कोरा कागज़ नहीं
कोरा कागज़ नहीं
"सुनिधि सक्सेना "
श्वेत नेमप्लेट पर काले अक्षरों में अंकित।
आज जिलाधीश सुनिधि सक्सेना के पास शोहरत और दौलत की कमी नहीं।
अचकचाते हुए कदम रख तो दिया उसने मगर..... मगर सामना करना.....
दिल मानों ज़मीन में धंसा जा रहा था।
कलेक्टर साहिबा का तो प्यून भी चुस्त-दुरुस्त। प्यून को अपने नाम की पर्ची थमाई अप्वाइंटमेंट हेतु । वह अंदर से वापस आकर पुनः अपने स्टूल पर जा चिपका।
पता नहीं कब आवाज़ दी जाए......
या शायद नाम देखकर बुलाया ही न जाए.....
ऊहापोह में ही था कि अंदर से बैल बजी। चपरासी अन्दर से आते ही बोला - "अमन अम्बष्ट जी को मैडम बुला रही हैं "
वह प्रविष्ट हुआ। सुनिधि किसी फाइल में व्यस्त थीं।
"जी नमस्कार...."
दोनों हाथ जोड़ दिए उसने कुछ सिर नवाते हुए।
"हूं....."
बिना ऊपर सिर उठाए मैडम का प्रत्युत्तर।
फिर वैसे अनदेखे ही हाथ का इशारा कर बोलीं - "बैठिए "
कुछ देर की चुप्पी।
उसका मन बैठा जा रहा था।
अंततः फाइल निपटी और मैडम उसकी ओर मुखातिब - "कहिए क्या मदद कर सकती हूँ आपकी"
"जी! वो बद्रीनारायण के खेतों के पीछे वाली ज़मीन अपनी है"
"अपनी" नहीं "आपकी "
सुनिधि ने आँखें तरेर कर उंगली दिखाई।
"कलेक्टर के चैम्बर में बैठे हो इस बात का ध्यान रहे" अमन को सख्त शब्दों में हिदायत दे डाली।
"जी"
"हाँ ! तो.... "
" जी उस ज़मीन का नियमितीकरण होना है। मैंने सोचा कि आप हैं तो यह काम हो." .......... बाकी शब्द जैसे हल्का में अटक - से गये अमन के।
"क्यूँ.....? "
"हम रिश्तेदार हैं आपके .....? "
अमन ने सिर झुका लिया।
कुछ पलों की चुप्पी....
"आपका काम हो जाएगा। यहाँ आम जनता के काम में कोई ढील-ढाल नहीं होती। फाइल संबंधित विभाग में दे दीजिए।"
"और हाँ!"
"ध्यान रहे! आगे से यहाँ का काम पड़े तो कलेक्टर के चैम्बर में बैठने की तमीज़ सीखकर आना।"
सुनिधि ने बिना अमन की ओर देखे यह सीख दे भी डाली।
अमन को तो जैसे चक्कर-सा आ गया।
अपमान और पसीने में सराबोर अमन धम्म से बाहर रखी कुर्सी पर गिर सा गया।
क्या यह वही सुनिधि है फूलों-सी कोमल, खूबसूरत और मासूम जिसे अपनाने से पहले ही ठुकरा चुका था वो। अब पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत, खुद्दार, सुदृढ़। आसमानी साड़ी में खिलता अत्यन्त खूबसूरत व रौबीला सुंदर व्यक्तित्व
मानों अप्सराओं को मात दे रहा था। साक्षात् मोनालिसा। तभी तो वह अवाक, निश्चेष्ट-सा देखता रह गया था ।
और सुनिधि क्या सुनिधि की आँखें आज फिर वही बदनुमा स्वप्न देख रही हैं।
"नहीं !"
"वह कोई कोरा कागज़ नहीं जिस पर जो चाहे अपना नाम लिख दे।"
सुन्दर, सुसंस्कृत और गौरवर्णी सुनिधि। विवाह को दो महीने ही हुए थे। पति अमन अम्बष्ट सुदर्शन व आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी अच्छे परिवार से था। ऊंचे पद पर कार्यरत था। सुनिधि के मम्मी-पापा इन सब बातों से आकृष्ट हुए व देखने- दिखाने की औपचारिकता पूरी कर लड़का पसंद कर लिया। लड़के वालों यानि अम्बष्ट साहब की तरफ से भी अविलम्ब हाँ कर दी गयी । लड़के वालों ने शादी शीघ्र करने हेतु दबाव डालना शुरू कर दिया कि बेटा विदेश जाने वाला है अतः हमें जल्दी है। सुनिधि के माता-पिता तो अमन के पद, रंग-रूप, वैभव से अति प्रभावित थे अतः आनन- फानन में शादी की तारीख भी तय हो गयी।
माता-पिता की इकलौती लाड़ो सुनिधि का विवाह खूब धूमधाम से सम्पन्न हुआ। शादी में कोई कसर नहीं रखी गई। लड़के वाले भी बहुत खुश। सुन्दर, सुशिक्षित लड़की के साथ भरपूर दहेज। और क्या चाहिए ?
