इण्डियन फ़िल्म्स 2.6

इण्डियन फ़िल्म्स 2.6

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समर कॉटेज , त्यौहार के दिन और रोज़मर्रा के दिन...



नानू शेड के पास बेंच पे बैठे है। उनके सामने तामचीनी की बाल्टी थी, जिसमें प्याज़ और माँस था। वो कबाब बना रहे हैं,और मैं और व्लादिक अलाव में टहनियाँ जलाकर आंगन में घूम रहे हैं। ये हमारी मशालें हैं। वो जल्दी से बुझ जाती हैं, और हम उन्हें फिर से जलाने के लिए अलाव के पास जाते हैं। वो फिर से बुझ जाती हैं, और हम तय करते हैं, कि चलो, इन्हें तलवारें बना लेते हैं। हम लड़ना शुरू करते हैं। व्लादिक जीत जाता ह, क्योंकि वह जीतना चाहता है, और मैं ये चाहता हूँ, कि युद्ध ख़ूबसूरत हो।  

ये विजय-दिवस (9 मई – अनु।) है, जो हम अपनी ‌समर कॉटेज में मना रहे हैं। तोन्या नानी घर के अंदर तरह तरह के सलाद बना रही है। जल्दी ही व्लादिक के मम्मी-पापा आ जाएँगे, नानू के दोस्त इलीच और वीत्या भी आएँगे, जो नानू को ‘मेरे बाप’ कहता है। और, नीली “ज़ापरोझेत्स” कार में दादा वास्या और दादी नीना भी आएँगे, जो व्लादिक के दादा-दादी हैं।

दादा वास्या के साथ फुटबॉल पर बहस करना अच्छा लगता है, क्योंकि वो भी सारे मैचेस देखते हैं; और वो मुझे इसलिए भी अच्छे लगते हैं, कि हालाँकि वो सत्तर साल के हैं, मगर हमेशा इस्त्री किया हुआ सूट पहनते हैं, बढ़िया टाई लगाते हैं, उनके बाल हमेशा पीछे की ओर करीने से कढ़े रहते हैं, और एक भी बाल बिखरता नहीं है, चाहे दादा वास्या कुलाँटे ही क्यों न मारें।

मगर मेरे नानू, जिन्हें भी मैं बहुत प्यार करता हूँ, हमेशा कोई सलवार पहने रहते हैं, एक ही, पुराने ज़माने की खाकी रंग की कमीज़ और हल्की पीली चीकट कैप लगाए फिरते हैं, जिसे मेरे पैदा होने से बहुत पहले उन्होंने किसी रिसॉर्ट पे ख़रीदा था।

लोगों ने मेरे नानू को लेदर की, कॉड्रोय की, ऊनी कैप्स दी थीं, और इलीच तो हमेशा पूछता है कि आख़िर वो “अपनी इमेज कब बदल रहे हैं”, सब बेकार। नई कैप्स का ढेर अलमारी में पड़ा है, मगर नानू अपनी उसी हल्की-पीली, फ़ेवरिट कैप में घूमते हैं। और न सिर्फ समर कॉटेज में, बल्कि फ़ार्मेसी के गोदाम में भी, जहाँ वो डाइरेक्टर हैं।

त्यौहार पूरे जोश पे है। इलीच मुझे नन्हा पिग्लेट कहता है, और इससे मुझे बहुत गुस्सा आता है। नानू और वीत्या बहस कर रहे हैं, कि वास्या की “ज़ापरोझेत्स” के लिए टायर्स कौन जल्दी लाएगा, वर्ना दादा वास्या तो शिकायत कर रहे थे, कि वो – कब के चिकने हो चुके हैं। जब से हमारे कम्पाऊण्ड में एक ही पत्थर पे दादा वास्या के लगातार तीन टायर्स पंक्चर हो गए थे, मेरे नानू हर बात में उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं।

