Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Sheel Nigam

Drama

3.7  

Sheel Nigam

Drama

ज्योति पुंज

ज्योति पुंज

4 mins
393


"आज तुम्हारा फ़र्ज़ निभाने का समय आ गया है। बेटा विपिन, घर चले आओ। "

"कौन सा फ़र्ज़ काकी माँ ?"

"बस तुम आ जाओ। "

 काकी माँ से मोबाइल फ़ोन पर बात होने के बाद रुका नहीं गया। बस में रास्ते भर सोचता रहा कि न जाने कौन सा फ़र्ज़ निभाने की बात कर रही थी काकी माँ?

घर पहुँचते ही किसी अनहोनी की आशंका से मन सिहर गया। कुछ जान पहचान के लोग जमा थे। आँगन में एक अर्थी सजाई जा रही थी।

"पंडित जी, विपिन बेटा भी आ गया। " किसी की आवाज़ उभरी।

"अरे, कोई विपिन को उसकी माँ का चेहरा तो दिखा दो। " काकी माँ ने आँसू पोंछते हुए कहा।

"माँ?" मेरा हृदय ज़ोर से धड़कने लगा। फ़िर धीरे से बुदबुदाया, 'मेरी माँ'?

मैंने आज तक अपनी माँ को देखा तक नहीं था। काकी माँ को ही अपनी माँ समझता आया था।

मैंने प्रश्नसूचक नज़रों से काकी माँ को देखा तो उन्होंने 'हाँ' में सिर हिलाया और मुझे अपने गले से लगा कर फूट-फूट कर विलाप करने लगीं।

"हाथ भर का बच्चा मेरी गोद में डाल कर मुझ बांझ को निहाल कर दिया था तुम्हारी माँ ने, विपिन बेटा। मेरी कोख तो हरी न हुई कभी, पर छाती में ममता ठाठें मारती थी। तुम्हें पा कर मुझ पर लगा बांझपन का कलंक धुल गया था। बेटा,आज कलिका हम दोनों को छोड़कर चली गई हमेशा के लिये। "

जाने-अनजाने अपनी जननी के लिए मेरी आँखें भीगने लगीं, पैर स्वत: ही माँ के प्रथम और अंतिम दर्शन के लिए आँगन की ओर बढ़ चले।

अब तक माँ की अर्थी सज चुकी थी। तीन अन्य लोगों के साथ माँ की अर्थी को कंधा देते हुए मैं कुछ लोगों के साथ श्मशान की ओर चला।

रास्ते भर मेरा मन विचारों के जाल में उलझा रहा। बहुत से अनसुलझे प्रश्न मन में कुलबुला रहे थे। माँ का वजूद जो अब निष्प्राण रूप में मेरे कंधे पर था, मेरे लिए एक अबूझ पहेली बन गया था। जिसे काकी माँ ही सुलझा सकती थीं। दूसरी ओर माँ का निस्पंद शरीर मेरे हृदय में स्पंदन जगा रहा था, जीते जी माँ मेरे साथ न थीं, कम से कम मरते समय मेरे हाथों से मुखाग्नि तो पा सकेंगी।

श्मशान घाट में यंत्रवत सब कुछ निपटा कर सब लोगों के साथ घर पहुँचा। कहीं एकांत में बैठकर काकी माँ से अपने मन की जिज्ञासा शांत करना चाहता था पर मौका नहीं मिल रहा था। लोगों की आवाजाही लगी थी। पर आश्चर्य! उन लोगों में न माँ का कोई रिश्तेदार था न काकी माँ का। और मेरे पिता? वे तो कहीं भी नहीं दिखे।

अरे हाँ, याद आया। माँ को अर्थी पर सुहागिन स्त्री की तरह नहीं सजाया गया था। अब अपने पिता के बारे में जानने की उत्सुकता भी मन में कुलबुलाने लगी। बचपन में मैं जब भी काकी माँ से अपने पिता के बारे में पूछता था तो वे हमेशा टाल-मटोल कर देती थीं। मैं काकी माँ की मजबूरी समझ कर ज्यादा पूछ-ताछ नहीं करता था।

शाम का धुंधलका छाते ही काकी माँ मेरे पास आईं और स्वयं ही मेरे सभी अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर देने लगीं। बोलीं, "बेटा तुम्हारी माँ कलिका और मेरा केवल एक ही रिश्ता था। मैं अपनी ससुराल से बांझ होने का कलंक लेकर इस शहर में आई थी और वह तुम्हें अपनी कोख में लाने का कलंक लेकर मेरे पास आई थी। "

"और मेरे पिता?" मुझसे रहा नहीं गया।

"मामला 'ऑनर किलिंग' का था। कलिका के सामने ही तुम्हारे पिता को उसके घरवालों ने जान से मार दिया था। कलिका किसी तरह जान बचाकर, भाग कर मेरे पास आकर छुप गयी और आज तक तुमसे भी छुपी रही। उन दिनों मैं लोगों के घरों में खाना पका कर अपना गुज़ारा करती थी। तुम्हारे पैदा होने के बाद कुछ दिन यहाँ रही। फिर नौकरी करने कहीं चली गई। "

"मुझे देखने माँ कभी नहीं आईं फिर?" मैंने अधीर होकर पूछा।

"नहीं आई। उसे डर था कि कहीं कोई तुम्हारी जान का दुश्मन न बन जाए। तुम्हारी परवरिश के लिए रुपये भेजती रहती थी। "

सारी बातें सुन कर काकी माँ के प्रति मेरा मन कृतज्ञता से भर गया। तभी आँगन में रखे तुलसी चौरा पर जलते दीपक की लौ पर मेरी नज़र गई। दीपशिखा भर-भरा कर जल उठी और उसमें से एक ज्योति-पुंज निकला। जिसने क्षण भर में, श्वेत साड़ी में लिपटी मेरी माँ की आकृति ले ली। मैं आश्चर्यचकित हो कर माँ को देखता रहा। धीरे-धीरे दीपक की लौ बुझने लगी और ज्योति-पुंज माँ की आकृति के साथ आकाश की ओर उड़ चला।

मैं माँ-माँ-माँ पुकारता रह गया।


Rate this content
Log in

More hindi story from Sheel Nigam

Similar hindi story from Drama