जीवन के बाद
जीवन के बाद
जीवन का प्रवाह अनन्त है। हर अगणित वर्षों से जीवित हैं, आगे अगणित वर्षों तक जीवित रहेंगे। बालक जन्म लेते ही दूध पीने लगता है, यदि पूर्व स्मृति न होती तो वह बिना सिखाये किस प्रकार सब सीख जाता है। बहुत से बालकों में अत्यन्त अल्प अवस्था में ऐसे अद्भुत गुण देखे जाते हैं, जो प्रकट करते हैं कि यह ज्ञानस्रोत जन्म का नहीं, वरन पूर्व जन्म का है।
तमाम जीवन एक कपड़ा नहीं पहना जा सकता, उसी प्रकार अनन्त जीवन तक एक शरीर नहीं ठहर सकता। अतएव उसे बार बार बदलने की आवश्यकता पड़ती है। शरीर साधारणतः वृद्धावस्था में जीर्ण होने पर नष्ट होता है। अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। बहुमूल्य जीवन का अक्सर वैसा सदुपयोग नहीं किया जाता जैसा करना चाहिये था। जीवन जैसी बहुमूल्य वस्तु का दुरुपयोग करने पर उस समय मर्मांतक मानसिक वेदना होती है। मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिये एक निद्रा की आवश्यकता होती है। शरीर- परिवर्तन की एक मामूली सुख- साध्य-क्रिया मृत्यु है। दो जन्मों के बीच कुछ अन्तर हो सकता है। मृत प्राणी के साथ उसके विचार, स्वभाव, विश्वास और अनुभव भी जाते हैं। यह उचित है कि मृतक के साथ मोह- बन्धन शीघ्र तोड़ लिये जाएँ और केवल शान्ति की उच्च कामना की जाये।
जीवन के बाद मृत्यु आती है। मृत्यु के उपरान्त जीव को स्वर्ग या नर्क प्राप्त होता है, इस बात को संसार के समस्त धर्म एक स्वर से स्वीकार करते हैं। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है। परमात्मा की इच्छा है कि इस व्यवस्था द्वारा पूर्व त्रुटियों का संशोधन हो जाये और भावी जीवन का मार्ग निरापद बन जाये। मृत्यु के बाद फिर नया जीवन कर्मानुसार मिलता है।
गहराई से देखा जाये तो मृत्यु जीवन के लिये वरदान है। यदि मृत्यु न होती तो अनेकों लोगों द्वारा तड़प- तड़पकर चीखें मारते रहने से यह संसार अधिक भयानक दिखाई देता। मृत्यु वस्तुतः जीवन का सच्चा संदेश देती है। वह मूक भाषा में कहती है-“मनुष्य ! तू सदा नहीं रहेगा, जब तक जीने का अवसर है, तू देश धर्म और समाज की सेवा कर ले।“
जैसे जैसे कर्म जिस जीव ने किये होते है, वैसे वैसे फल भोगने के लिये ईश्वर उसे मनुष्य अथवा पशु पक्षी आदि के शरीर में भेज देता है। मृत्यु होने के बाद जब आत्मा शरीर में रहा ही नहीं तो उस आत्मा के नाम पर मनमानी क्रियायें करते रहना व्यर्थ है।
एक बार की बात है कि एक चतुर पण्डे ने अपने भोले- भाले यजमान के पिता की मृत्यु होने पर उसको वैतरिणी नदी पार कराने के नाम से दुधारू गाय ले ली। कुछ दिनों पश्चात् यह कहकर कि उनका पिता वहां पैदल चलने में असमर्थ है, सो एक घोड़ी भी ले ली।
जब कुछ दिनों बाद कॉलेज में पढ़ने वाला उस जाट का बेटा घर आया तो उसे न तो दूध पीने के लिये गाय मिली और वह सैर करने को घोड़ी। अपने पिता से उसने पंडे की सारी कहानी सुनी। वह प्रातःकाल पंडे के घर जा पहुँचा और उससे कहा-
“पंडित जी ! मुझे रात दादा जी ने स्वप्न में कहा है कि घोड़ी से गिर जाने के कारण उनके बायें घुटने में चोट आई है। अतः तुम तुरन्त जाकर पंडित जी के बायें घुटने में लोहे की एक सलाख़ खूब गर्म करके लगा देना, मेरा घुटना यहां अपने आप ठीक हो जायेगा”।
पंडित जी हैरानी से बोलो-“ यह कैसे हो सकता है ?”
युवक ने तुरन्त उत्तर दिया-“ जैसे तुम्हारे द्वारा यहीं घर पर गाय और घोड़ी रखने से दादा जी का स्वास्थ्य उत्तम और प्रतिदिन भ्रमण हो जाता है। वैसे ही वहां घुटना भी ठीक हो जायेगा। “
जब युवक ने पंडे का पैर पकड़ने की कोशिश की तो वह चिल्लाया-“नहीं- नहीं “।
और कहने लगा-“तुम अपनी गाय और घोड़ी तुरन्त इसी समय ले जाओ।”
जब युवक ने दूध की क़ीमत और घोड़ी का किराया मॉंगा, तो पंडे ने भविष्य में कभी ऐसी ठगी न करने की बात कहकर क्षमा मॉंगी।
वेद मंत्र के अनुसार आत्मा पुनः शरीर के प्राप्त करने से पहिले अग्नि वायु आदि में भ्रमण करता है। शरीर छोड़ने के पश्चात जीवात्मा परमात्मा के अधीन होता है। इसलिये हमें किसी भी प्रकार की भ्रान्ति से दूर रहना चाहिये।
