कुंठित

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सुचेता सराफ की आलीशान कार दलित बस्ती के मुहाने पर ही रुक गई। आगे कूड़े करकट के ढेरों के कारण कार का जाना संभव नहीं था। सुचेता ने एक वितृष्णापूर्ण नजर गन्दी बस्ती, खेल रहे नंग धड़ंग बच्चों और दुःख के उस सागर में किसी तरह जीवनयापन कर रहे लोगों पर डाली और ठंडी श्वास लेकर गाड़ी से उतर पड़ी। चिल्ड ए सी कार से निकलते ही गर्म हवा का थपेड़ा उसे मानो झुलसा गया। ओह माय गॉड! कैसे जीते हैं बेचारे! चैनल फाइव इत्र में डूबे रुमाल को नाक से सटाते उसने सोचा और अपनी डिजाइनर साडी को थोड़ा ऊंचा करके बचती बचाती भीतर चल पड़ी। ड्राइवर मोहन ने अपनी पीक कैप उतार कर बगल की सीट पर रख दी और सीट को पीछे की ओर लिटाकर आराम की मुद्रा में आ गया। मैडम की समाजसेवा एकाध घण्टे तो चलेगी, जब तक कई दुखियारियों का कल्याण न कर लें कहाँ लौटेंगी भला! कार का ए सी पूरे वेग से चालू था। लौटने पर कार चिल्ड ही मिलनी चाहिए। 

