Yogesh Kanava

Tragedy

5.0  

Yogesh Kanava

Tragedy

जड़ से कटा

जड़ से कटा

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रोजाना का यही क्रम था, पार्क के कोने वाली बैंच और उस पर एक लगभग सत्तर साल का वो बुजुर्ग। घण्टों वो उसी बैंच पर बैठा रहता था एकदम गुमसुम, ना किसी से कोई बातचीत, ना ही किसी से कोई मेलजोल। उसकी उम्र के कई लोग उसी पार्क में आते थे जो अपनी अपनी टोली में प्रायः दुनिया जहान की बातें करते थे। आपस में कभी उलझते तो कभी सहमत होते या असहमत होते। कभी सरकार की मोद्रिक नीति, कभी विदेश नीति पर चर्चा करते तो कभी राजनीति पर। कई बार तो ऐसा लगता कि मानो पार्क में बैठी यह बुजुर्ग मित्र मण्डली ही आज देश का भविष्य तय करने वाली है। खूब तू तू मैं मैं होती और फिर आखिर में सभी अपने अपने घर को रवाना हो जाते। इन सब बातें से दूर अपने में ही गुमसुम वो कोने की बैंच में बैठा बुजुर्ग। किसी से कोई मतलब ही नहीं, लेकिन इतनी खामोशी ? इतना वीराना ? यह समझ से परे था। सभी लोग देखते थे उसे लेकिन सच में किसी को कोई मतलब नहीं था उससे। वैसे भी नवपल्लवित यह महानगरीय संस्कृति कब किसकी परवाह करती है। बगल में बैठा आदमी कौन है, क्यों बैठा है, उसे कोई तकलीफ तो नहीं है, उनको कोई मतलब नहीं तो फिर उसकी परेशानी या चुप्पी को जानने की किसको फुरसत है।

वो बुजुर्ग मण्डली कई बार उसके बारे में बातें जरुर करती थी लेकिन शायद उनके शहरी होने के बोध के कारण या इसके आवरण के कारण उससे बात नहीं कर पाए। वो बेचारा गाँव का धोती कुर्ता पहनने वाला उन शहरी पैन्ट-शर्ट वालों की जमात में फिट नहीं था, शायद इसी कारण से उनमें से किसी ने कभी भी उससे मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की थी। उनमें से किसी ने भी यह नहीं सोचा कि वो भी उन्ही की उम्र का एक सीधा सादा व्यक्ति है और उधर वो उनसे इसलिए बात नहीं करता था कि शायद ये पढे-लिखे लोग मुझे गंवार समझ मेरा मजाक बनाएगें। उसका अंदेशा गलत भी तो न था, वो लोग उसके लिए दबी जुबान से बोलते भी थे ना ’’किसी गाँव का है बेचारा शायद किसी के घर में नौकर होगा, चलो हमें क्या ?’’

कई दिनो के इस क्रम मे एक दिन एक मोड़ आया। वो अपने में ही खोया हमेशा की तरह चुपचाप कोने वाली बैंच में बैठा था, तभी एक सात आठ साल का बच्चा आया और बोला-

आप यूँ चुपचाप क्यों रहते हो ? सब लोग तो कितने मजे से बात करते हैं, गप्पे लगाते हैं। वो सब भी तो आपकी ही उम्र के हैं ना ? फिर आप अलग क्यों रहते हैं।

यूँ ही बेटा बस......कुछ नहीं.....यूँ ही।

यूँ ही लेकिन क्यों ? ये लोग आपके दोस्त नहीं हैं क्या ?

नहीं बेटा, मैं इनको किसी को भी नहीं जानता हूँ। फिर ये लोग जो बातें करते हैं वो भी बहुत बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। मैं ठहरा ठेठ गाँव देहात का और ये सब शहरी

आप गाँव से हैं ?

हाँ बेटा

तो आप यहाँ कैसे आए ?

बस आ गया यूँ ही .....अँ ....अँ ....समझ लो बस किसी तरह आ गया हूँ। ...खैर बेटा तुम छोटे हो और मैं तो देहात का हूँ ज्यादा समझा भी नहीं पाउँगा ना।

कोई बात नहीं। अब मेरे दोस्त मुझे बुला रहे हैं, मैं जाता हूँ।

वो बच्चा चला गया, इधर वो बुजुर्ग सोचता रहा, आज पहली बार चार महीनों में मुझसे किसी ने बात की है, इस पराए शहर में। पराया ही तो है, बेटा बहू रात दस बजे तक अपने अपने काम से लौट कर आते हैं और सुबह जल्दी निकल जाते हैं। उनको ही जब फुरसत नहीं है मेरे लिए तो फिर इस शहर में अपना कौन होगा ? सोचते सोचते वो खो गया अपने गाँव की सौंधी माटी की याद में-

