Arya Jha

Inspirational

5.0  

Arya Jha

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काली बिंदी

काली बिंदी

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"लाल बिंदी लगाया कर ! जब देखो मनहूस सी काली बिंदी लगाए घूमती है। "

"क्या हुआ माँ ! क्यों नाराज हो ?"

"काला टीका नहीं लगाते, कलंक लगता है।"

"अरे ! तुम तो कहती थी नज़र नहींं लगती।"

"हाँ कहती थी पर वह ललाट के दाहिनी ओर बालो के पास लगाते हैं। ऐसे भौहों के बीच नहींं।"

माँ को अच्छा नहींं लगता जब भी मैं काली बिंदी लगाती। मेरे गेहुँए रंग पर वाकई खिलती थी काली बिंदी। जैसे ही मैंने किशोरावस्था में कदम रखे लोगों की नजरें बदलने लगी थी। मैं बहुत खूबसूरत तो नहींं थी। कम से कम मुझे ऐसा कभी नहीं लगा था फिर क्यों सब एकटक देखने लगते। तब तो पता ना था पर अब जान गई जब पति ने कहा कि मेरी आँखें बहुत आकर्षक हैं।

कई नज़दीकी लोगों को निहारते देख चुकी थी। अल्हड़ थी पर नज़रों का फ़र्क़ समझती थी। वो नज़रें, जो भेदती हुई कुछ पाने की ललक रखती हों, उन्हें पहचानने लगी थी। मैं जैसे -जैसे बड़ी हो रही थी वैसे- वैसे मुझमें नफ़रत भर रही थी। मुझे पुरुषों से चिढ़ सी होने लगी थी। सब गंदे दिखते ,दोहरे चरित्र के।

मोहब्बत लिखने बैठी हूँ और नफ़रत में अटक गई। सच पूछो तो नफरत से मोहब्बत की शुरुआत होती है। खैर जैसा मैने बताया कि मेरी ओर उठने वाली नज़रें जिनमें स्नेह की जगह भोग दिखता था उसने मुझे बहुत स्मार्ट बना दिया था। मैं किसी के आगे झुकती नहींं थी। एक तरह से मैं काफी बदतमीज़ हो चुकी थी।

अब मैं इस बदतमीज़ लड़की की प्रेम कहानी बताती हूँ। अपनी रुममेट के साथ खड़े दो सीनियर्स को देख कर भी अनदेखा करती हुई मैने कमरे की चाबी मांगी। तभी उसने मुझे उनदोनों से मिलाया। उनमें से किसी को भी मैने गौर नहीं किया। मेरा अनुभव यही कहता था कि मेरी नजरें देख हर कोई गलत ही चाहत रखता है। मुझे मेरी माँ की कहीं बातें याद आतीं और मेरी इच्छाशक्ति को और बलवती कर जाती। कुछ भी हो मेरी काली बिंदी मेरे कलंक का टीका नहीं बनेगी। मैं पढ़ाई खत्म कर बाइज्जत घर पहुंच जाऊंगी फिर उनके पसंद से शादी करूँगी। साथ ही मेरा जुनून था कि मेरा जीवनसाथी बहुत बहादुर इंसान हो। इसलिए मैं आर्मी अफसर से शादी करना चाहती थी। उन्ही दिनों एक कैप्टेन का रिश्ता भी आया था। मैं अपने आपको 'टॉप ऑफ द वल्ड 'समझ रही थी।

फिलहाल मैं उनके बारें में बताती हूँ जिन्होंने मेरा चरित्र ही बदल दिया। मेरी रुममेट के साथ खड़े थे। उन्होंने अपना नाम समीर बताया। मैं औपचारिक तौर पर मिली और भूल भी गयी। फिर मेरी सहेली ने बताया कि नोट्स और बुक्स चाहिए तो ले लेना। टॉपर हैं वो। पर जैसा मैंने कहा कि मुझे कभी कोई बहुत अच्छा लगा ही नहीं था। मुझपर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था।

अगले ही दिन भारी -भारी कुटसोनवीस और शैपिरो की माइक्रो व मैक्रो इकोनॉमिक्स की किताबों के साथ समीर ख़ड़े मिले।

"पढ़ना इन्हें। धूल से गंदी नहींं बल्कि पढ़कर गंदी करना। "

उनकी आँखों में देखा। बड़ी साफ आँखें थीं उनकी। मुझमें थोड़ी सुरक्षा की भावना आ गयी थी। मैंने किताबें रख लीं थीं। अब हम कभी -कभार मिलने लगे थे।

एक दिन समीर ने पूछा "तुम गौदोलिया गयी थी ?"