सुचेता शहर के नामी बिल्डर लेखराज सराफ की धर्मपत्नी थी। कानूनी दृष्टि से उनकी संपत्ति की एकमात्र अधिकारिणी और लौकिक दृष्टि से अर्धांगिनी! पर लेख का प्रेम वह नहीं पा सकी। लेख इतने संपन्न परिवार का इकलौता चिराग होते हुए भी कवि हृदय था। वह कभी सुचेता के उग्र और घमंडी स्वभाव से पटरी न बैठा सका। संतान तो हुई नहीं और अब तो पिछले कई वर्षों से दोनों अलग रहते थे। मुकदमेबाजी चल रही थी। सुचेता कानून की स्नातक थी। यह धनपशु अनपढ़ कभी मेरा जीवनसाथी बनने के योग्य ही नहीं था ऐसा उसका मानना था। वह अपने जीवन की सभी समस्याओं की जड़ लेखराज को मानती थी। अपने जैसी दुखी वंचित महिलाओं की मदद हेतु उसने 'चंडिका' नामक संस्था खोल रखी थी और अत्याचारी पुरुषों को सबक सिखाने के लिए किसी भी हद तक चली जाती थी। आज भी उसे खबर मिली थी कि दलित बस्ती की रमाबाई को उसके पति ने रात पीटा है तो वह तमाम असुविधाएं उठाकर रमा को न्याय दिलाने बिन बुलाए यहाँ चली आई थी।
पतली सी गली के अंतिम छोर पर रमा का दड़बे नुमा घर था। बूढ़े सास ससुर, कई बच्चे और शराबी पति! हे भगवान! कैसे उद्धार हो इन दुखियारियों का? रमा का परिवार इतनी बड़ी हस्ती को आया देख हड़बड़ा सा गया था। रमा का पति विश्वनाथ एक कंपनी में डाई बनाने का काम करता था। वह रमा को दिलोजान से चाहता था पर कल शराब के नशे में पहली बार हाथ उठा बैठा। कल कंपनी में सुपरवाइजर ने किसी बात पर खूब डांटा और काम से निकाल देने की धमकी दी थी। उस घटना से आहत विश्वनाथ अपने दोस्त राजू के साथ दो घूंट लगा बैठा। होली दिवाली पर कभी-कभी रमा की अनुमति से पीने वाला विश्वनाथ जब उस रात अकस्मात पीकर आया तो रमा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने विश्वनाथ की खूब खबर ली। विश्वनाथ ने मामला रफा- दफा करने की खूब कोशिश की पर रमा, सास ससुर की भी दुलारी थी। सबने मिलकर विश्वनाथ की खूब मिट्टी पलीद की और जब रमा ने आवेश में आकर विश्वनाथ की कमीज कॉलर पकड़ कर चीर दी तब मामला रमा के गालों पर चार उँगलियों के निशान तक जा पहुंचा। विश्वनाथ बाद में बहुत पछताया और उसने रमा के पाँव पकड़कर माफ़ी भी मांगी लेकिन जीवन में पहली बार तमाचा खाकर रमा ऐसी रूठी कि मामला पड़ोसियों से होता हुआ 'चंडिका' तक जा पहुंचा। फलस्वरूप सुचेता हाजिर थी।
मेरा बेटा सीधा है बाई! विश्वनाथ की बूढी माँ की आँखे आशंका से काँप रही थीं, और आवाज ममता में भीगी हुई थी, कल उसने ऐसा काम पहली बार किया है उसको माफ़ कर दो बाई!
उस भोली अनपढ़ को लग रहा था कि सुचेता कोई सरकारी नुमाइंदा है जो विश्वनाथ को सजा देने आई है।
विश्वनाथ भी सिर झुकाए बैठा था। पश्चाताप उसके अंग-अंग से छलक रहा था। सुचेता को यह स्थिति पसन्द थी। अत्याचारियों को वह सदा ऐसे ही दीन देखना चाहती थी। एक दिन लेखराज को भी उसकी औकात दिखा कर रहूँगी, उसने दांत पीसते हुए सोचा।
देखो अम्मा! तुम्हारे लड़के ने अपनी बीवी पर हाथ उठाया है इसकी सजा छह महीने की जेल है। औरत कमजोर है इसका मतलब ये नहीं कि आदमी जब चाहे तब मार बैठे।अगर रमाबाई कंप्लेंट करेगी तो इसे जेल जाना ही पड़ेगा!
विश्वनाथ के चेहरे पर ढेर सारा पसीना उमड़ आया। उसके दोनों छोटे बच्चे दरवाजे के पीछे दुबके सुबक रहे थे। बाहर खटिया पर बैठा रमा का ससुर कुछ बड़बड़ा रहा था। रमा ने कल से घर का कोई काम नहीं किया था और विश्वनाथ से बोली नहीं थी पर वह एक गृहणी थी और अतिथि के आने पर अपने गृहणी धर्म का पालन करते हुए उसने एक स्टील की तश्तरी पर रखा हुआ चाय का मैला सा कप सुचेता की ओर बढ़ाया। उसे देखकर ही सुचेता को उबकाई आने लगी। उसने मुंह बनाते हुए तुरन्त मना कर दिया। वह यहाँ आतिथ्य सत्कार करवाने नहीं आयी थी।
देखो रमाबाई! वह दांत पीसती सी बोली, ये मर्द लोगों का नाटक बहुत बढ़ गया है तुम अगर आज चुप रही तो हमेशा मार खाओगी! चलोे मेरे साथ पुलिस स्टेशन! इसको मजा चखा देते हैं।
रमा के बच्चे अब जोर जोर से रोने लगे। विश्वनाथ की बूढी माँ अपना आँचल फैलाये कुछ बुदबुदाने लगी। वह मराठी भाषा में न जाने क्या बोल रही थी पर उसकी मुद्रा से साफ़ था कि दया की याचना कर रही है।
सुचेता के चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो चील के पंजे में खरगोश आ गया हो। बाजी उसके पक्ष में थी। उसे विश्वनाथ के झुके और लज्जित चेहरे में लेखराज का चेहरा नजर आने लगा। गुस्से से उसकी आँखें लाल हो गईं।
कुत्ता! वह बुदबुदाई, कैसा नाटक कर रहा है!! वह झटके से खड़ी होकर बोली, रमाबाई! मेरे पास ज्यादा टाइम नहीं है, जल्दी चलो, पुलिस स्टेशन से फिर मुझे कोर्ट जाना है।
रमा दसवीं पास थी। सुचेता के इतिहास भूगोल से भी वाकिफ थी। वह सिर पर पल्लू लिए दृढ़ता पूर्वक सुचेता के सामने आई और बोली, बाई! मैंने तुमको नई बुलाया। मेरे घर का मामला मैं खुद देख लेगी। बाहर वाले की ज़रूरत नई।
अरे! सुचेता के भीतर आश्चर्य और क्रोध फूट पड़ा, तुम पागल हो क्या? ये कुत्ता तुम्हे पीटता है और तुम ऐसे बोल रही हो?
ओ बाई! अब रमा का स्वाभिमान भी जाग गया, और वह तेज आवाज में बोली, मेरे आदमी को गाली देने वाली तुम कौन? कल गुस्से में हाथ उठ गया होगा मेरे मरद का, लेकिन मेरे को सिर पे बिठा के रखता है। कभी मेरा सिर भी दुखा तो पागल हो जाता है। तुम अपना कायदा कानून लेकर निकलो बाबा! मेरे घर में आग मत लगाओ।
कई अड़ोसी पड़ोसी मुफ्त का तमाशा देखने जुटे हुए थे। सबके सामने सुचेता का मुंह ऐसा हो गया मानो जूते पड़ गए हों। रमा की सास हाथ उठाकर बहू को असीसने लगी। सुचेता सिटपिटाकर बाहर निकली और बड़बड़ाती हुई चल पड़ी। उसने मुड़कर देखा तो रमा और विश्वनाथ एक दूसरे को बाहों में लिए फूट-फूट कर रो रहे थे।


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