डर के आगे
डर के आगे
साँसों की गति अब थोड़ी लड़खड़ाने-सी लगी थी। शारीरिक थकान तो शायद उतनी नहीं थी पर हाँ, सामने की तीक्ष्ण चढ़ाई और चारों ओर के सुनसान वातावरण के कारण मानसिक थकान और एक अनजान-सा भय ज़रूर अंदर अपना घर बना रहे थे। मैं, जीत वशिष्ठ, और मेरे अन्य दो साथी कंचनजंगा चोटी के पर्वतारोहण अभियान पर थे। भारत और नेपाल की सीमा पर स्थित विश्व का तीसरा सबसे ऊँचा पर्वत ‘कंचनजंगा’। इसकी 5 चोटियों में से 8586 मी. ऊँची मुख्य चोटी हमारी मंज़िल थी। एवरेस्ट और K-2 की तुलना में कंचनजंगा मूलभूत सुविधाओं और मीडिया कवरेज के अभाव में उतना लोकप्रिय नहीं है। साथ ही यहाँ का मृत्यु दर भी काफी अधिक है। इसी कारण से हमारा यह निर्णय जान-पहचान वालों और साथी पर्वतारोहीयों को अटपटा-सा लगा था। लेकिन कुछ तो था कंचनजंगा में जो मुझे यहाँ खींच लाया था। शायद यह आकर्षण मेरी बड़ी बहन ‘दिविका’ के कारण था। अपनी धुन की पक्की और देश की विख्यात महिला पर्वतारोही मेरी बड़ी बहन दिविका अत्यंत निर्भीक और साहसी थी। ‘थी…’ हाँ अब वो मेरे साथ नहीं है। इस ‘थी’ के पीछे की कहानी कंचनजंगा की इन्हीं पहाड़ियों में कहीं दबी हुयी है। इस ‘थी’ के पीछे का दर्द पर्वतारोही दल के उन सदस्यों के दिल की गहराईयों में आज भी है जिन्हें बचाने के लिए दीदी मौत से भी लड़ गयी। लेकिन इस ‘थी’ से अब मुझे अपने जीवन में प्रोत्साहन और आत्मविश्वास मिलता है। उनकी बताई सीख और बातें ही मुझे आज इस मुकाम तक ला पाई हैं। आज सफलता और मौत के बीच में लटके हुए मस्तिष्क में बचपन की वो बात फिर ताज़ा हो गयी। बात छोटी सी ही थी लेकिन बचपन के उस दब्बू और डरपोक लड़के को दिविका दीदी ने छोटी-छोटी बातों से ही तो हर संघर्ष के लिए तैयार किया था।
लड़के की आस लगाए बैठे मेरे घर वालों के लिए लड़की होना अगर उस समय कोई सदमा नहीं था तो कम से कम कोई खुशी की बात भी नहीं थी। काफी मन्नतों के बाद जब मैं पैदा हुआ तो मुझे भरपूर लाड-प्यार मिला। कहते है न कि अति तो हर चीज की बुरी होती है। इस अति के प्यार ने मेरे अंदर वास्तविक सांसारिक चुनौतियों के प्रति एक डर बैठा दिया था। दिविका दीदी ने ही मेरा नाम जीत रखा था। वो हमेशा चाहती थी कि मैं परिस्थितियों से स्वयं लड़कर अपनी जीत सुनिश्चित करूँ। लेकिन वास्तविकता इससे बिल्कुल इतर थी। मेरे परिवारवालों के अति संरक्षणवाद के कारण मैं अकेले बाहर जाने और अनजाने लोगों से बात करने में डरता था। तब शायद मैं 7 साल का था और दीदी 11 वर्ष की। जहाँ घर वालों को लगता था कि उम्र के साथ मेरा डर चला जाएगा वहीं दीदी का मानना था कि बचपन का डर अगर अभी खत्म नहीं हुआ तो यह कभी न ढहने वाला किला बन जाएगा। आपको लगे कि 11 वर्ष की एक लड़की और इतनी बड़ी-बड़ी बातें लेकिन मेरे संदर्भ में वो हमेशा बड़ी हो ही जाया करती थी ।
रोज किसी न किसी तरह से वो मुझे डर के उस साये से बाहर निकालना चाहती थी। कहते है न कि कभी-कभी जीवन की कुछ छोटी-छोटी घटनाएँ बहुत गहरा असर डाल देती है। मेरे जीवन की ऐसी ही एक घटना हमारे गाँव के मेले में घटित हुई। भीड़-भाड़ से डरने वाला मैं, दीदी के बहुत समझाने के बाद उनके साथ मेले में गया। चारों तरफ रोशनी, संगीत, लोग, चाट-पकौड़ी, खिलौने और उत्साह का माहौल था लेकिन दीदी का हाथ कस कर पकड़े हुए मुझे बस इसी बात का भय था कि मैं कहीं खो न जाऊँ। सबसे बुरा हाल मेरा उस तेजी