बिटिया का पहला पगफेरा शादी के दूसरे दिन ही कुछ घंटों के लिए हो गया। अमन आ कर उसे विदा कराकर ले गया।
"सुनिधि का फोन आया क्या?"पिता ने आफिस से आते ही पत्नी से पूछा।
"नहीं जी। "वह बोली।
"लगता है ससुराल में बहुत खुश है बिटिया। चलो अच्छी बात है कि वह वहां इतनी जल्दी घुल-मिल गयी "पिता बोले।
"हूँ..... "माँ के चेहरे पर कुछ चिन्ता सी दिखी। माँ तो आखिर माँ होती है।
चाय की ट्रे टेबल पर रख कर पानी का गिलास पति को पकड़ाते हुए बोलीं-
" कल मैंने फोन ट्राई किया था तो सास ने उठाया, बोली "सो रही है बच्ची अभी।" मैंने ताज्जुब किया कि" यहाँ तो बड़ी पंक्चुअल थी सुबह उठने में।"
वे बोलीं-" कोई बात नहीं समधन जी। अभी बच्ची है, अल्हड़ है, सीख जाएगी धीरे-धीरे। "
पिता हंसे-" तो भई माँ से भी ज्यादा लाड़ पा रही है सासू माँ का। "
माँ बोली -" हाँ जी! डेढ़ माह हो गया जब फोन करूं, सास ही उठाती है कहती हैं-"बहन जी बड़ा बचपना है बहूरानी में।कहती है, मम्मी आप ही रखिए फोन"
कैसी हो गयी है लड़की। हमारी याद नहीं आती क्या ?" माँ के माथे पर चिंता का पसीना साफ दिखाई दे रहा था।
मगर किसी भी आशंका से अनभिज्ञ पिता बोले - " एक दिन आफिस से फोन किया था मैंने तो बोली पापा मैं कहीं जा रही हूँ मम्मी के साथ। बाद में बात कर लूंगी न"
" पीछे से सास की आवाज़ आ रही थी जैसे कुछ कह रही हो"
दोनों बात कर ही रहे थे कि अचानक आॅटो रुकने की आवाज़ आई। चौंक कर पीछे देखा तो दोनों हतप्रभ!
यह क्या ?
सुनिधि रोती हुई खड़ी थी।
दौड़ कर पापा के गले लगकर सुबक पड़ी।
" पापा अमन एक शादी कर चुका था और वह लड़की सवि भी विदेश में ही है। वह उसी के पास जा रहा है। यह शादी लोक दिखावा मात्र था। मैं तो उसके साथ एक दिन भी पत्नी की तरह नहीं रही।"
माँ तो जैसे उसे इस हाल में देख पागल-सी हो गयीं। हिचकियाँ लेती बिटिया को
खींच कर सीने से लिपटा लिया और लगीं आँचल से
अँखियों के मोती समेटने।
दोनों ने उसे सहारा दकर बिठाया। माँ पानी लेकर आईं। कुछ देर दिलासा मिलने पर उसके आँसू थमे तो मुंह-हाथ धोकर माँ-पापा को सारी आपबीती सुनाई बच्ची ने।
" माँ मेरा पूरा दिन तो उस घर के कामकाज को समर्पित था और रातें अकेली रो-रो कर काटते निकल रही थीं। मैं आप सभी की चिन्ता व लोकलाज की खातिर सब सहकर ज़िन्दगी काटने का निर्णय ले चुकी थी कि एक शाम ग़ज़ब ही हो गया।
मेरे सगे चचिया ससुर मुझे रोज़ाना अजीब नज़रों घूरा करते थे परन्तु मैं किससे कहती। अमन मुझसे बात करना तो दूर वो मेरी तरफ देखता भी न था । चाचा अविवाहित और बेरोजगार घर में ही पड़े रहते हैं। वे अमन से कह रहे थे-"तेरी बहू तो अकेली ही पड़ी है तू कहे तो मैं ......."
