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saurabh maheshwari

Tragedy

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saurabh maheshwari

Tragedy

दद्दा

दद्दा

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खाली सड़क पर जहां गाड़ी की रफ़्तार तेज हो रही थी वहीँ मेरी बैचैनी भी बढ़ती जा रही थी । आज कीमोथेरेपी का चौथा सेशन था । वैसे तो कीमो के बाद होने वाली कमजोरी और दर्द के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार थी लेकिन ये बैचैनी... बात कुछ और ही थी । कहीं भाग जाने का मन कर रहा था । बीमारी...अस्पताल...दवाई और लोगों की हमदर्दी के बीच धुंधलाई सी जिंदगी को एक बार फिर पाने का मन कर रहा था । बेफिक्री वाले पुराने दिन रह-रह कर फिर याद आ रहे थे । सुकून के उन पलों को याद कर चेहरे पर आई उस 2 घडी की मुस्कान पर वर्तमान की उदासी के बादल फिर घिर गए थे ।

      बचपन से ही आत्मविश्वासी लेकिन जिद्दी ‘मिहिका’ को जिंदगी में कोई समझौता बर्दाश्त नहीं था । जो सोच लिया...ठान लिया तो बस फिर किसी की नहीं सुननी । रिश्तेदारों और दोस्तों के होते हुए भी वो अकेली थी । कितने सालों तक तो उसने अपने मम्मी-पापा से भी बात नहीं करी । अपनी इसी मानसिकता के कारण पापा के गुजर जाने के बाद मानो उसके लिए पूरा परिवार ही खत्म हो गया । आज अकेलेपन के इस अन्धकार के बीच मिहिका का मन बचपन के उस उजाले में सुकून तलाशने की कोशिश कर रहा था । लेकिन मम्मी और पापा के जाने बाद उसके लिए बचपन की यादों से जुड़ा अब बस वो भिलाई वाला मकान ही बचा था ।

“ सालों हो गए उस जगह को छोड़े हुए । जाने कैसा दिखता होगा अब? गेट पर बना मोर... खिड़कियों की जाली से छन कर आती तेज हवा...गोल घूमती ऊपर को जाती सीडियाँ और ‘दद्दा’ । दद्दा तो अब और बड़ा हो गया होगा ।”

पुरानी बातों को याद करते-करते मिहिका अपना दर्द भूल गयी । उसका मन उड़कर बचपन के उन पलों को फिर से जी लेने के लिए उतावला हो रहा था । 

      डॉक्टर के लाख समझाने और यात्रा की सख्त मनाही के बावजूद मिहिका यादों के अपने म्यूजियम, बचपन के उस मकान को देखने पहुँच ही गयी । मिहिका के शरीर की तरह मकान भी कुछ थका हुआ और कमजोर दिख रहा था । चारों तरफ का द्रश्य भी काफी बदल चुका था । शांत रहने वाली वो जगह अब एक अच्छा खासा बाज़ार दिखाई दे रही थी । अपने आस पास की चीजों को एक नज़र देख लेने के बाद मिहिका ने घर की घंटी दबाई । एक 30-35 वर्ष की युवती ने गेट खोला । थोड़ी देर तक पहचानने की नाकाम कोशिश के बाद उन्होंने पूछा

“ जी नमस्ते... बताइए ? “

“नमस्ते... मेरा नाम मिहिका खन्ना है... तकरीबन 20 साल पहले हम यहाँ रहा करते थे... मतलब मम्मी, पापा और मैं । अगर आपको बुरा न लगे तो क्या मैं अंदर आ कर एक बार फिर इस घर को महसूस कर सकती हूँ? …आपका ज्यादा समय नहीं लूंगी ।”

वैसे तो किसी अनजान इंसान को यूँ घर में बुलाना सही नहीं था लेकिन मिहिका की तबियत और उसके आग्रह को देखते हुए वो युवती मना नहीं कर पायी ।

“कोई बात नहीं... आइये...मेरा नाम रश्मि है ।”

