खुशियों की राह

खुशियों की राह

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बहुत परेशान सी थी श्रुति। हर रोज़ पैसों को लेकर घर में होती खींचातानी उसे पसन्द नहीं आती थी पर कोई उपाय भी उसे समझ नहीं आ रहा था। कितनी भी तनख्वाह में बढ़ोतरी हो जाती पर खर्चे बाज़ी मार लेते थे। और महीने के आखिरी दिन तो बड़े भारी से ही गुजरते थे। ऐसा तो वो कुछ दूसरों से अलग भी नहीं करते थे पर खुशी सिर्फ सोशल मीडिया की फोटो में ही उनके चेहरे पर दिखती थी, दिलों में नहीं।

यूं ही अपनी सोचों से तंग होकर श्रुति घर के सामने बने पार्क में जाकर बैठ गई। उसने सोचा कुछ तो दूसरे लोगों को देखकर अपनी परेशानियों से दिमाग हटेगा और साथ ही वो थोड़ी देर धूप भी सेक लेगी।

अभी उसे बैठे कुछ समय ही हुआ था कि सामने वाले घर में लगे मज़दूर पार्क में ही आकर खाना खाने लगे। एक झुंड औरतों का और एक झुंड आदमियों का बन गया था ।पर उनमें से एक मज़दूर औरत अपना खाना लेकर अलग ही थोड़ा सा श्रुति के पास आकर बैठी। श्रुति ने पहले भी कई बार उसे अकेले ही खाना खाते देखा था। इस बार वो अपनी उत्सुकता रोक नहीं पाई और उस से पूछ ही बैठी," सुनो, तुम सबसे अलग बैठकर खाना क्यों खाती हो हमेशा? क्या तुम्हारी इन सबसे नहीं बनती ?"

श्रुति का प्रश्न सुनकर वो पहले तो अचकचा गई फिर बोली," हमें कहां फुर्सत है दीदी लड़ाई की। ये तो इन सबका आदमी भी कमाता है और ये खुद भी कमाती हैं जबकि मेरा आदमी शराबी है और मार पीट कर अक्सर मेरे पैसे भी छीन लेता है जिस कारण मेरा खाना इन सबके सामने खोलते ही मुझे बुरा लगने लगता था और ज्यादा बुरा तब लगता था कि मैं अपनी मेहनत से कमाए अन्न का बुरा मानकर अपमान कर रही हूं जबकि इसे खाकर भी मैं बहुत खुश थी और मेरा पेट अच्छे से भर जाता था लेकिन दूसरे की थाली को देख मेरा सुख दुख में बदल जाता था। ये समझ आने के बाद से अब मैं अलग बैठकर ही खाती हूं और खुश रहती हूं।"

श्रुति उसकी बातें सुनकर बस उसे देखती ही रह गई। ये मजदूर औरत अनपढ़ होते हुए भी कितनी समझदारी की बातें कर रही थी और वो दूसरों की देखा देखी अपने खर्चे ही बढ़ाए जा रही थी। 

अब उसे समझ आ गया था कि उनकी तनख्वाह कम नहीं पड़ती थी बल्कि उनकी ख्वाहिशें तनख्वाह से ज्यादा पैर पसार रही थी। अब उसे ये भी समझ आ गया था कि खुशी ज्यादा खर्च करने या दूसरों की देखा देखी होड़ करने से नहीं मिलती बल्कि संतोष के साथ जीवन जीने से ही मिलती है।

श्रुति ने उस मज़दूर औरत को धन्यवाद बोला तो वो पूछने लगी कि धन्यवाद किस बात का दीदी। तब श्रुति हल्के से हंस दी और मन ही मन भगवान को भी धन्यवाद देने लगी कि एक अनजान के रूप में सामने आकर उन्होंने उसकी मुश्किल का हल बता दिया और खुशियों की राह भी दिखा दी।


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