से घूमते हुए झूले को देखकर हुआ जिसमें कुछ बच्चे हँस रहे थे तो कुछ चीख रहे थे। चीखने की उन आवाज़ों की तीव्रता झूले की गति के साथ बढ़ती जा रही थी। पता नहीं क्यूँ लेकिन वो सब देखकर मैं दीदी के पेट से चिपक-चिपक कर रोने लगा। बड़े प्यार से चुप कराते हुए दीदी ने पूछा कि ‘झूले से डर लगता है ! सहमे हुए मैंने हाँ में गर्दन हिला दी। मैं रोने लग गया, दीदी को पीछे खींचा पर उन्होंने मुझे पकड़कर अपने साथ झूले में बिठा लिया। दीदी से लिपटा हुआ मैं झूले की गति बढ़ने के साथ-साथ अपने दाँतों को जोर से भींचता चला गया। पेट में कुछ-कुछ होने लगा और मेरे नाखून दीदी के हाथ में गड़ने लगे। अचानक से दीदी जोर-जोर से चीखने लगी। डर के साये में पहले से ही जकड़ा मुझे पहले पहल लगा कि दीदी को भी डर लग रहा है। लेकिन उल्टा दीदी तो हँसते हुए चीख रही थी। उन्होंने मुझ से भी ऐसा ही करने को बोला। सर चकरा रहा था और चेहरा पसीना पसीना हो गया था। झूले वाले से बहुत मिन्नतें करने के बाद भी जब झूला नहीं रुका तो दीदी से चिपके हुए मैं भी चीखने लगा। अब मेरा पूरा ध्यान चीखने पर था। अपने पूरे दम से मैं चीख रहा था। इस दौरान झूला अपनी चरमगति पर था लेकिन अब मुझे रोना नहीं आ रहा था। साथ में बैठे हम दोनों पूरी ताकत से चीख रहे थे। झूला जब रूका तो मेरी आँख में सूखे हुए आँसू जरूर थे लेकिन चेहरे पर डर नहीं था। उसके बाद हम फिर एक और बार उस झूले में झूले। इस बार दीदी का एक हाथ पकड़कर मैं झूले में बैठा और खूब चीखा लेकिन रोया नहीं। अब मुझे डर नहीं लग रहा था। हमने उस दिन वो झूला कई बार झूला। अब मैं झूले पर चीखने के साथ-साथ हँस रहा था। दीदी का हाथ छोड़कर कभी मैं झूला पकड़ता तो कभी उस घोड़े के कान। शायद यह एक छोटी-सी घटना ही थी पर मेरे डर रूपी इमारत की नींव पर वो पहला आघात था। ऐसा नहीं कि उसके बाद मेरा डर बिल्कुल खत्म हो गया लेकिन हाँ उससे लड़ना जरूर आ गया।
सर्द हवा के एक तेज झोंके ने मुझे अतीत की यादों से वर्तमान में ला दिया। सामने की चुनौती को स्वीकारते हुए हमने अपनी चढ़ाई सावधानी के साथ आगे शुरू कर दी। जैसे-जैसे चढ़ते गए, मुश्किलें बढ़ती गई। बचपन में खेले उस वीडियो गेम ‘मारियों’ की याद आ गई जहाँ अगला लेवल पिछले से मुश्किल होता जाता था। आगे बढ़ने के लिए रस्सी लगाने की जगह भी नहीं दिख रही थी। साथ ही एक डर कि न जाने ऊपर से कब कोई ग्लेशियर खिसक जाए। चेहरा और शरीर ठंड से अकड़ा जा रहा था। सीमित संसाधनों और विषम परिस्थितियों के बावजूद पर्वतारोहण के मूलभूत सिद्धांतों का अनुसरण कर हम आगे बढते गए। मंज़िल अब पास ही थी लेकिन मौत का डर सोचने-समझने की ताकत को अपने आगोश में लिए जा रहा था टी.वी. विज्ञापनों में एनर्जी ड्रिंक से इस डर को काबू करते हुए देखा था लेकिन असल परिस्थिति में जरूरत थी अपने अंदर की उस एनर्जी को जगाने की। एक आखिरी बार अपनी सारी ताकत मैंने झोंक दी। एक विश्वास ज़रूर था कि ऊपर पहुँचे या न पहुँचे लेकिन यह डर वापस मेरे साथ घर नहीं जाएगा। आखिरकार मैंने कंचनजंघा को जीत ही लिया। कंचनजंगा की उस चोटी पर खड़े हुए मैंने अपना हाथ जेब में डाला। हाथ में दीदी की राखी थी। ऐसा लगा कि हम दोनों हाथ पकड़े हुए तेजी से चलते उसी झूले पर बैठे हैं और ठंडी हवा हमारे चेहरे पर मुस्कान बिखेर रही है। आज दीदी के सपने को पूरा कर मैंने डर के आगे की उस जीत को पा ही लिया।