"हाँ हाँ चाचा नेकी और पूछ-पूछ। पूछना क्या। धो ही डालो बहती नदिया में हाथ। मुझे तो वह वैसे भी पसंद ही नहीं। आप तो जानते ही हो मैं सवि को चाहता..... "
"चाचा आप तो जब चाहो बेझिझक...... "अमन बोले।
"हा हा हा हा..." दोनों का समवेत स्वर।
मैं छत से सूखे कपड़े उतार रही थी और वे दोनों नीचे आँगन में बतिया रहे थे। मैंने जाली में से सब सुन लिया।
"माँ...... "
सिसकती सुनिधि बोली।
" उन दोनों के बीच हुई वार्ता ने मेरे रौंगटे खड़े कर दिए।"
फिर मैंने मन ही मन सोच लिया कि मुझे अविलम्ब इस नर्क से मुक्ति पाने के लिए क्या करना चाहिए।"
बेटी के दारुण दुख से माँ का हृदय जैसे फटा जा रहा था।
" रोइए मत माँ ! अब मैं आपके पास हूँ। अब कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता मेरा। "
सुनिधि माँ के आंसू हथेलियों से पोंछते हुए बोली।
" संयोग से उस रात चाचा को किसी आवश्यक कार्य से ससुर जी ने अचानक शहर से बाहर भेजा। यह मेरे लिए फायदे वाली बात रही।"
"दूसरे दिन लगभग दिन के 11 बजे थे। अमन आॅफिस गये और ससुर जी दोस्त के घर। चाचा जी सासू माँ को कह कर आधे घंटे के लिए मार्केट के लिए गए। सासू जी स्नान का कहकर बाथरूम में घुस गयीं। उन्हें
नहाने में करीब आधा घंटा समय लगता है। सो मैं निश्चिंत हो अपने पहले से तैयार अभियान में जुट गयी। अटैची व पर्स तैयार ही था। मैंने तुरंत कैब बुलाई। पिकअप प्लेस घर से थोड़ा दूर रखा।फोन साइलेंट मोड पर रखा।"
"कैब वाले का फोन आते ही मैं दबे पांव अटैची सहित निकली व यहाँ आ गयी।"
बेटी फफक रही थी और माँ सोच रही थी-
इतना कुछ करने पर और उन लोगों का पूरा घर भरने लायक दहेज देने पर भी आज मेरी बेटी यह दिन देख रही है।
" उन लोगों ने क्या तुझे वह कोरा कागज समझ लिया जिस पर जिसने चाहा अपना नाम लिख डाला।" माँ बिफर पड़ीं।
वे इतना कह रहीं थीं कि सुनिधि के पापा का मोबाइल बज उठा----
"हैलो ! वाह सक्सेना सा.! ये ही संस्कार दिये थे तुमने बेटी को। सारे घर के मुंह पर कालिख पोत कर भाग गयी न जाने किसके साथ। छि! छि ! खूब नाक कटाई
हमारी। अब जाओ! जाकर ढूंढो सारी दुनिया में। हम तो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने जा रहे हैं। "
"ठहरिए जनाब! आप तकलीफ न करें। रिपोर्ट तो हमने फोन पर ही दर्ज करवा दी है शहर के महिला थाने में और आप कहीं न जाइए क्यों कि वे आप सबों की खातिर दारी के लिए आपके घर चंद मिनटों में बस पहुंच ही रहे हैं।"
खैर। बात पुलिस व कोर्ट तक पहुंच गई और अम्बष्ट जी के घर बर्बादी का मातम सा छा गया।
सक्सेना सा. का परिवार सुसभ्य था विशेषकर सुनिधि सुसंस्कृत व शालीन थी। अतः अम्बष्ट परिवार की फजीहत न हो इसलिए उसने अपनी ओर से अर्जी लगाकर तलाक ले लिया व कुछ हर्जाना नहीं मांगा।
फैसले वाले दिन सुनिधि मम्मी-पापा कोर्ट में ही थे।
फैसले के बाद दोनों बहुत दुखी हुए। माँ तो बिटिया को गले लगाकर रो पड़ीं थीं।
उस दिन माँ ने कहा कि -
कहते हैं न कि "नारी कभी न हारी। "
अपने अंदर की शक्ति को जागृत करने पर ही तेरे सारे काज सफल होंगे।
माता - पिता की प्रेरणा व हौसले के बल पर सुनिधि उत्तरोत्तर उन्नति के सोपान चढ़ती गई और एक दिन आई ए एस अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर आज जिला कलेक्टर के सर्वोच्च पद पर कार्यरत है।
अपनी बीती ज़िन्दगी को एक दुस्वप्न समझ कर भुला चुकी सुनिधि आज एकाएक अमन के सम्मुख आ जाने से विचलित तो हुई मगर पल भर में ही स्वयं को संभाल लिया। आखिरकार पूरे जिले के प्रशासन की बागडोर जो संभाल रखी है उसने।