बगल में घींसा से बातचीत की .....कभी रामप्यारी भौजी की मजाक ..... कभी कालू से तकरार। कितना अच्छा है अपना घर अपना गाँव, अपने गाँव की माटी। सोचते सोचते इसकी आँखो से दो बूँद टपक पड़ी। वो उठा और घर की ओर चल दिया। घर .... हाँ कहने को तो घर ही था .....पूरी तरह से सजा धजा, सभी आधुनिक सुविधाएं। क्या नहीं था उसमें ...पूरा घर एयर कण्डिशन, अपने आप बन्द होने वाले दरवाजे जो बिना चाबी के नही खुलें। एक बार वो चाबी लेना भूल गया था, वैसे ही घर के बाहर आ गया था, बस कुछ देखने और दरवाजे बन्द हो गया था। अब खुल भी नही सकता था बिना चाबी। पूरा दिन घर के बाहर ही बैठा रहा भूखा प्यासा, उसे तो यह डर लग रहा था कि कहीं गया नहीं और पीछे से कोई दरवाजा खोल ले तो ? कोई चोर चोरी कर ले जाए। भूख तो बरदाश्त कर लेता लेकिन पानी ... पानी का क्या करे ? फिर सोचा निर्जला ग्यारस भी की है पहले कौनसा बिना पानी मर ही जाउँगा। अपने आप को दिलासा देता रहा ओर पूरा दिन घर की चौकीदारी करता रहा। रात दस बजे के करीब बेटे बहू आए तो दरवाजा खुला। पूरी बात जब उसको समझ आई तो बजाए सहानुभूति के या समझाने के वो दोनो ही उसे डांटने लगे थे। उस रात वो बहुत रोया था। अपनी मरी हुई पत्नी को भी याद करके रोता रहा और बुदबुदाता रहा .. क्यों चली गई मुझे छोड़कर इस तरह रोने के लिए, इस तरह से फटकार सुनने के लिए। बहुत याद आई थी उस रात उसे अपनी पत्नी की और अपने गाँव की। पूरी रात वो सो नहीं पाया था सो सुबह दर्द के मारे सर फट रहा था लेकिन डर के मारे किसी से कुछ नहीं कहा। बस, चुपचाप उठा, हाथ मुँह धोया और बैठ गया। वो लोग अपने अपने काम से चले गए, बस वो किसी तरह से एक रोटी खा कर सो गया।

बस दिन यूँ ही निकलते रहे। आज एक बार फिर पहले की ही तरह चाबी लेना भूल गया था, इससे पहले भी ज्यादा डांट पड़ी थी। इस बार उसे खुद भी लगा कि वो कुछ ज्यादा ही लापरवाही बरत रहा है सो इस बार उसने गाँठ बाँध ली कि अबकी बार ऐसी गलती दोबारा नहीं होगी, नहीं मन उसने इस बात का निश्यच भी कर लिया।

आज घर में बैठे उसे कुछ ज्यादा ही बोरियत महसूस हो रही थी। टी0 वी0 चलाना भी नहीं जानता था वो, हालांकि उसे समझाया भी था लेकिन समझ नहीं पाया था सो क्या करता।

शुरु में तो नरम नरम डनलप के सोफे उसे गुदगुदाते थे। कई बार वो अकेले में उन पर बैठ उचकता था बच्चों की तरह। बहुत अच्छा लगता था उसे, बड़े मजे आते थे। उचकता था और खुद ही मुस्कुराता था लेकिन आज वो ही सोफे चुभते से लगते हैं। वो सपनो के महल सरीखा घर अब उसे कालकोठरी सा लगने लगा था लेकिन करता भी क्या उसकी मजबूरी थी। एक आध बार उसने हिम्मत करके बेटे से कहा भी था कि वो गाँव का चक्कर लगाना चाहता है लेकिन बहु ने कर्कष सी बात कही थी- अब हमारी गाँव बदनामी करवाना चाहते हैं कि बहू ने नहीं रखा सो बेचारा वापस आ गया।

वो बार बार सोचता कि आखिर क्यों आया था वो यहाँ। क्यों अपना घर अपनी माटी अपना गाँव छोड़कर आ गया हूँ मैं। इस बेगाने से परायों की नगरी में, जहाँ अपने भी परायों से कम नहीं हैं ? गाँव में सब सोच रहे होंगे कि मैं बड़े मजे मे हूँ लेकिन ... लेकिन वो क्या जाने इस माया नगरी में मैं .....।

लगता है जेल में बन्द हूँ, हाँ जेल से कहाँ कम है यह। बेटे-बहू अपने में मस्त, अपने अपने काम में मगन और इस बुड्ढे की परवाह किसी को नहींं। दो रोटी तो मुझे गाँव में मिल रही थी ना। जैसी मुझसे बन पड़ती थी खा लेता था लेकिन यहाँ की चुपड़ी से तो वो मेरी सूखी, खुद की सेकी दो रोटी ही कहीं ज्यादा अच्छी थी। बस यूँ ही सोचते सोचते वो कब सो गया पता ही नहीं। जब आँख खुली तो बहुत देर हो चुकी थी। अंधेरा हो गया था, उसने बड़े ही अनमने से लाइट जलाई और फिर इधर उधर टहलने लगा। चाय की बहुत इच्छा हो रही थी लेकिन गैस का चूल्हा जलाना अभी तक नहीं आया था सो मन मारकर बस एक गलास पानी पी लिया बस। क्या करता बेचारा बहू बेटे ने समझाया तो था कि जब भी भूख लगे तो फ्रिज से सब्जी ओर केसरोल से रोटी लेकर खा लिया करो।