वैसे तो इतने सालों में काफी कुछ बदला था लेकिन मिहिका की नज़रों को सब वैसा ही दिखाई दे रहा था । गार्डन की कुर्सी पर बैठ धूप मैं सब्जी काटती माँ, पास में गाडी साफ़ करते पापा और दद्दा से लटकी हुयी झूला झूलती छोटी सी मिहिका । अपने आंसुओं को आँखों में समेट मिहिका वहीँ कुर्सी पर बैठ गयी । थोड़ी देर तक रश्मि ने बात करने की कोशिश करी लेकिन अपने में खोयी मिहिका के जवाब न देने पर वो अंदर चली गयी ।

      “सुनिए... चाय बन गयी है । आइये अंदर बैठते हैं ।” रश्मि की आवाज़ सुन मिहिका अपनी यादों की दुनिया से बाहर आती है ।

“आप 20 साल पहले यहाँ रहते थे ?” रश्मि ने चाय का प्याला आगे बढ़ाते हुए पूछा ।

“जी...” मिहिका से इतने संक्षिप्त जवाब से रश्मि कुछ खामोश हो गई ।

“ तब तो आपको सब बदला हुआ दिख रहा होगा... वैसे अब ये area शहर का एक मुख्य बाजार है ।” बात को बढ़ाते हुए रश्मि ने कहा

“हाँ... पहले इतनी चहल-पहल और भीड़भाड़ नहीं थी ।” मिहिका ने रश्मि की बात पर हामी भरते हुए ठंडी होती चाय की एक चुस्की ली

थोड़ी देर की शांति के बाद रश्मि ने ही बातों की फिर शुरुआत करी ।

“ घर काफी पुराना हो गया है । अगले महीने से इसकी मरम्मत का काम शुरू करवा रहे हैं । बाहर सड़क की तरफ दुकानें भी निकलवा रहे हैं ।

“बाहर की तरफ... मतलब... वहाँ तो गार्डन है न !”अब तक शांत बैठी मिहिका ने इस बार कुछ तेज आवाज़ में पूछा

“ हाँ वो गार्डन तो हट जाएगा”

“हट जाएगा? ... और वो पेड़?”

“वो पेड़ कटवा देंगे । २ मंजिला दुकानें और ऊपर जाने के लिए सीडीयाँ भी बाहर से ही निकल जायेंगी । Boundary wall को भी change करना होगा ।” नए construction के बारे में बताते हुए रश्मि के चेहरे पर एक खुशी थी ।

“ पेड़ काट दोगे... । दद्दा को काट दोगे... हक क्या है आपको?” लगभग चीखती हुयी मिहिका कुर्सी से उठ गयी । उसकी आँखों में गुस्सा उमड़ रहा था

थोड़ी देर तक हैरान आँखों से मिहिका को देखती रश्मि को भी अब गुस्सा आ गया

“हक... अरे हमारा मकान... हम जो चाहे वो करें...उम्र और तबियत का लिहाज़ कर आपको अंदर क्या आने दिया आप तो हमें ही सिखाने लगी कि हमारा हक क्या है । आप होती कौन हैं हमें बताने वाली । घर से निकालिए आप इसी वक्त ।”

मिहिका का गुस्सा अब कुछ ठंडा हो गया था ।

“रश्मि...please मेरी बात सुनो । This tree ।s here since long. ।t’s part of this house. ।n fact, this house ।s always known as ‘बरगद वाला घर’ । Please don’t cut ।t. Please…”

मिहिका के विनती करने के बावजूद रश्मि का गुस्सा वहीँ का वहीँ था

“madam, न आपकी अंग्रेजी से मुझे फर्क पड़ता है और न आपके please से । आप यहाँ से निकलिए अब”

मिहिका को घर से बाहर निकाल रश्मि ने दरवाज़ा उसके मुंह पर बंद कर दिया । मिहिका बाहर तक फ़ैली पेड़ की शाखाओं की सरसराहट सुनती रही । मानो सालों बाद मिलने की खुशी में वो कुछ कह रहा हो ।