"हाँ ! माँ के साथ। "मैने कहा।

"ऑटो में ना ?"

"हाँ ! पर मैंने तो आपको नहींं देखा। "

"मैंने भी कहाँ देखा। बहुत भीड़ थी। बस तेरे पैर देखे। "

"पैरों से पहचान लिया ?"

"मैं तेरे चेहरे के अलावा बस पैर ही तो देखता रहता हूँ। इसलिए पहचान लिया। "

ये पहला शख़्स था जिसने वो नहीं देखा जो बाक़ी के लोग देखते थे। अब मैं उसकी नज़रों से बेखौफ थी। ज़्यादा मिलने लगी। विश्वास जम गया था। उसके सुरक्षा के घेरे में खुद को महफूज़ समझने लगी थी।

फिर जब हम सब पिकनिक पर गए तो अकेले में जो उन्होंने कहा "पता है ना तुझे लड़के कैसे होते हैं ? लड़कियों को परेशान करते हैं। मैं तो सोचकर भी डरता हूँ कि मेरी मोम की ये गुड़िया मेरे छूने से टूट ना जाये।"

मैंने आज पहली बार उन्हें गौर से देखा। गुलाबी चेहरा, साफ नीयत आँखें, तीखे नैन- नख्श और गहरे गुलाबी होठों पर बीचो बीच काला तिल। पिछले छ:महीनों से मिल रही थी पर आज मुझे उनमे मेरा वैलेंटाइन दिखा। दिखने में इतने सौम्य व प्यारे कि कोई भी लड़की उनके प्रस्ताव को अस्वीकार नहींं कर पाती। टॉपर थे ही उसपर से सच्चरित्र भी ! ऐसे में अपनेआप को बेहद भाग्यशाली समझ रही थी। ये पता लग गया था कि लड़कियों से नज़दीकियां बढ़ा कर डंप करने वालों में ये नहीं थे। मुझे प्यार होने लगा था......और वो भी राधा या रुक्मिणी वाला नहींं बल्कि मीरा वाला।

बहुत से लोग प्यार करते हैं। पर प्यार को जाने समझे बिना ही खुद को प्यार में महसूस करते हैं। एक दिन गिफ्ट पाते हैं खुश हो जाते हैं। रोजेज ,हग्स,किसेज़ और फिर शादी ,बच्चे और इस दरम्यां अगर साथी से कोई चूक हो जाये तो "अब तुम पहले जैसे नहींं रहे ! "इल्ज़ाम देते हैं। प्यार कहाँ है इन सब घटनाओं में। मुझे तो बस एक -दूसरे के प्रेम की परीक्षा नज़र आती है। कौन ,कितने नम्बरों से पास हुआ ?

हाँ तो मैं बताती हूँ कि जब मुझे उनमे देवत्व दिखा तब मुझे प्यार हुआ। कृष्ण से वह मुस्कुराते और मीरा जैसी मैं उनपर वारी जाती। मुझे वह बहुत अच्छे लगने लगे थे। हमने यह निश्चय किया कि अपने घरवालों से बताया जाय ताकि हमें अपने पैरों पर खड़े होने के बाद हमेशा के लिये मिला दिया जाय।

