जख़्मी सियार
जख़्मी सियार
मेहबूब गंज के दिलरुबा चौक पर लल्लन सिंह उर्फ़ लल्लू नाम के अनिवासी भारतीय पर जानलेवा हमला करने के लिए मुन्ना सिंह उर्फ़ मुन्ना पहलवान को एक साल के कठोर कारावास की सजा दी जाती है।
जज के कठोर शब्द मुन्ना पहलवान के कानों में गूँज रहे थे। उसे अन्य कैदियों के साथ आशिक नगर की बदनाम जेल में ले जाया जा रहा था। चमेली के इश्क़ में पागल हुआ मुन्ना पहलवान उस घड़ी को कोस रहा था जब वो अपने चेले चंपक के चढ़ाने पर दिलरुबा चौक पर खड़े लल्लू पर टूट पड़ा था। चंपक ने उसे बताया था कि लल्लू मॉरीसस से केवल चमेली और उसकी मुहब्बत को हासिल करने आया था। मुन्ना पहलवान को इस बात का बेहद अफ़सोस था कि चमेली ने अपने टाइपिंग सेंटर से लड़ाई का ये सारा नज़ारा देख था, कहीं उसके दिल में पिटते लल्लू के लिए हमदर्दी ना जाग गयी हो?
जेल शहर के बाहर थी इसलिए जेल की गाड़ी कचहरी से चलकर एक घंटे बाद जेल पहुंची।
"मुन्ना पहलवान तेरा सुधरना मुश्किल है अभी तीन महीने पहले छूटा था जेल से फिर वापिस आ गया।" —जेलर ने उसकी सजा के आदेश पर एक सरसरी निगाह डालते हुए कहा।
उसे बैरक नंबर ३१ की कोठरी नंबर २१० अलाट हुई। जेल की वर्दी पहने हाथ में एक कंबल, मग, थाली लिए वो जेल के संतरी के साथ बैरक नंबर ३१ में पहुँचा। बैरक की सभी कोठरियाँ खुली हुई थी, कैदी इधर-उधर घूम रहे थे, मुन्ना को देखकर उसके पुराने चेले उसकी जय-जयकार करते उसके पास आ गए। कुछ कैदी एक लम्बे-चौड़े मुस्टंडे के हाथ-पैर दबा रहे थे।
"कौन है बे ये नया पंछी?" —उस मुस्टंडे ने गरज कर पूछा।
"अबे मैं तेरा बाप हूँ, तू बता तू कौन है? —मुन्ना पहलवान ने उसी अंदाज़ में गरज कर पूछा।
"बेटे ये तो तुझे जल्द पता चल जायेगा कि कौन बाप है कौन बेटा, इधर आ और पैर दबा मेरे।" —उस मुस्टंडे ने गरज कर कहा।
"गर्दन ना दबा दूँ तेरी।" —मुन्ना पहलवान ने अपने हाथ में पकडे कंबल, मग और थाली को एक ओर फेंकते हुए कहा।
इतनी बात पर वो मुस्टंडा उछल कर खड़ा हो गया और आकर मुन्ना पहलवान की गर्दन पकड़ ली। मुन्ना ने पैतरा बदल कर एक लात उस मुस्टंडे को मारी, मुस्टंडा थोड़ा सा लड़खड़ाया और उसके बाद दोनों गुत्थम-गुत्था हो गए। दोनों दैत्यों को लड़ते देख कर संतरी ने जोर की सीटी मारी, सीटी की आवाज़ सुनकर चार संतरी और आ गए और उन्होंने लड़ते दैत्यों पर अपनी मोटी लाठियाँ बरसानी शुरू कर दी। १० मिनट लगातार लाठी बरसाने के बाद दोनों अलग हुए और संतरी उन्हें घसीट कर काल-कोठरियों में ले गए। काल-कोठरियां बंद कर दी गयी और तीन दिन का खाना भी।
तीन दिन की भूख प्यास ने मुन्ना और उस मुस्टंडे के कस-बल ढीले कर दिए थे। तीन दिन बाद जब उन्हें काल-कोठरियों से निकाला गया तो दोनों के चेलों ने जयकार करके उनका स्वागत किया उसके बाद वो खाना खाकर बैरक के बरामदे के अलग-अलग कोनों में बैठ गए और उनके चेले उनके हाथ पैर दबाने लगे।
"कौन है बे ये, कब आया जेल में?" —मुन्ना पहलवान ने अपने चेलों से पूछा।
"उस्ताद ये भीखू हलवाई है और बैंक फ्रॉड के केस में जेल आया है।" —चेले ने बताया।
"हलवाई है या पहलवान?" —मुन्ना पहलवान ने लाठियों से पिटी अपनी गंजी खोपड़ी को सहलाते हुए कहा।
"उस्ताद हलवाई हट्टे में इसकी दुकान है, लेकिन दुकान से ज्यादा अखाड़ों में रहता है और अब दो साल के लिए जेल में आ गया है।" —चेले ने बताया।
दूसरी तरफ जब भीखू हलवाई ने मुन्ना पहलवान के बारे में सुना तो उसका व्यवहार एक दम बदल गया और उठकर सीधा मुन्ना पहलवान के पास आया और बोला— "मुन्ना भाई खता माफ़ करो मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया।"
मुन्ना पहलवान ने खोपड़ी खुजलाते हुए उसकी तरफ देखा और पूछा— "क्या चाहिए?"