कार की पिछली सीट पर आँख बंद करे निढाल सी बैठी मिहिका के दिमाग में बचपन की बातें किसी फिल्म की तरह चल रही थीं । मैं नए घर में पहली मंजिल वाला अपना बड़ा सा कमरा पा बहुत खुश थी । खिलोनों और पोस्टर से कमरे को सजाने के बाद खेलने के लिए मैं गार्डन में आ गयी थी । एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे कुछ पत्ते पड़े हुए थे । पेड़ से गिरे इन पत्तों को इकठ्ठा कर जैसे ही मैं कोने में रखती वैसे ही हवा के झोंके से कुछ और पत्ते गिर पड़ते । उन्हें ले जा कर रख पाती तब तक और पत्ते जमीन पर पड़े दिखाई देते । यूँ ही आगे पीछे दौड-भाग करते हुए आखिरकार मैंने सारे पत्ते एक जगह इकट्ठे कर ही लिए । हवा भी शांत हो गयी थी । अभी मैं थोड़ा सुस्ता ही रही थी कि अचानक से आई तेज हवा से मेरे सारे पत्ते उड़ कर चारों तरफ फ़ैल गए । गुस्से में पैर पटक मैं पेड़ के तने के पास जा कर बैठ गयी । थकान और ठंडी हवा के बीच कब नींद लग गयी पता ही नहीं चला । जब आँख खुली तो मैं अपने पलंग पर थी और पापा सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे । “ तू तो गार्डन में ऐसे सो रही थी जैसे पेड़ नहीं कोई मुलायम गद्दा हो । आस-पास चींटियाँ और तेरे बालों में पत्ते थे । लेकिन चेहरे पर मुस्कान लिए तू तो बड़ी गहरी नींद में सोयी हुयी थी ।”

पापा के जाने के बाद मैंने खिडकी से झाँक कर बाहर बरगद के पेड़ को देखा । कितना बड़ा और सुन्दर था । पापा सही थे । उससे चिपककर सुकून की नींद आई थी मुझे । जैसे किसी बड़े की बाहों में...मुलायम गद्दा न सही लेकिन वो मेरा ‘दद्दा’ था ।

“Yes…दद्दा...” अपने पेड़ को एक नया नाम दे कर मैं बहुत खुश थी । 

      उसके बाद दद्दा मेरी दिनचर्या की एक आदत सी बन गया । सुबह उठ खिडकी से उसे देखना । स्कूल जाने से पहले गले लगा कर bye बोलना । शाम को खिलोनों का ढेर उसके आस पास सजा खेलना और झूला झूलना । रात को सोने से पहले जब मैं गाना गुनगुनाती थी तो दद्दा की पत्तियों से गुजरती हवा जैसे पीछे से संगीत देने लगती थी । एक बार जब अपने हाथ पर मैं टैटू बनवा कर आई थी तो वैसा ही टैटू मैंने दद्दा के तने पर भी बना दिया था । Same Pinch बोल कर kiss भी किया था मैंने दद्दा को । मेरे जन्मदिन की पार्टी में उसके ऊपर लगी लाइट्स जब हवा से हिलती तो ऐसा लगता जैसे नए कपडे पहन कर दद्दा भी पार्टी में थिरक रहा हो । सच्ची मेरे बचपन का एक अहम हिस्सा था दद्दा ।