घरवालों ने पहले हामी भरी और बाद में धोखा दे दिया। समीर से मिलना देखना तो दूर की बात ,उनका नाम तक लेना अपराध था मेरे घरवालों की नज़रों में। मैं उन्हें भी क्या दोष दूँ, बेचारे सांसारिक लोग क्या जाने ?जिसे साधारण प्यार -मोहब्बत का किस्सा समझ रहे थे वह मेरा इश्क़ था जो मरकर भी नहीं जाने वाला था। हम मिलकर भी ना मिल पाए क्योंकि यही होना था। तमाम भावनात्मक उतार-चढ़ाव के बाद उन्होंने आखिरकार मुझसे छुटकारा पाने का इंतज़ाम कर ही लिया। मेरी शादी अपनी बिरादरी में तय कर दी गयी। मुझसे पसंद पूछने का तो सवाल ही नहींं बस घर से विदा कर सामाजिक जिम्मेदारी निभानी थी।

शादी का मंडप सजा था ....आईने में खुद को देखकर अतीत में खो गयी। क्यों इतनी नफरत थी पुरुषों से ....समीर अपनी अच्छाइयों के कारण मेरे दिल में समा तो गया पर सुहाग ना बन सका....अपनी मंज़िल के करीब पहुँच कर फिर धरातल पर आ गिरी। क्यों हुआ ऐसा और क्यों होता है ये सब किसी के साथ ...तमाम सवाल उद्धिग्न कर रहे थे कि तभी बारात आ गयी ये शोर करती बहन कमरे में दाखिल हुयी।

"अपने दूल्हे को देख लो दीदी ....क्या शान से बैठा है ! 'बहन चुटकी लेकर चलती बनी। एक -एक कर सारी रस्में खत्म होते हुए सुबह हो गईं। अब धड़कता दिल लिए अविनाश के साथ विदा हो गई। ससुराल में सब वैसा ही था जैसा अमूमन होता है। किसी को मैं पसंद आई तो किसी को कोई खास नहींं। मुँह दिखाई की रस्म के बाद सुहागकक्ष में बैठाई गयी। सब आने -जाने वाले कुछ ना कुछ कहते रहे .....क्या छोटा -क्या बड़ा... जैसे नई दुल्हन सबका खिलौना हो। रात कुछ और गहराई और नशे में धुत्त पति कमरे में दाखिल हुआ।

"मुझे शराब की महक से घबड़ाहट सी होती है।"

काँपती आवाज में कहा।

"मैं पीता नहींं...दोस्तों ने पिला दी है...तुम सो जाओ ! "

पहले तो अविनाश ने मुझे नज़र भर कर देखा फिर आराम करने के सलाह दी। एक सप्ताह तक रिश्तेदारों की जमघट और थकान यूँही बरकरार रही और उनकी आड़ में मैं भी बचती रही।

पति के साथ जब नौकरी पर आई तो जाकर जान में जान आयी।

"अब ठीक हो ना ?" अविनाश ने बड़े अनुराग से पूछा।

"जी "

"जी क्यों ? नाम लो मेरा ....। "

"लंबा है आपका नाम। "

"अवि.....ये ठीक रहेगा ?"

"जी.....सॉरी....अवि...बिल्कुल ठीक " हकलाती हुई बोली। आखिर पहली बार इतनी भी बातचीत हुई थी।

"मैं लगातार देख रहा हूँ कि तुम तनावग्रस्त दिखती हो ....कोई बात है तो निःसंकोच कह सकती हो !"

मैं खामोश थी। कहूँ या ना कहूँ...सब कहते हैं कि अतीत वर्तमान पर हावी हुई तो भविष्य खराब कर देती है.... कहीं ना कहीं एक बेचैनी सी थी ....घबड़ाहट साथ नहींं छोड़ रही थी। जहाँ समीर को बैठना था वहाँ अवि एक अजनबी सा लग रहा था।

"गूंगी -बहरी तो नहींं हो ....हमे पता है .....बोलना शुरू करोगी या फिर मैं तुम्हारे करीब आऊँ?"