"मुन्ना भाई हलवाई हूँ कोई भिखारी नहीं, दोस्ती करना चाहता हूँ।" —भीखू मुस्कराते हुए बोला।
"क्यों?" —मुन्ना उसे घूरते हुए बोला।
"चेलों को रपटा फिर बताता हूँ।" —भीखू ने कहा।
मुन्ना ने अपने चेलों को जाने का इशारा किया।
मुन्ना के चेलों के जाने के बाद भीखू बोला— "तू लल्लू की वजह से जेल आया है ना?"
"हाँ, तेरा क्या मतलब इस बात से?" —मुन्ना ने पूछा।
"अबे मैं भी उसी की वजह से जेल में हूँ।"
"कैसे?"
"मैंने और लल्लू ने हड़प बैंक से अपने पड़ोसी की ज़मीन के मकान के फ़र्ज़ी कागज़ बनाकर १५ लाख का लोन लिया था। लोन मिलने पर मैंने सारा पैसा हड़प कर बैंक और पुलिस को लल्लू के पीछे लगा दिया। लल्लू डर कर मॉरीसस में जा बसा था लेकिन उसके चेलों मंगू और बल्लू ने दारु पिला कर मुझसे सब कबूलवा कर पुलिस को रिकॉर्डिंग सुना दी और मैं फँस गया।"
"बहुत चालू है तू तो...." —मुन्ना ने हँस कर कहा।
"कहाँ चालू? चालू होता तो जेल में सड़ता?"
मुन्ना चुप रहा।
"जेल से भागना चाहता है?" —भीखू ने पूछा।
"कैसे?"
"क्या हाइट है तेरी?"
"साढ़े छे फ़ीट, क्यों?"
"अबे तू साढ़े छे फ़ीट का और मैं भी साढ़े छे फ़ीट का, कुल मिला के हुआ १३ फ़ीट। और जेल की दीवार है केवल १५ फ़ीट ऊँची। कुछ समझा?"
"समझ तो गया लेकिन बाकी तीन फ़ीट का क्या करेंगे?"
"अबे अपने कंबल है ना वो काम आएंगे।"
"लेकिन चारों तरफ संतरी फैले है वो देखते ही गोली मार देंगे।" —मुन्ना ने आशंका के साथ पूछा।
"वीरवार को नहीं, उस दिन सब कैदियों को प्रोजेक्टर पर फिल्म दिखाई जाती है, और संतरी भी लापरवाह हो जाते है उस दिन भागेंगे हम।" —भीखू ने फुसफुसाते हुए कहा।
आखिरकार वीरवार का दिन आया। सारे कैदी फिल्म, 'मुहब्बत की जंग,' देखने में मशगूल थे। संतरी चेक पोस्ट पर नजर नहीं आ रहे थे। मुन्ना और भीखू कंबल ओढ़े अपनी कोठरियों से निकले और जा पहुंचे जेल की पंद्रह फ़ीट ऊँची दीवार के पास। जल्दी से उन्होंने कंबल आपस में बाँधे। कंबल कंधे पर लाद कर भीखू मुन्ना के कंधो पर चढ़ गया और कंबल दीवार पर लगे नुकीले तीरों में फंसा दिया और दीवार पर जा चढ़ा। दीवार पर चढ़कर उसने कंबल मुन्ना की तरफ लटका दिया। एक झटके में मुन्ना भी कंबलों की मदद से दीवार पर चढ़ गया। उनकी तक़दीर से तभी जेल की ओर से गंदे कपड़ों की गाड़ी आती दिखी। दोनों खुश हो गए और गाड़ी के उनके नीचे आने पर दोनों खुली गाड़ी में गंदे कपड़ों पर कूद गए।
अचानक गंदे कपड़ों की गाड़ी के ड्राइवर को फोन आया कि कुछ गंदे कपड़े पीछे छूट गए थे, उसने गाड़ी जेल की और मोड़ दी इससे पहले मुन्ना और भीखू कुछ समझ पाते गाड़ी जेल में प्रवेश कर गयी। गंदे कपड़े डालने के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोला गया और कपड़ों के ढेर में छिपे मुन्ना और भीखू को देखकर सब हक्के-बक्के रह गए।
आधे घंटे बाद दोनों पहलवान घायल सियारों के समान अपनी-अपनी कोठरियों में पड़े जेल से भागने की दूसरी योजनाएं बना रहे थे।