कोकिला
कोकिला


फोन की घंटी सुन द्रूवा ने फोन उठाया तो उसके बेटे शिवम् ने बोला माँ आपको सर्वश्रेष्ठ संगीतकार की उपाधि से सम्मानित करने के लिय निमंत्रण पत्र आया है।
बेटे की बात सुन द्रुवा की आंखों में आंसू झलक आए। बेटे की बधाई के प्रतिउत्तर में मीठी सी हंसी के साथ धन्यवाद! बोल द्रुवा ने फोन रख दिया। कमरे में ही उसने अपनी माता शकुन्तला देवी और पिता नर्मदेश्वेर शास्त्री की बड़ी सी तस्वीर टांग रखी थी। द्रुवा इस तस्वीर के सामने दोनों हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम करने को नतमस्तक हो गई।
मन ही मन द्रुवा अपने माँ बाबा से बाते कर रही थी, मुझे पता है आप दोनों का आशीष आज भी मेरे साथ है। बाबा, आज आपका सपना पूरा हो गया, आपकी द्रुवा! आपकी कोकिला! को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार की उपाधि मिलने वाली है! द्रुवा की आँखों से ख़ुशी के आंसू बांध तोड़ कर बह चले थे,सहारे के लिए वो पास ही रखे सोफे पर बैठ गई।
ना जाने कितनी लड़ाईयां लड़ी थी उसके पिता ने उसके लिए। अपने माता पिता की इकलौती संतानी थी द्रुवा। शादी के 12 सालों बाद उन्हें संतान का सुख प्राप्त हुआ था। नर्मदेश्वर जी और शकुन्तला जी की तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। ईश्वर से मांगी उनकी मुराद पुरी जो हो गई थी।
बस संतान ही तो माँगा था उन दोनों ने। उनके लिए तो बेटे और बेटी में कोई भेद नहीं था। हाँ मगर बधाई देने आने वाले दबे छुपे शब्दों में उन्हें जरुर सुना जाते।
इतने वर्षो बाद संतान भी हुई तो बेटी, ऊपर से काला रंग। माँ बाप तो दोनों कितने गोर-चिट्टे है। हाय ये काली कैसे पैदा हो गई इनके घर में। जरुर पूजा में कही त्रुटी हो गई होगी इनसे। जितने मुह उतनी बातें।
शास्त्री जी ने ना किसी की कही बात दिल से लगाई। न कोई प्रतिक्रिया दी उन्हें। वो तो बस अपनी बेटी के लिय वात्सल्य से अभिभूत अपनी ही दुनिया में मग्न थे। थोड़े दिनों बाद जब शकुन्तला जी ने बेटी का नामकरण करने को बोला। तो शास्त्री जी ने बड़े प्यार से उसका नाम द्रुवा रखा था। ख़ुशी से चमकती आँखों के साथ शास्त्री जी सबको बत
ाते थे, हमारे गणपति बाप्पा को सबसे प्रिय है द्रुवा।
धीरे धीरे जब द्रुवा बड़ी होने लगी तो लोगो के ताने उसके मन को कुंठित कर जाते थे। माता-पिता को उसके मनोभावों का अहसास था। पर वो लोगो का मुह तो नहीं बंद करवा सकते थे ना। हाँ शास्त्री जी द्रुवा को अपने पास बिठा, उसके सर पर हाथ फेरते हुए समझाया करते थे। बेटा रूप की सुन्दरता तो छनिक होती है। इन्सान की असली पहचान तो उसके गुणों से होती है। मेरी बेटी तो गुणों की खान है आज जो तेरे रूप का मजाक उड़ाते है न यही कल तेरे गुणों की चर्चा करेंगे।
गणपति बाप्पा के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जब वो, द्रुवा की माला अपने अराध्य को समर्पित करती थी। फिर से आत्मविश्वास से भर उठती थी। एक दिन भक्ति भाव से आत्मविभोर हो द्रुवा भजन गाने में लीन थी।. शास्त्री जी द्रुवा की आवाज सुन अभिभूत हो उठे। भजन ख़त्म होने पर जब आशीष लेने को द्रुवा ने पिता को प्रणाम किया। तब उसके सर पर अपना हाथ रख शास्त्री जी ने कहा। स्वरकोकिला है उनकी बेटी। द्रुवा के कंठ में जादू है। आज से ही द्रुवा को शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी उनकी। बस उसी वक्त से द्रुवा को एक और नाम मिल गया था कोकिला।
द्रुवा की मेहनत और लग्न से कुछ ही दिनों में उसके स्वर की चर्चा होने लगी थी। द्रुवा ने अपने पिता के विश्वास को पूरा किया था। अब उसके काले रंग की नहीं कोयल सी उसके आवाज की चर्चाएँ होती थी।
द्रुवा अभी भी अपने खयालों में खोई थी तभी दरवाजे की घंटी बजी। उसने दरवाजा खोला तो सामने शिवम् हाथ में मिठाई का डब्बा लिए खड़ा था। डब्बे से मिठाई का एक बड़ा सा टुकड़ा निकल कर उसने माँ के मुह में खिला दिया।
दूसरे दिन जब दूर्वा, नियत स्थान पर गई, तो तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपने गुणों के कारण मिलने वाले सम्मान को ग्रहण करते हुए, द्रुवा को अपने पिता की कही बात और उसकी सार्थकता प्रमाणित होती दिख रही थी।
व्यक्ति की पहचान तो उसके गुणों से होती है|