लेकिन कहावत है कि वक्त के साथ आदतें भी बदलने लगती हैं । दौड़ती हुयी जिंदगी कि रफ़्तार के बीच तब पता ही नहीं चला लेकिन आज सोचती हूँ तो महसूस होता है । बड़े होने के साथ साथ लाइफ में मेरी priorities बदल गए थे । गार्डन में बैठने की जगह दोस्तों के साथ घूमने में मजा आने लगा । स्कूटर को सरपट दौड़ाकर जब घर से बाहर निकलती थी तो दद्दा को गले लगाना तो दूर,उसकी तरफ देखने का ख्याल भी नहीं आता था । रात को खुली रहने वाली मेरे कमरे की खिडकी अब बंद होने लगी थी क्यूंकि पत्तियों की सरगम अब मेरी नींद disturb करती थी । मेरी इस दूरी का दद्दा पर जो असर हुआ उसका गुमान मुझे अब हो रहा है । मैंने घर के बाहर की दुनिया में खुद को मशरूफ कर लिया था लेकिन दद्दा की दुनिया तो शायद उस घर में मेरे इर्दगिर्द तक ही सीमित थी । इसीलिये मेरी खिडकी तक आई दद्दा की टहनियाँ धीरे-धीरे कर ऐसे सूखती गयी जैसे किसी अपने का सहारा छूट जाने पर हाथों की जान निकल गयी हो । असल में दद्दा के साथ एक रिश्ता बना अचानक से मैंने उन्हें अकेला छोड़ दिया । ठीक वैसे ही जैसे एक दिन मम्मी पापा को अकेला छोड़ मैं घर से भाग गयी थी । जिंदगी अपने हिसाब से जीने के लिए ।   

      “मैडम... होटल आ गया ।” ड्राइवर की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा ।

आज सारी बातों को दोहराया तो एहसास हुआ कि अपने स्वार्थ और अपनी सोच को ही मैंने सबके ऊपर रखा था । मुझे हमेशा लगता था कि हर इंसान स्वार्थी होता है और कहीं न कहीं इंसान का स्वार्थी होना उसकी सफलता के लिए जरूरी है । इसलिए जब जरूरत लगी तो रिश्ते बनाये फिर जरूरत खत्म तो रिश्ते भी खत्म । किसी से मुँह फेर लिए तो किसी से नाता तोड़ लिया । रिश्तों में मैंने अपने आपको को ही तरजीह दी थी । तो फिर आज मैं रश्मि से हक की बात क्यूँ कर रही थी? वो भी अपने फायदे की सोच रहे हैं जैसे मैंने अपने परिवार और दद्दा को भुला अपने भविष्य की सोची थी । तो आज मुझे इतना फर्क क्यूँ पड़ रहा है? शायद इसमें भी मेरा स्वार्थ है । इस अकेलेपन के बीच आज मुझे दद्दा और उनसे जुडी यादों की जरूरत है । मेरे बचे हुए जीवन का एक बड़ा सहारा है दद्दा । इसलिए दद्दा को में कुछ नहीं होने दूँगी । इस सोच के बीच मिहिका ने एक निर्णय लिया । दद्दा को बचाने का निर्णय ।

 “इस बार दद्दा को मैं अकेला नहीं छोडूंगी । चाहे जो करना पड़े ।” 

अगले कुछ दिनों तक मिहिका ने रश्मि और उसके पति को मनाने की काफी कोशिश करी । घर खरीदना तो उसकी हैसियत से बाहर था लेकिन दद्दा को ना काटने के बदले वो उन्हें अपनी पूरी जमा पूँजी तक देने को तैयार थी । लेकिन मिहिका की सोच से इतर रश्मि के परिवार के लिए दद्दा बस एक पुराना पेड़ था जो उनकी जमीन को घेरे हुए है । बात न बनती देख मिहिका ने वन विभाग और स्थानीय म्युनिसिपल ऑफिस में पेड़ काटने के खिलाफ शिकायत दर्ज करवा दी । इस शिकायत पर विभाग की एक टीम मुआयने पर पहुँच गयी । बरगद के उस पेड़ के फैलाव और मजबूती को देखते हुए टीम ने रश्मि के पति को पेड़ न काटने की सख्त हिद्दायत दी । साथ ही मिहिका को आश्वासन दिया कि पेड़ को संरक्षित श्रेणी का दर्ज़ा दिया जाएगा जिसके बाद उस पेड़ को काटना कानूनन असम्भव हो जाएगा । इस भरोसे के बाद मिहिका ने राहत की सांस जरूर ली लेकिनपीठ पीछे चल रही गतिविधियों से वो पूरी तरह अनजान थी । भारत में कानून उस लचीले गुब्बारे की तरह है जिसे तोड़-मरोड़कर अपने हिसाब से ढाला जा सकता है । रश्मि के पति ने म्युनिसिपल ऑफिस में पैसे खिला कर सांठ गाँठ कर ली । दद्दा की जड़ों में पारा और टहनियों पर तेज़ाब डाल दिया गया । कमजोर होती टहनियाँ हवा के जोर से टूट कट सड़क और आस-पास के घरों में गिरने लगी । कुछ दिन पहले ही ‘संरक्षित’ किये जाने के वादों के बीच दद्दा को अब जान-माल के लिए ‘खतरनाक’ घोषित कर काटने की इजाजत दे दी गयी थी ।

