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Kanchan Pandey

Drama

4  

Kanchan Pandey

Drama

कविता का अटूट प्रेम

कविता का अटूट प्रेम

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कविता बहुत क्रोध में कुछ भनभनाते हुए घर में आई और अपने पर्स को जोर से पटकते हुए सोफे पर बैठ गई रमेश दफ्तर से आ चुका था और उसके इस व्यवहार से परिचित था वह समझ गया कि जरूर फिर कविता की भावनाओं को चोट पहुँची है नहीं तो कविता ऐसी नहीं है कि सभी से उलझती फिरे लेकिन अभी पूछूं तो शायद मुझ पर हीं बरस पड़ेगी लेकिन गुस्से को शांत करने के लिए बात बदलनी पड़ेगी इन सभी बातों को सोचकर रमेश बिना कुछ कहे एक गिलास पानी कविता की ओर बढ़ाते हुए, लो पानी पी लो।

आपको क्या लगता है पानी पीने से मेरा गुस्सा शांत हो जाएगा। आपका यह सोचना एकदम गलत है।ऐसा नहीं होने वाला है।

रमेश –मैनें ऐसा कब कहा, लो पानी पी लो।

कविता –सुन लीजिए मैं अब यह नौकरी नहीं करने वाली हूँ।अब यह रोज रोज का अपमान मुझसे बर्दाश्त नहीं होता है।क्या हिंदी विषय का कोई वजूद हीं नहीं है ?

रमेश –क्या हुआ ?

कविता –कुछ नहीं और दोनों आँखें बंद करके वहीं सोफा पर बैठी रही उसके बंद आँखों के कोनों से बहते आँसू आज उसकी मन की पीड़ा बयान कर रही थी।

रमेश का मन अब व्याकुल हो उठा और कविता से बोला क्या हुआ कविता बोलो तुमको कौन क्या बोला है जो तुम इतनी व्याकुल हो, तुम्हारा यूँ सिसकना और पीड़ित होना मुझे आहत कर रहा है और अगर तुम नहीं बताओगी।

यह बोलकर रमेश घर से बाहर निकल हीं रहा था कि

कविता –आप हीं बताइए मुझे कौन क्या कहेगा लेकिन अपने हीं देश में अपनी भाषा का अपमान मुझसे बर्दाश्त  नहींं हो रहा है।

रमेश –क्या हुआ ?

कविता –आज मेरे स्कूल में मीटिंग हुई जानते हैं क्या हुआ रमेश के कुछ बोलने से पहले फिर बोल पड़ी स्कूल में वार्षिक प्रदर्शनी हो रही है।

रमेश –वाह ! अच्छी बात है

कविता –क्या अच्छी बात है ?

सभी विषय का स्टाल लगेगा लेकिन हिंदी का नहीं लगेगा, मानती हूँ अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है लेकिन हिंदी हमारी मातृभाषा है वह हमारे दिल से निकलती है इससे अपनी भावना को व्यक्त किया जा सकता है लेकिन उसे हीं स्थान नहीं ओह ! मुझे बहुत पीड़ा हो रही है।

रमेश –इतना मत सोचो तबियत खराब हो जाएगी कल स्कूल भी तो जाना है।

कविता -मैं नहीं जाऊँगी, वैसे भी हिन्दी पढाने वाले तो [ देशी अंग्रेजों के लिए ]उनलोगों की दृष्टि में अशिक्षित हीं हैं जैसे हमलोगों के पास दिमाग हीं नहीं है।

रमेश –ठीक है मानता हूँ तुम्हारी बात लेकिन मेरी भी बात सुनो उसके बाद तुम्हारा जो फैसला होगा उसमें मैं तुम्हारे साथ हूँ।

कविता –क्या ?

रमेश –देखो कविता यह बहुत पीड़ित करने वाली बात है लेकिन तुम जैसी अपनी भाषा से प्रेम करने वाली अगर अपने कर्म पथ से हट जाएगी फिर क्या होगा।

कविता -क्या होगा ?

रमेश –कहो तो कुछ नहीं, नहीं तो बहुत कुछ।स्कूल को कोई और कविता मिल जाएगी वह अपनी गति में बहता रहेगा लेकिन जरा सोचो अपनी मातृभाषा के लिए लड़ने वाली वीरांगना कैसे चुप हो जाएगी और अगर इस प्रकार सभी अपनी राह से हटते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी मातृभाषा विलुप्त हो जाएगी।मेरी मानो तो तुम्हें अपनी नाम की तरह हर मौसम को अपने में ढालते हुए उसे अपने अनुरूप बनाना पड़ेगा।अब तुम खुद समझदार हो।मैं तुम्हारे साथ सदा खड़ा मिलूँगा।

कविता एकटक रमेश को निहारती रही फिर बिना खाए सो गई लेकिन सुबह एक अलग हीं कविता अपनी लय में बहाने के लिए घर से स्कूल की ओर निकल चुकी थी, रमेश को अपनी पत्नी पर गर्व हो रहा था कि आज इस दौड़ती हुई जिन्दगी में जहाँ सब पैसे कमाने की ओर भाग रहे हैं, वहाँ मेरी कविता अपनी मातृभाषा के लिए नौकरी छोड़ने की बात कही फिर मातृभाषा की मिटने की बात पर वीरांगना की तरह युद्धक्षेत्र की ओर निकल पड़ी रमेश यह सोचते सोचते दफ्तर की ओर निकल पड़ा|  



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