और अचानक बारिश होने लगती है। हम घर के अंदर भागते हैं; कुर्सियाँ मुश्किल से ही सबके लिए हैं, मगर किसी तरह बैठ जाते हैं और बिगड़े टेलिफोन का खेल खेलने लगते हैं। इलीच सबसे ज़्यादा हँसता है, हालाँकि पता चल रहा है, कि उसे वाकई में मज़ा नहीं आ रहा है। व्लादिक के पापा, इससे उलटे, जानबूझकर नहीं हँसते, जिससे ये ज़ाहिर करें कि – बिगड़ा हुआ टेलिफ़ोन कितना बेवकूफ़ खेल है – उसके मुकाबले, जैसे मिसाल के तौर पे, चैज़ के लेखों के संग्रह के, जिसके दो खण्ड वो साल भर से हर महीने ख़रीदते हैं। और मैं चाहता हूँ, कि सब लोग रात में कॉटेज में ही रुक जाएँ। इसके लिए ये ज़रूरी है, कि बारिश सुबह तक होती रहे, वर्ना पता नहीं, कि सब लोग रुकेंगे या नहीं।

मगर जल्दी ही सूरज निकल आया, और हम अपने-अपने घर जाने के लिए निकले। दादा वास्या मुझे “ज़ापरोझेत्स” में घर छोड़ने के लिए तैयार हो गए। जैसे ही वो स्पीड बढ़ाते हैं, मैं सीट से आगे झुकता हूँ, और इंजिन की आवाज़ से भी ऊँचे, उम्मीद से पूछता हूँ:

“वास्, अब तू कहीं घुसा देगा, हाँ ! (ख़ैर, ये तो मैं यूँ ही मज़ाक कर रहा हूँ)।

“छिः, तू गंदा यूसुफ़!‌” दादा वास्या फुफकारते हैं और गाड़ी धीरे चलाने लगते हैं।

यूसुफ़ क्यों – सिर्फ ख़ुदा ही जानता है।

और दिनों में सिर्फ मैं और तोन्या नानी ही समर कॉटेज जाते हैं। कभी कभी व्लादिक भी आ जाता है, मगर आजकल उसका एक दोस्त पैदा हो गया है – ल्योशा सकलोव, जिसकी वो इतनी हिफ़ाज़त करता है, कि मुझे भी उससे मिलवाने में शरमाता है।

बात सही है, अगर अचानक मैं बोल दूँ कि हमने खिड़कियाँ चिपकाने वाले कागज़ पर कैसे फ़िल्में बनाई थीं, तो ?

मतलब, मैं और तोन्या पहाड़ी पर जाते हैं, फिर बास मारती नदी के ऊपर का पुल पार करते हैं, और वहाँ से समर कॉटेज बस दो हाथ की दूरी पे है। हम अपने बैक पैक्स उतार भी नहीं पाते, कि मैं फ़ौरन पड़ोसियों के यहाँ भागता हूँ। आन्ना बिल्याएवा, विक्टर पेत्रोविच और कुबड़ी आन्ना मिखाइलोव्ना के पास।

आन्ना बिल्याएवा मुझे “ख़रगोश” कहकर बुलाती है और बातें करते हुए पुचकारती है। अजीब बात है, कि मुझे वही सबसे ज़्यादा अच्छी लगती है। मगर आन्ना बिल्याएवा के सिर पे हमेशा रूमाल बंधा होता है, वो हमेशा जैसे धूल से भरी होती है, और उसका पुचकारना बिल्कुल बुरा नहीं लगता।

विक्टर पेत्रोविच मेरी तरफ़ कम ध्यान देते हैं, मगर उनका घर बहुत बड़ा और ख़ूबसूरत है और दरवाज़े के सामने चकमक पत्थर का चबूतरा है। इन चकमक पत्थरों से घिसकर मैं चिंगारियाँ निकालता हूँ। और अगर देर तक घिसा जाए, तो चकमक पत्थर जली हुई मुर्गी जैसी गंध छोड़ते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है, कि मैं तोन्या नानी से ज़िद करता हूँ, जिससे वो भी चकमक पत्थर सूँघे। एक बार तोन्या नानी मेरे आस-पास नहीं थी, इसलिए मैंने कुबड़ी आन्ना मिखाइलोव्ना को चकमक पत्थर सूँघने का सुझाव दिया। तब से वह इस बात पर ज़ोर डाल रही है, कि हम अपनी रास्बेरी को कहीं और लगा लें, जो उसके आँगन में पसर रही है।

और कुछ ही दिन पहले हमारा गेट खुलता है और बुदुलाय (प्रसिद्ध फ़िल्म ‘जिप्सी’ का हीरो) भीतर आता है। फ़िल्म “जिप्सी” तो मुझे कुछ इण्डियन फ़िल्म्स से भी ज़्यादा पसंद है, और यहाँ – सचमुच का, असली बुदुलाय, दाढ़ी वाला, कुछ सफ़ेद बाल, हट्टा कट्टा, और न जाने कैसे, वो तोन्या नानी को जानता है!

“अन्तोनीना इवानोव्ना!” वो चिल्लाता है।

नानी बाहर आती है, और पता चलता है, कि ये ईल्या अंद्रेयेविच है, जिसके साथ वह कभी काम किया करती थी। मगर मेरे लिए तो वो – सिर्फ अंकल बुदुलाय है।                    

उसे अच्छा लगता है कि मैं उसे इस नाम से बुलाता हूँ। पता चलता है कि उसकी समर कॉटेज बिल्कुल हमारी कॉटेज के पास ही है, और अब मैं सारे दिन वहीं बिताता हूँ। बुदुलाय के यहाँ बड़े बड़े सेब हैं, गुलाबी रंग के, और अब ये मेरा पसंदीदा ब्राण्ड बन गया है, और उसके घर की दीवारों पर हमारे ड्रामा थियेटर के पुराने ‘शो’ “हाजी नसरुद्दीन की वापसी” के इश्तेहार चिपके हैं, और बुदुलाय मुझे कुछ इश्तेहार देता है, जिससे मैं भी अपने घर में दीवारों पर चिपकाऊँ।

उसका एक बेटा भी है – अंद्रेइ, जिसके साथ मिलकर मैं ग्रीन हाउस बनाता हूँ, मतलब, वो और बुदुलाय बना रहे हैं, और मैं बगल में घूम रहा हूँ और अंद्रेइ को ड्रम में बॉल फेंकने के लिए बुलाता हूँ। एकदम तो नहीं, मगर मैं बॉल डाल ही देता हूँ, और हम बड़ी, दानेदार, हरी बॉल पानी से भरे बड़े भारी, लोहे के ड्रम में फेंकने लगते हैं। फिर खाना खाते हैं। मुझे भूख नहीं है, मगर जब मैंने देखा कि बुदुलाय ने कैसे चाकू से डिब्बा-बंद चीज़ें खोलीं और, चाकू से उन्हें हिलाकर उसमें ब्रेड डुबाने लगा, तो मैं समझ गया कि मैंने बेकार ही अपने हिस्से के खाने से इनकार किया था, और मैं कहता हूँ, “दीजिए”। बुदुलाय बाऊल लेता है, जिससे डिब्बे से कुछ खाना निकालकर मुझे दे, मगर मेरे लिए तो बाऊल के बजाय सीधे डिब्बे से ही खाना महत्वपूर्ण है, और मैं पूछता हूँ, “क्या मैं भी इसी तरह सीधे डिब्बे से खा सकता हूँ”। बुदुलाय मुस्कुराता है, ख़ास मेरे लिए एक डिब्बा खोलता है और मुझे चाकू देता है, ज़ाहिर है, वह समझ रहा था कि फ़ोर्क से खाना मुझे उतना स्वादिष्ट नहीं लगेगा।

और कहते हैं, कि जो चाकू से कहता है – वो दुष्ट होता है। बकवास। बुदुलाय, शायद अक्सर चाकू से ही खाता है, और उससे ज़्यादा भले किसी और आदमी को मैं नहीं जानता।      


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