कबूतर का दर्द
कबूतर का दर्द
चलो आज मैं सुनता तुम को एक कहानी एक छोटा सा घर और घर वालों की कहानी.. आओ सुनाऊं तुम को एक कहानी।
एक घोंसला था, रहता था उस में एक कबूतर का जोड़ा और बच्चा। बच्चा अभी छोटा था, उड़ना नहीं जानता था, रह घोंसले में बस चूं चूं करता रहता था
बड़े सुकून से जी रह थे, पंख फैला कर छूते आसमान डाली डाली खेला करते थे चोंच में दाने ला कर मां खाना लाती थी। कितना सुंदर कितना खुशहाल था, वो परिवार झरोखे से देखते इस दुनिया की रस्मों को कितना सुंदर जहां बनाया भगवान ने है।
एक दिन आया मकर संक्रांति का दिन उजड़ गया उसका घर संसार, आंखों में थी बस आंसू की धारा, क्यों हुआ ऐसा बस एक सवाल था
बना रहा था, संसार अपने परिवार के साथ त्यौहार मशगूल था पतंग उड़ाने में पेंच लड़ाते, पतंग कटती सब बहुत खुश हो जाते। पर कोई न जाने उसका दर्द, उस दिन भी कबूतर उड़ रहा था नील गगन में भरने को अपने परिवार का पेट पर एक मांझा ऐसा आया, जिसने कटा गला उस कबूतर का
गिरा धरा पर धड़ाम से बस आंखों से नीर बहता था। जाते जाते सोच रहा था कौन अब मेरे घर को खाना देगा। क्यों इस दोगली दुनिया में न्याय हमको मिलेगा। जब होना चाहते पाप मुक्त तो दाना हमको डालते, पर वही लोग मकर संक्रांति पर गला हमारा काटते। अब तो रहम करो हम पर, ये नील गगन है मेरा घर, इसको न पतंगों ढको आज मेरा आंखों में आँसू है, क्योंकि मेरे वो पिता थे, जिनको मैं न देख पाया। अब तो रहम करो हम पर बस एक यही फ़रियाद लाया।
जीवन बचाओ ।
