कथा बालक ध्रुव की
कथा बालक ध्रुव की
कहा गया कि शिशु की प्रथम गुरु माता है। जो संस्कार बालक को बचपन में मिलते हैं वही उसके आगे के जीवन की आधार शिला बनते हैं। बालक का सर्वांगीण सुसंस्कारित विकास होने पर मानवमात्र सुसंस्कारित हो जायेगा ; क्योंकि वह परिवार, समाज, देश और विश्व की एक इकाई के रूप में है और उसका भावी निर्माता है। बाल्यावस्था में शारीरिक और बौद्धिक विकास की क्षमता अधिक रहती है। उस समय जो संस्कार पड़ जाते हैं वे अमिट होते हैं।
एक बालक ध्रुव की कथा आती है। बहुत समय पहिले स्वायम्भुव मनु हुए थे। उनके महारानी शतरूपा से दो पुत्र थे- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुरुचि और सुनीति दो पत्नियॉं थीं। उनमें से महारानी सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था।
एक दिन राजा उत्तानपाद की गोद में कुमार उत्तम बैठा हुआ था, तभी कुमार ध्रुव ने भी अपने पिता के अंक में बैठने की इच्छा की। इस पर महारानी सुरुचि ने ईर्ष्यापूर्वक ध्रुव को डॉंटते हुए कहा-“ तुम मेरे बेटे नहीं हो। यदि तुम्हें पिता की गोद में बैठना है तो तुम्हें नारायण की उपासना कर मेरी कुक्षि से जन्म लेना पड़ेगा।” और उन्होंने उसे पिता की गोद से उतार दिया।
अपनी विमाता के वचनों को सुनकर कुमार ध्रुव रोते हुए अपनी माता के पास गये और उन्हें सारी बातें कह सुनायी। उनकी बात सुनकर सुनीति ने कहा-“ महारानी सुरुचि ने ठीक ही कहा है। तुम द्वेषभावना का त्यागकर भगवान् नारायण की उपासना करो। उनकी आराधना से श्रेष्ठ पद प्राप्त होता है। अतः तुम्हें भी श्रीहरि का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। “
माता सुनीति के श्रेष्ठ और हितकारी वचनों को सुनकर ध्रुव जी तपस्या हेतु नगर से बाहर निकल पड़े।
इधर देवर्षि नारद ध्रुव जी के पास जाकर उनकी परीक्षा लेने हेतु बोले-“वत्स ! तुम्हारी पॉंच वर्ष की उम्र अभी तपस्या करने लायक़ नहीं है। बड़े होने पर परमार्थ की सिद्धि हेतु तप करना। मनुष्य को सुख- दुःख जो भी प्राप्त हो, विधाता का विधान समझकर संतुष्ट रहना चाहिये। ऐसा करने पर वह इस मोहग्रस्त संसार से शीघ्र पार हो जाता है। “
यह सुनकर ध्रुव जी बोले-“ मैं क्षत्रिय हूँ, किसी से कुछ माँगना मेरा स्वभाव नहीं है। मेरी विमाता ने अपने कटु वचनों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया है। मैं अब उस पद को पाना चाहता हूँ, जो त्रैलोक्य में सबसे श्रेष्ठ है। “
उनका यह दृढ़ विचार जानकर देवर्षि नारद ने प्रसन्न हो उन्हें “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय “ - यह द्वादाक्षर- मन्त्र प्रदान किया। “
यह सदुपदेश पाकर ध्रुव जी ने पवित्र तपस्थली मधुवन जाकर यमुना जी में स्नान किया और एकाग्र चित्त होकर नारद जी के दिये हुए मन्त्र का जाप कर श्रीनारायण की उपासना प्रारम्भ की। उन्होंने छह मास तक कठोर तपस्या की। शुरु में केवल केवल कैथ व बेर, फिर सूखे पत्ते, फिर जल , फिर केवल वायु ग्रहण की। उनके प्राण संकट में पड़ गये। भगवान् वासुदेव में ध्रुव का चित्त एकाग्र हो गया। देवताओं ने भगवान् के पास जाकर ध्रुव को तप से निवृत्त कराने की प्रार्थना की।
ध्रुव भगवान् के ध्यान में लीन थे। अचानक उनके हृदय की ज्योति अन्तर्हित हो गई । उन्होंने घबराकर ऑंखें खोलीं तो भगवान् उनके सामने खड़े थे। ध्रुव अज्ञानी बालक थे। उन्होंने हाथ जोड़कर स्तुति करनी चाही, पर वाणी ने साथ नहीं दिया। भगवान् ने ध्रुव के कपोलों से अपने शंख का स्पर्श करा दिया, और बालक ध्रुव के मानस में सरस्वती जाग्रत हो गई। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान् की भावभीनी स्तुति की। भगवान् ने उन्हें उच्चतम पद प्राप्त करने का वरदान दिया।और घर लौटने को कहा।
घर लौटने पर उनके पिता महाराज उत्तानपाद ने उनका अभूतपूर्व स्वागत किया। बाद में उनका राज्याभिषेक किया। ध्रुव जी ने अनेक वर्षों तक पृथ्वी का धर्मपूर्वक शासन किया और बाद में सदेह ही भगवान् नारायण के परम धाम के प्राप्त किया ।इसी के बाद बालक ध्रुव की याद में सर्वाधिक चमकनेवाले वाले तारे का नाम ध्रुवतारा दिया गया।
ध्रुव की माता सुनीति ने उन्हें अच्छे संस्कार दिये थे। जिसका बालक ध्रुव पर प्रभाव पडा़ और उन्होंने द्वेष त्याग अपने लक्ष्य में सिद्धि प्राप्त की। आज भी दृढ़ संकल्प के लिये बालक ध्रुव का नाम लिया जाता है।
