ कर रहे थे”। बात पूरी तरह सही थी। कुछ समय से जिंदगी घर और ऑफिस के बीच कि एक रस्म अदायगी सी चल रही थी। रोजमर्रा के काम और नयी-पुरानी चिंताओं में अपने आपको इतना व्यस्त कर लिया था कि दो पल ठहर कर जिंदगी की दिशा और दशा समझने की फुर्सत भी नहीं थी। लेकिन इस सच्चाई को मैं नज़रंदाज़ करता आ रहा था और इसीलिए अंकल मेरे बारे में कुछ और बोलते उस से पहले ही मैंने बात बदल दी “आप इस क्लब में कब से हैं ? ...सॉरी मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। मेरा नाम राजेश है।” अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा। “Hello Rajesh ...मेरा नाम कमलनाथ है। मैं इस लाफिंग-बुड्ढे क्लब का फाउंडर मेंबर हूँ।” जिंदादिली से हाथ मिलते हुए उन्होंने बताया। इसमें कोई शक नहीं था कि उनके व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण था। उनके बारे में, उनकी कहानी या लाफिंग-बुड्ढे की कहानी को जानने की मुझे तीव्र उत्सुकता थी और शायद अंकल को चेहरे के भाव पढ़ने में महारत हासिल थी। “लाफिंग बुड्ढे-क्लब की कहानी ज्यादा बड़ी नहीं है। १०-१५ मिनट होंगे न तुम्हारे पास।” हामी भर कर मैं वहीँ पालती मार कर बैठ गया। अंकल कहानी को बयाँ करते हुए बीते पलों में खोते चले गए।

 पत्नी के गुजर जाने के बाद मुझे अकेलेपन की असली परिभाषा का एहसास हुआ था। उम्र के आखरी पड़ाव में जहाँ मुझे अपने देश में ही रहना था वहीं विदेश में सैटल एकलौते बेटे को भारत आना मंजूर नहीं था। कुछ दिनों की तकरार के बाद आखिरकार मैंने तन्हाई को अपनी जिंदगी में स्वीकार कर लिया। कभी अकेले पार्क के किसी कोने में तो कभी टीवी के सामने बैठकर दिन तो जैसे तैसे निकल जाता था लेकिन रात के सन्नाटे में पत्नी के साथ गुजरे पल और कुछ अधूरी हसरतें मुझे छलनी करने लगे थे। दवाइयां धीरे-धीरे बढती जा रही थी और जीने कि इच्छा कम होती जा रही थी। हर रोज की तरह उस दिन भी मैं पार्क में अकेले बैठा यादों में खोया हुआ था कि तभी एक बच्चे की हँसी ने मेरा ध्यान वर्तमान में खीच लिया। मेरी सीट पर बैठा ६-७ साल का वो बच्चा न जाने क्यूँ हंसा जा रहा था। आस पास नज़र घुमा कर देखा लेकिन न उसके माँ-बाप दिखे, न कोई और जो बच्चे को ढूंढ रहा हो। वैसे इस बात का बच्चे के चेहरे पर न कोई डर था और न ही उसे कोई फ़िक्र। उलटे मेरी छड़ी को अपनी और खीच कर वो उस से खेलने में मग्न था। मेरे एकांत में इस व्यवधान से थोडा खिन्न होते हुए मैंने अपनी छड़ी वापस खींच ली। लेकिन बच्चा ज्यादा ही नटखट था। छड़ी को फिर से खीच कर वो मुझे देख कर खिखिलाने लगा। उसकी ये हँसी और बेफिक्री देख कर मेरा गुस्सा भी कुछ कम हो गया। बच्चे का साथ कुछ अच्छा लगने लग रहा था। थोडा मुस्कुराते हुए छड़ी मैंने वापस ले ली। फिर तो छड़ी के खींचातानी कि लड़ाई चल पड़ी। इस मजेदार लड़ाई में हम दोनों हँस रहे थे। मेरे हाथ से छड़ी ले कर कभी वो ठहाके लगता तो कभी झूट मूठ को छड़ी खींचते हुए मैं हँस देता। कुछ देर कि इस खींचातानी के बाद वो बच्चा सीट से उतरा और मुझ से हाथ मिला कर चल दिया। दूर खड़ा कोई उसे आवाज़ दे कर बुला रहा था। चेहरे पर मुस्कान लिए मैं उसे जाते देखता रहा। इस छोटी सी बात ने उस दिन मुझ में एक नयी ऊर्जा से भर दी थी। वास्तव में वो बच्चा मेरी छड़ी नहीं बल्कि मेरी उदासी और अकेलेपन को अपनी और खीच कर ले गया और बदले में छोड़ गया मुस्कराहट और सुकून। तब समझ आया कि चिंता, परेशानियों और दुखों के पहाड़ भी कई बार छोटी छोटी खुशियों और हँसी के आगे बेमतलब हो जाते हैं। चुनौतियों से डरने या भागने से बेहतर है कि मुस्कुराकर उनका स्वागत किया जाए। 

