लाकडाउन
लाकडाउन


लाकडाउन का तीसरा चरण आरंभ हो चुका था। शरद ने दोनों चरणों में पूरे उत्साह के साथ नियम संयम से सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन का किया था। एक आदर्श नागरिक की भांति उसने थाली भी बजाई थी और कोरोना वारियर्स के सम्मान में दिए भी जलाए थे। जैसा कि सरकार ने निर्देश दिए थे कि संकट की इस घड़ी में किसी भी कर्मचारी का वेतन न काटें तो उसने भी कामवाली बाई और अपने ड्राइवर को दोनों महीने का वेतन दिया था। किंतु अब धीरे धीरे शरद का संयम जवाब दे रहा था। लोन की ईएमआई, बच्चों की फ़ीस और ऐसे ही न जाने कितने खर्च उसके सामने मुंह फैलाए खड़े थे। इधर मालिक ने भी सैलरी के नाम पर चुप्पी साध रखी थी। पहला महीना तो किसी प्रकार पुरानी बचत से इकट्ठा किए पैसों से गुजर गया किंतु अब दिन बीतने के साथ साथ उसके मन में जैसे निराशा का सागर हिलोरें लेने लगा था।
अगर मालिक ने नौकरी से निकाल दिया तो जीवन यापन कैसे होगा? भविष्य में कैसे धनोपार्जन किया जाएगा? इन सब प्रश्नों ने उसको मन ही मन विचलित कर रखा था। किंतु शरद ने कभी किसी के सामने अपनी मजबूरियों का जिक्र नहीं किया। शरद मन ही मन सोच रहा था कितनी जल्दी लाकडाउन खुले और भविष्य को लेकर उसके मन मस्तिष्क में चल रही शंकाओं से उसका सामना हो। किंतु यह क्या? सरकार ने दो सप्ताह लाकडाउन को और बढ़ाने का फैसला सुना दिया। शरद हतप्रभ था। हतोत्साहित था। किंकर्तव्यविमूढ़ सा बीच सड़क पर खड़ा हुआ था। आठ बजे प्रधानमंत्री जी के संबोधन से जैसे वह किसी अवसाद में चला गया हो। तभी तेज रफ़्तार से एक ट्रक जिसके ऊपर सबका साथ सबका विकास लिखा हुआ था, उसको रोंदता हुआ निकल गया।शरद सड़क पर पड़ा अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। अब उसकी सारी चिंताओं का निराकरण हो चुका था। मुआवज़े के तौर पर शरद की पत्नी को दस लाख रुपए दिए गए। साथ ही मालिक ने उसके दोनों बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाने की घोषणा की जिसे अगले दिन अखबारों में बड़ी बड़ी हेडलाइंस के साथ छापा गया। दुनिया के लिए लाकडाउन खुले न खुले किंतु शरद के लिए अब लाकडाउन खुल चुका था।
ॐ शांति ॐ