      पता लगते ही मिहिका दद्दा को बचाने पहुँच गयी । मना करने के बावजूद वो जोर जबरदस्ती कर घर के अंदर घुस गयी और दद्दा से जा कर लिपट गयी । रश्मि के पति के बार-बार बोलने पर भी जब मिहिका नहीं हटी तो उन्होंने पुलिस बुला ली । जिद्दी मिहिका ने पुलिस की बात मानने से भी इनकार कर दिया । हंगामे और चीख पुकार के बीच दो महिला कांस्टेबलों ने उसे पेड़ से दूर करना शुरू कर दिया । पूरे जोर से चिपटी मिहिका के हाथ जगह जगह से छिल गए । हाथों से निकला खून दद्दा के तने पर बने उस धुँधला चुके tattoo पर लग गया था । फटे कपड़ों में पागलों की तरह चिल्लाती मिहिका को पुलिस जीप में बिठा कर ले गयी । तेज़ाब और पारे के जहर से कमजोर दद्दा की आत्मा भी पूरी तरह से लहू लुहान हो गयी थी ।

दद्दा पर चदा एक आदमी उसकी टहनियों को काट रहा था । ट्रक में सारी लकडियों को इकठ्ठा किया जा रह था । तमाशबीनों की भीड़ इकठ्ठा थी । मिहिका सड़क के दूसरी ओर बने बस स्टॉप की सीट पर बैठी थी । कैंसर से खोखला हो चुका उसका शरीर अपने बचपन के आखिरी साक्षी को सिमटता देख रहा था । लेकिन उसकी आँखों में न अब कोई दर्द था और न दद्दा की पत्तियों में कोई सरसराहट थी । दोनों भावशून्य हो कर एक दूसरे को निहार रहे थे । सारी कोशिशें, सारी लड़ाइयां,सारी हसरतें अब खत्म हो चुकी थी । धड़ाम...एक तेज आवाज़ के साथ मकान की बाउंड्री को तोड़ दद्दा जड़ सहित सड़क पर आ गिरा । अचानक से इतना बड़ा पेड़ गिरने से सड़क पर ट्रैफिक जाम लग गया । आस-पास इकट्ठे हुए कुछ लोग घायल भी हो गए थे । पुलिस और क्रेन को बुलाने के लिए फोन हो ही रहे थे कि सड़क के दूसरी तरफ बस स्टॉप पर खड़ी भीड़ में से हल्ला मचने लगा

“पानी डालो मुँह पर...बैग में देखो कोई ।dentity card होगा... एम्बुलेंस बुलाओ जल्दी...”

सड़क के दोनों तरफ से तेज सायरन की आवाजें आ रही थी । दोनों तरफ की उथल पुथल के बीच मिहिका का बेजान शरीर एम्बुलेंस में रखा जा रहा था तो वहीँ क्रेन से लटके दद्दा के शरीर को काट काट कर ट्रक में चढ़ाया जा रहा था ।

एक कहानी अपने अंतिम पद्दाव पर आ गयी थी । एक सफर जिसके दोनों यात्री अपनी जुदा राहों से होते हुए एक ही मंजिल की तरफ चल दिए थे । शब्दों की सीमाओं से परे सालों पहले शुरू हुआ एक रिश्ता अनंत में विलीन हो रहा था ।


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