माइक्रोवेव ओवन में गर्म करने का भी तरीका बताया था लेकिन बेचारा ठहरा गाँव का गंवई, नहीं समझ पाया था सो बस हमेशा ही ठण्डी सब्जी और ठण्डी रोटी ही खा लिया करता था। आज तो सर बहुत दुख रहा थ चाय का मन कर रहा था लेकिन अब क्या करे, खुद पर गुस्सा भी बहुत आ रहा था, क्यों नहीं समझ पाया था गैस जलाना। खैर पानी पी कर घर में ही इधर उधर चक्कर लगाने लग गया। टी0 वी0 भी चलाते डर लग रहा था। एक दिन उसने चला लिया था लेकिन नंगी-पंगी सी लड़कियों को देख उसे खुद शर्म सी लगी चैनल बदलने के चक्कर में जाने कौनसा बटन दब गया, टी0वी0 बंद हो गया था। अब वह घबरा गया था कि आज तो लाखों का टी0 वी0 उसने खराब कर दिया है न जाने अब क्या होगा। डर के मारे उसने कुछ भी नहीं बताया बस अनमना सा बैठ गया था। उसकी जान तो समझो निकल ही गई थी, जब बहू ने टी0वी0 चलाया था और टी0वी0 नहीं चला था। वो खीज से बड़बड़ा रही थी- न जाने क्या कर देते हैं। जब टी0वी0 चल गया तो समझो उसकी जान में जान आ गई। सोच रहा था चलो अच्छा हुआ, यह चल गया अब इसको हाथ भी नहीं लगाउंगा।

आज पार्क में एक अजीब नजारा उसे देखने को मिला उसने पूरे जीवन में कभी नहीं सुना था वो आज देखा। एक पूरा का पूरा पेड़ कहीं से जड़ सहित उखाउ़ कर किसी बड़ी सी मशीन से उठा कर लाए और कोई एक मशीन से खड्डा खोदकर उस पेड़ को पार्क में ही लगा दिया। वो समझ ही नहीं पा रहा था कि कभी अपनी जड़ों से उखड़ कर भी कोई पेड़ बच सकता है। तभी वो कल वाला बच्चा आ गया था। उसने संकोच करते हुए उस बच्चे से पूछ ही लिया-

बेटा ये क्या कर रहे हैं ?

अरे आपको नहीं पता वो ना रोड़ चौड़ा कर रहे हैं उसके बीच में जितने भी पेड़ आ रहे थे ना सबको उखाड़ कर कहीं ना कहीं लगा रहे हैं।

तो बेटा ऐसे लग जाएगा क्या ?

हाँ क्यों नहीं देखो ना क्रेन उठा कर लाए हैं और ये जे सी बी से खोद कर उसे लगा रहे हैं।

अच्छा तो इन दोनों मशीनों को क्रेन और जे सी बी कहते हैं।

हाँ....

बस इतना कहा और वो बच्चा चला गया। वो सोचता रहा शहरों में भी क्या क्या होता है हमने तो कभी सुना भी नहीं। वो रोज़ाना उस पेड़ को उत्सुकता से देखता था कि कब यह हरा होगा। पार्क का माली भी दो-चार दिन में एक मोटे से पाइप से उसमें पानी दे ही देता था। वो रोज़ाना देखता और शाम को घर आ जाता। अब भी उस बुजुर्ग मण्डली से उसकी कोई बातचीत नहीं होती थी, आज भी एक अनजान और सबस्टैण्डर्ड पर्सन। बस यूँ ही इसी तरह कभी पार्क में तो कभी घर मे अगले कुछ महीने और निकल गए, उधर उस बच्चे से भी उसका लगाव होने लगा था। गुजरते समय के साथ उस लगाए गए पेड़ मे हरियाली नहीं आई। उस बच्चे ने आज उत्सुकता से पूछ लिया।

बाबा ये पेड़ तो जल गया।

हाँ बेटा ये दुनियाँ नहीं समझती है, अपनी जड़ों से उखड़ कर कभी भी कोई पनप नहीं सकता है। कभी कोई खुश नहीं रह सकता है।

तो आप खुश क्यों नहीं रहते हो बाबा ? आप भी अपनी जड़ों से कटे हो क्या ?

उस बच्चे की बात सुनकर उसकी आँखें में नमी आ गई। बरबस ही उसके मुँह से निकल पड़ा।

हाँ बेटा मैं भी जड़ों से कट ही गया हूँ। छूट गया है मेरा गाँव, मेरी माटी, मेरा घर, मेरी जड़ें। लोग नहीं समझना चाहते हैं कि अपनी जड़ों से अलग करना कितना बड़ा पाप है। वो कभी नहीं समझ सकते हैं। पेड़ हो या इन्सान अपनी जड़ों से अलग हो कर कब ज़िन्दा रह पाया है।


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