अपनी यादों से वर्तमान में आते हुए कमल अंकल कि आँखों में मुझे एक चमक सी दिखाई दे रही थी। “जानते हो राजेश ... जिंदगी कि ये अमूल्य सीख भले ही मुझे देर से समझ आई हो लेकिन बची हुयी अपनी और अपने जैसे बाकियों कि जिंदगी को जिंदादिल बनाने के लिए मैंने इस बुड्ढे-क्लब कि शुरुआत की। और हाँ... बुड्ढा मतलब उम्र से बुड्ढा नहीं बल्कि सोच से बुड्ढा”। उनका इशारा मैं समझ चुका था लेकिन इस बार झेपने या सच से भागने कि जगह मैं भी खिल-खिला कर हंस दिया। अंकल ने आगे समझाते हुए बताया “हम यहाँ अपनी सारी तकलीफें , दुःख और दर्द एक दुसरे से हँसी ठहाकों के बीच साझा करते हैं। जरूरी नहीं कि समस्या का समाधान हमारे पास हो लेकिन परेशानी का मजाक बनाकर हम उसे बौना जरूर कर देते हैं। ” बातों बातों में समय का पता ही नहीं चला। दुसरे बैच के लाफिंग-बुड्ढे आ गए थे। कमल अंकल को गले लगा कर मैं घर कि और चल दिया। सूरज अब निकल चुका था और पीछे से आते हँसी ठहाकों की आवाज के बीच मेरी परेशानियां, चिंताएं और नकारात्मकता कहीं दूर उड़ गए थे।

“मेरी भी चाय बना लो और ये गरमा गर्म कचोडी भी प्लेट में लगा लाना। साथ बैठ कर खायेंगे।” किचन में चाय बनाती पत्नी को कचोडी का पैकेट थमाते हुए मैंने बोला। इस से पहले अचरज भरी निगाहों से देखती सुनीता कुछ बोल पाती मैंने उसे दूसरा सरप्राइज दे दिया “नकुल कि शादी में जाने की पैकिंग कर लो। और हाँ...वहीँ से मसूरी भी घूमने निकल जायेंगे। तुम बहुत दिनों से कह भी रही थी।” मेरी बात से पत्नी के चेहरे पर एक मुस्कान छा गई। चाय के इन्तेज़ार में पंखा चला कर मैं ड्राइंग रूम में बैठ गया। सामने शोकेस में हाथ ऊपर कर हँसते हुयी लाफिंग-बुद्धा की वो प्रतिमा थी जिसे सुनीता घर की सुख-शान्ति के लायी थी। मुझे अभी उस प्रतिमा में मुस्कुराते हुए कमल अंकल का चेहरा नज़र आ रहा था। मेरी जिंदगी के असली लाफिंग-बुद्धा... जिन्होंने जीने का एक नया नजरिया मुझे सिखाया “जीवन की असली खुशी के लिए हमें मिट्टी के बुत कि जरूरत नहीं है...जरूरत है तो बस रोज की उन छोटी-छोटी मुस्कुराहटों की जिन्हें अक्सर बड़ी खुशियों को पाने की कशमकश के बीच हम कुर्बान कर देते हैं।”     


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama