जबरा पहाडिया/तिलका मांझी
जबरा पहाडिया/तिलका मांझी
जबरा पहाड़िया/तिलका मांझी
तिलका माँझी संथाल समुदाय के थे। इनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 को हुआ था।
भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में पहला आदि विद्रोही संथाल आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को माना जाता हैं। जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। इनमें सबसे लोकप्रिय संथाल आदि विद्रोही तिलका मांझी हैं।
जबरा उर्फ़ तिलका मांझी भागलपुर के तत्कालीन जिला कलेक्टर क्लीवलैंड द्वारा गठित ‘पहाड़िया हिल रेंजर्स’ के सेना नायक थे। प्रत्यक्षतः रूप में वे अंग्रेजी शासन के वफादार बनते किंतु नाम बदल कर ‘तिलका’ मांझी के रूप में अपने सैंकड़ों लड़ाकों के साथ गुरिल्ला तरीके से अंग्रेज शासक, सामंत और महाजनों के साथ युद्धरत रहते थे।
वह ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। इसलिए हिल रेंजर्स के सरदार जौराह उर्फ जबरा मांझी तिलका मांझी के नाम से विख्यात हो गए। ब्रिटिशकालीन दस्तावेजों में भी जबरा पहाड़िया नामोल्लेख मौजूद है।
1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई जारी रखी। 1784 में जब उन्होने क्लीवलैंड को मारा तब आयरकुट के नेतृत्व में उनकी गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ। इसमें उनके कई लड़ाके मारे गए और जबरा गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया, मीलों घसीटे जाने के बावजूद यह जुझारू पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उनकी देह और लाल-लाल गुस्सैल आंखें ब्रितानी राज के होश उडा रही थीं। अंग्रेज इतने भयभीत थे कि उन्होंने उन्हें वहीं, भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम फांसी पर लटका दिया। यह 13 जनवरी 1785 का दिन था जब जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए।
इसके बाद आज़ादी के हज़ारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और हंसते - हंसते फांसी पर चढ़ गए। उनका प्रिय गीत जिसे गाते -गाते वे फंदे पर झूल गए, "आमी हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...!" आज भी इस आदि विद्रोही की याद दिलाता है।
