जय माता दी
जय माता दी


संसार नवरात्र का पर्व मना रहा था,आज प्रथम दिन, माता की स्थापना और चहुंओर माता के जयकारे, अपार खुशियों के इस मौके पर शिवानी आंखों में आंसू लिए मां के दरबार में खड़ी थी।
"मॉं, तू तो जगत जननी है, तू ही बता मैं क्या करूं, मेरे जीवन में अचानक यह कैसा अंधकार छा गया है, माता ,हर द्वार बंद नज़र आता है,हर राह दुर्गम मालूम होती है, मैं करुं तो क्या करूं" शिवानी हाथ जोड़े माता की मूरत के सामने खड़ी थी।पति शहीद हुआ है लेकिन शहादत तो पत्नी की भी है, अभी आठ माह पहले ही हाथों में मेहंदी रची थी, सफ़र शुरू भी न होने पाया था कि खत्म हो गया, गर्भ में संघर्ष का बीजारोपण हो चुका था, शिवानी शून्य में थी, तभी मां की कही गई यह पंक्तियां कानों में गूंज उठी।
"जीवन एक संग्राम है,
जो हार न मानें वो महान है, जो दुर्गम रास्तों पर सुगमता से चल सके,वही दुर्गा है, तू एक स्त्री है, स्त्री का मतलब शक्ति स्वर
ूपा, तुझमें तो ब्रह्माण्ड के नवरूप समाहित है, चल उठ मेरी बच्ची,तू मेरी प्रतिछाया है, और हार मान लेना तेरी प्रकृति नहीं" मां के कहे यह गूढ़ शब्द आज शिवानी के कानों में गूंज रहे थे। शिवानी को ऐसा लगा मानो, आज मॉं नहीं, बल्कि जगत माता, स्वयं दुर्गा उससे बोल रहीं हैं। उनका स्वर ,उनका स्नेहिल स्पर्श, शिवानी ने महसूस किया, माता मुस्कुरा रही थी, शिवानी को ऐसा लगा कि मॉं दुर्गा की सारी शक्ति उसमें समा गई हैं, उसने आंसू पोंछ दिए, और बोली-
"मॉं, आपका आशीर्वाद जब साथ है तो अब मुझे किसी बात की चिंता नहीं, अब मैं तैयार हूं तूफ़ानों से टकराने को, मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी और इसे भी बनाऊंगी, आर्मी ऑफिसर, इसके लिए मुझे चाहे जो करना पड़े" शिवानी ने कहा और उसी क्षण माता की चुनरी उड़कर , शिवानी की झोली में आ गिरी, शिवानी की आंखों से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े, वातावरण में एक ही गूंज सुनाई दे रही थी"जय माता दी। "