अविनाश ने छेड़ा। नज़दीकियां ही तो बचपन से डराती थीं ....समीर ने एक दूरी बना कर रखी तो दिल के करीब आ सका.....पर उम्र भर का रिश्ता झूठ के बल पर नहींं चलता तो अंततः बोली।

"मैं जब 10 साल की थी तब किसी ने मोलेस्ट किया था।  साथ ही धमकाया भी कि किसी से कहा तो बहुत मारेगा... और बदनाम भी कर देगा..... मैं डर गई थी फिर पिताजी का तबादला हो गया और हमने शहर बदल लिया पर मेरे मन से वो खौफ ना निकल सका ....मैं उसके कारण हर लड़के से नफरत करती थी.....इससे पहले कि कोई मुझसे दोस्ती का हाथ बढ़ाये मैं उल्टे गुस्सा कर बातचीत को पूर्ण विराम दे देती थी। "

"हाँ ! वही मेरे साथ भी कर रही हो ..."अविनाश बोला।

"शादी -सुहाग और लाल रंग मुझे अंदर तक झकझोर देते ....मुझे शादीशुदा जोड़ों से नफरत हो गयी थी....यहाँ तक कि माँ -बाप से भी ! मुझे लगता सब यही सब करते होंगे ...काश कि मैं आजीवन कुँवारी रह पाती .....नतीज़ा ये हुआ कि मैं बाग़ी हो गयी ....माँ जो कहती मै उसका उल्टा करती ....लाल बिंदी की जगह काली लगाती.... मनहूसियत को अपना लिया था बल्कि उसे ही एन्जॉय करने लगी थी। ........ ! "कहकर सिसकने लगी।

" अरे ! नहीं ! रो मत ......मैं समझ सकता हूँ.....तुम बेफिक्र रहो .......तुम जैसे चाहो वैसे रहो....मैं तुम्हारी मनः स्थिति समझ गया हूँ और भी कुछ कहना है?"

"हाँ ! मैंने अपने सहपाठी 'समीर'से प्यार किया था पर घरवालों ने आपसे शादी करा दी। "फिर मैंने समीर के साथ अपने मासूम भावनात्मक जुड़ाव वाले सभी किस्से और घरवालों की उस विषय पर की गई धोखाधड़ी.... सब खोल कर रख दिया।

"सारी व्यथा कथा खत्म हुई तो कुछ बोलूं ?"

"मज़ाक बना रहे हैं आप मेरा ?" इस बार अविनाश हँस पड़ा।

"मेरी क्या बिसात पत्नीजी कि आपका मज़ाक बनाऊं ?"

बचपन के हादसों में बच्चों के नहींं बल्कि पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों के दोष होते हैं और समीर की जहाँ तक बात है तो युवा उम्र का आकर्षण लाज़मी है। मुझे इसके बारे में सब पता था। तभी तो तुम्हे वक़्त दे रहा था। तुम इतने भोलेपन से बताने लगी इसलिए मैंने चिढ़ाया। शादी के पहले के संबंधों से मुझे कोई लेना -देना नहींं। पवित्र अग्नि के चारों ओर फेरे लेकर हम जीवनसाथी बने हैं। तुम मुझे अपना समझो और सदा हँसती - खिलखिलाती रहो। "

मैं खुश हो गयी शादी के दस दिन भी ना बीते थे और अविनाश के सामने शीशे की तरह साफ़ व पारदर्शी बनी मुस्कुरा रही थी। मेरी सच्चाई ही हमारे सम्बन्धों का आधार बनी।

"लाल -काली छोड़ो यार तुम बिंदी ही मत लगाओ। हमारी दोस्ती तो हो गयी ना ! बस इस दोस्ती के नाम पर आकर गले लग जाओ। "

"अहा.. ! तुम तो मेरे अच्छे और सच्चे वाले दोस्त निकले। "

कहकर झट सीने से लग गयी। यहीं से धीरे -धीरे अपने नए जीवन में स्नेहिल कदम रखे। किस्मत चाहे कितने भी बुरे दिन क्यों ना दिखाए ...... एक ना एक दिन पलटती जरूर है ......भले ही पहले दुख उठाये पर एक सच्चे साथी को पाकर आत्मविश्वास से भर गई....... ! हम पति -पत्नी कम दोस्त ज़्यादा हैं। अविनाश मेरी साफ़गोई से प्रभावित हुए बिना ना रह सका।


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