किताब
किताब


"माँ आज मुझे बैंक के काम से दिल्ली जाना है। मुझे-आते आते रात हो जाएगी शायद। अपने शहर में किताबे उतनी मिलती नही है तो इसलिए मैं वहां थोड़ा साहित्यक किताबें लेने भी जाऊंगा इसलिए और देर हो सकती है।" विवेक बैंक के लिए निकलते निकलते अपनी मां से बोला।
विवेक सरकारी बैंक में काम करता है। तो ऐसे तो उसके पास समय की बहुत कमी रहती है, लेकिन उसको पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है और ऐसे ही उसकी एक सोशल साइट पर दोस्ती एक लेखिका तन्वी जी से हो गई है। उम्र में तो उससे सीनियर है विवेक जब भी कभी लिखता है तो तन्वी जी को भेज देता है कई बार वह कहती है कि तुम्हारे अंदर बहुत टैलेंट है तुम अच्छा लिख सकते हो।
टाइम की कमी कहे या कुछ भी उसका लिखना सिर्फ उसके फेसबुक पेज और तन्वी जी तक ही सीमित है। आज उसने सोचा कि वह दिल्ली से जरूर तन्वी जी के लिए कोई अच्छी सी साहित्य किताब खरीदेगा फिर उनको भेजेगा।
दिन भर काम की आपाधापी के बाद उसको शाम को सात बजे के बाद फुर्सत मिली, सुबह से ही मीटिंग और ज्यादा काम होने की वजह से कुछ खाने को भी ढंग से नहीं मिला था, इसलिए वो निकल पड़ा दिल्ली की गलियों में कुछ टेस्टी खाने और उसके बाद तो किताब की दुकान पर जाना ही है।
यूनिवर्सल बुक स्टोर पर पहुंचते ही वह सबसे पहले हिंदी के सेक्शन में गया सामने तन्वी जी का संग्रह रखा था देखते ही खुशी से उछल पड़ा तुरंत फोन निकाला कि फोन करता हूं कि आपका संग्रह मैंने देख लिया, आपने तो मुझे बताया भी नहीं सरप्राइस देना चाहती थी क्या? फिर बिना कुछ कहे किताब हाथ में उठाकर सोचने लगा कि मैं ही उनकी किताब उनको एक गिफ्ट भेजता हूं।
पहला ही पन्ना पलटा तो तन्वी जी का फोटो और थोड़ा बहुत उनके बारे में परिचय लिखा था उसको देख कर बहुत अच्छा लगा कहानियों की तरफ बढ़ा पहली कहानी की दो तीन लाइन पढ़ते ही उसको बड़ा अजीब सा लगा फिर दूसरी फिर तीसरी धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया उसके हाथ कांप रहे है, दिल जोरो से धड़क रहा है लग रहा है, लग रहा था चक्कर ही आ जायेगा।
"हे भगवान! यह तो सारी मेरी रचनाएं हैं बस थोड़ा सा संपादन और नाम तन्वी जी ने अपना लिख लिया है। किताब भी छाप गई मुझे भनक भी नहीं लगने दी ।" विवेक मन ही मन बुदबुदाता और ठगा हुआ महसूस करते हुए बुक स्टोर से बाहर निकल आया।