"खुशियां उम्र की मोहताज नहीं!"
"खुशियां उम्र की मोहताज नहीं!"
सूर्यकांत जी रिटायरमेंट के बाद अपने बेटे समीर के पास रहने चले गए। पत्नी कल्पना की मृत्यु दो साल पहले हो गयी थी। बेटी सुनिधि की चार साल पहले शादी करके अपनी सारी जिम्मेदारियों से निवृत हो चुके हैं।
रिटायरमेंट की पार्टी के बाद बहू सुधा और समीर कहने लगे कि अकेले कैसे रहेंगे व अपने साथ ले जाने की जिद करने लगे। सुनिधि और दामाद मोहित ने भी कहा कि कभी आप भैय्या के पास कभी हमारे पास रहना। अकेले रहने से हारी-बीमारी में मुश्किल हो जाएगी, सब को भी उनके साथ रहना अच्छा लगेगा। इस तरह सब के जोर देने पर सूर्यकांत जी मुंबई आ गए। किताबें पढ़ने का शौक उन्हें हमेशा से ही है तो बाकी सामान के साथ दो बक्से भरकर पुस्तकें भी आईं।
सुधा और समीर दोनों उनका खूब ख्याल रखते हैं, पोती कुहू उनका मन बहलाती रहती है। उसके पास हज़ार सवाल होते हैं जिनका हल दादाजी के पास होता है।
कुल मिलकर सूर्यकांत जी रच-बस गए। सूरज के कहने पर सुबह की सैर भी शुरू कर दी उन्होंने। सोसाइटी के पास में ही उद्यान है जहां सब मॉर्निंग वॉक व योग आदि करते हैं तो सूर्यकांत जी सुबह ६ बजे सैर के लिए जाते और ६:३० या ६:४५ तक वापस आ जाते। थोड़े समय में ही कुछेक मित्र अपनी आयुवर्ग के भी बन गए उनके।
घर आकर नाश्ता-पानी के बाद पोती से खेलना और किताबें पढ़ना व उनकी सार संभाल करना उनकी दिनचर्या में शामिल है। समीर ने उनके रूम में ही बुक शेल्फ बनवा दिया है ताकि पापा को पुस्तक ढूंढने में आसानी रहे।
कुछ दिनों से उनको सैर में थोड़ा ज्यादा वक़्त लगने लगा। जब एक दिन उन्हें लौटने में काफ़ी देर हो गयी तो समीर व सुधा उन्हें देखने उद्यान में आये कि पापा कहाँ रह गए।
वे क्या देखते हैं कि पापा खूब सारे बच्चों से घिरे बैठें हैं। सूर्यकांत जी एक कॉपी में कुछ लिख रहे हैं और ज्यादातर बच्चों के हाथ में पुस्तकें हैं। ध्यान से देखने पर पता चला कि वह पुस्तक एक बच्चे से लेकर उसका नाम अपनी कॉपी से काटते हैं और फिर वो जो पुस्तक चाहता है उसे देकर कॉपी में उस पुस्तक के आगे उस बच्चे का नाम लिखते हैं। ऐसा करते करते उन्होंने अपने थैले में रखी सभी पुस्तकें बच्चों को दे दी। फिर सबसे कहा , "बच्चों अब दो दिन बाद सब पुस्तक लेकर आना और दूसरी लेकर जाना।"
बच्चें खुशी खुशी पुस्तक लेकर अपने अपने घर चले गए। सूर्यकांत जी पलटे तो समीर व सुधा को देखकर बोले , "अरे तुम लोग यहाँ! "
समीर ने कहा ," पापा, आज आपको बहुत देर हो गयी तो हम आपको देखने चले आये। आप, ये बच्चें और किताबें ?"
सूर्यकांत जी बोले ," बेटा ,ये वो बच्चे हैं जो बमुश्किल से स्कूल जा पाते हैं। मैं उन्हें पुस्तक पढ़ने को देता हूँ क्योंकि आर्थिक तंगी की वजह से वो इन्हें खरीद पाने में असमर्थ हैं। ज़रूरत पड़ने पर मैं कुछ पढ़ कर भी सुना देता हूँ।"
"वाह पापा !" सुधा बोली।
"हाँ और मेरी बस एक ही शर्त रहती है कि पुस्तक गन्दी न हो और फटे नहीं एवं समय से वापस करें। " सूर्यकांत जी बोले।
"पापा, आप तो मोबाइल लाइब्रेरी चला रहे हैं। हमें भी बताएगा हम भी योगदान करना चाहते हैं।" समीर बोला।
" बिलकुल बेटा , कुहू की पुरानी किताबें व आधी या कम भरी कॉपियां कुछ बच्चों के काम आ सकती हैं। वो दे सकते हों, बाकि मैं समय-समय पर बताता रहूँगा। अभी चलते हैं, पेट में चूहे दौड़ रहे हैं।" सूर्यकांत जी बोले।
"घर चलकर नाश्ता करते हैं पापा", सुधा ने कहा
वे तीनों घर की ओर चल पड़े।
दोस्तों, वृद्धावस्था सब पर आती है। जीवन का सत्य है , एक सोपान है। जिस प्रकार सूर्यकांत जी ने रिटायरमेंट के बाद अपने पुस्तकें संग्रह एवं पढ़ने के शौक से अपनेआप को व्यस्त रखने का उपाय निकाला और बच्चों के काम आये । उसी प्रकार हम अपने घर के बुजुगों को उनके शौक और हॉबीज़ के लिए बढ़ावा देकर उनको खुश रखने का प्रयास कर सकते हैं क्योंकि उम्र के मोहताज़ नहीं होते हैं, हॉबीज़ और शौक, दिल में चाहत होनी चाहिए। खुशी कब किसको किसमें मिलें, समझने की जरूरत है...
