खवाबों की उड़ान
खवाबों की उड़ान
बड़े दिनों बाद दिल का एक दराज़ खोला है,
जीसे बन्द मेने सालों पहले ही कर दिया था।
उनमें खवाबों को अपने बेड़ीयों से बान्ध कर रखा था, पंख होते हैं ना उनके, उड़ जाने का डर होता है। पर आज सालों बाद फिर उन खवाबों की बोली मेरे कानों में गूंज रही है। कहे रही हैं, "अब तो हमें आजाद करो, अब तो हमें उड़ने दो।" मैं क्या करूँ? कभी उम्र का खयाल आता है, तो कभी समाज का। अक्सर जो दिशा से विपरीत चलते हैं, समाज को जरा वक्त लगता है उन्हे अपनाने में। मेरी बेटी कहती है, "माँ अपने सपनों को जीने का कोई सही वक्त नहीं होता। " बच्चों का क्या है ! वो तो कुछ भी कहते हैं। उन ख्वाईशों कि चौखट से फिर लोट आई मैं, और रोटीयाँ बनाने लगी, रात होने चली थी, ये किसी भी वक्त बाजार से आते ही होंगे।
आंटे की गोलि बनती रही, रोटीयां सिकती रही। रहे रहे कर बस खयाल आते जाते थे, कुछ बीते हुए दिनों के, कुछ उन सपनों के जो कभी पूरे ना हो सके। एसा नहीं था कि मैं ख़ुश नहीं थी, जीन्दगी के उतार चढ़ाव के बावजूद, काफी अच्छे से हैं मैं और स्मिता के पापा। स्मिता हमारी एक लौति बेटी है, वकालत करती है बम्बई में, अपने पति और दो बेटियों के साथ रहती है। बेटी सुखी है, उसका हम दोनों पति पत्नी को बडा सन्तोष है। स्मिता जब होने वाली थी, तब से लिखना छोड़ दिया था मेने। वक्त ही नहीं होता था। जब इनके यहाँ ब्याह के आई थी, इक्कीस साल की थी। घर सम्भालने के चक्कर में कभी अपने ख्यालों को शब्दों में बुनने का वक्त ही नहीं मिला।
अभी पिछले महीने बेटी और पौतीयाँ घर आई थी, गरमी की छुट्टियों में। सब बेठ कर पुराने अल्बम देख रहे थे। हसी, ऊलास, किस्से कहानीयों से घर भर उठा था। तभी उन अलबम के गुच्छों के सबसे नीचे से एक डायरी मिली। बड़ी पूरानी, धूल से लथपथ, फटे चिथड़े पन्नों वाली , मुझे कुछ जानी पहचानी सी लगी। अच्छे से देखा तो पता चला, वह मेरी डायरी थी। मेरी डायरी जिसे मैं माईके से अपनी सबसे बड़ी सम्पत्ति की तरह लाई थी। पर वक्त की बाड़ में कहीं गुम हो गई थी वो धरोहर मेरी। उसे देख कर मेरे आखों में पानी आ गया, दिल में सैलाव सा उठा। बेटी के हाथों से उसे लेकर अपने गोदी में रखा , एसा लगा मानो किसी
ने मेरा खोया हुआ सन्तान मुझे लौटा दिया हो। सब पूछते रहे उसके बारे में, पर मैं कुछ बोल ही नहीं पाई। बेटी ने उसको मेरे गोदी से लिया और खोलने लगीं, पहले पन्ने में नाम था मेरा 'सूरभी बर्मा'। पन्ने दर पन्ने पलटती रही स्मिता, और मेरे आखों से मेरे जज़्बात बहे रहे थे। बेटी की आँखे भी नम हो गई, उसने झट से आकर मुझे गले से लगा लिया। जबतक हम माँ बेटी का रोना खत्म हुआ, मेरे पति उस डायरी के कुछ पन्ने पढ चुके थे। उन्हे पता था मुझे लिखने का सोक था, पर उनहोंने मुझे कभी लिखते हूए देखा ही नहीं। आज उनके पास शब्द नहीं था, पर उनकी आँखे चिख चीख कर बस यही पूछ रही थी, "क्यू सूरभी, क्यू ? " क्या कहती मैं, किसी ने मुझे कभी रोका नहीं, ना ही टोका है। वो फैसला मेरा था, मेरा खुद का।
घटीं बजी घर की, और मैं मेरे ख्यालों के समन्दर से उभर आई। स्मिता के पापा थे। "आज बड़ी ड़ेर कर दी आपने आने में, बाज़ार में बहुत भिड़ था कया ?" "हाँ भीड़ काफी था आज, एक ग्लास पानी पिला दो। " "अभी लाई, आप बैठीए।" पंखा चला कर, थैली उनके हाथों से ले कर, अन्दर चली गई मैं। पानी का ग्लास जब ले कर आई तो देखा, टेबल पर कुछ रखा हूआ है, सुन्दर जरी वाली पेपर ओढ़ कर। मेने इन्हे पानी का ग्लास दे कर पूछा, "अजी, क्या है ये ? " वो मुसकुराते हूए बोले, "खोल के तो देखो।" मैं झटपट उसे खोलने लगीं। बावन ब्रश की होने के बाद भी मेरे मन में उत्साह कम नहीं था। खोल कर देखा तो ... एक... एक नई... डायरी थी। मेरी आंखे भर आई। मेने उनसे पूछा, " जी ये ... " मेरी बात काट कर वो बोले " सूरभी तुमने सालों पहले लिखना छोड़ा था। ये कहे नहीं सकता की दोष तुम्हारा था या हालात का, पर अब अगर तुम जिन्दगी के ईस दूसरे मौके को ग्वार दोगी तो तुमसे बड़ा अभागा कोई नहीं होगा। जीन्दगी दुसरा मौका सभी को नहीं देती। वो ख़ुशनसीब हैं जिन्हे जीन्दगी अपने सपनों को जिने का दुसरा मौका देती है, ये लो कलम, और अपने खवाबों को ईन पन्नों पर उड़ने दो। "ईतने मैं मेरे आँखों से धाराएं बहे चूके थे, पर मैंने अपने आँसुओं को पोछ कर, उस डायरी को खोला। उसकी ख़ुशबू ने मानो मेरे दबे उमंगों को आसमान दे दिया और मेंने डायरी के पहले पन्ने पर लिखा " सूरभी मिश्रा"