इक्वलिटी
इक्वलिटी
बसंत ऋतू की भोर, उस पर इतवार का वह दिन, सुबह सुबह बहती हवा की शीत लहर हप्ते भरे के थके हारे बदन को, गहरी नींद की आगोश में ढकेल देती है। ऐसी ही उस भोर की गहरी नींद में दूर से कुछ आवाजे सुनायी देने लगी। पहले तो डमरू की डमडम कानो में बजने लगी, और उसके साथ ही दिमाग में "इक्वलिटी" शब्द भी अपने आप न जाने कैसे गूंजने लगा।
नींद तो इतनी प्यारी थी, की आँख खोलने का मन नहीं हो रहा था, उपर से छुट्टी का दिन, "संडे इज अ फन डे"
लेकिन उफ, पहले जो डमरू की आवाज दूर सुनायी दे रही थी, वह अब धीरे धीरे पास आने लगी, और उसके साथ ही एक मर्द की आवाज भी।
" आओ रे... आओ रे... ओ भाई लोग... ओ बाबू लोग...आओ रे। देखो देखो खेल देखो। आपकी बस्ती में खेल आया। आओ रे ... आओ रे"
आवाज और भी पास और तेज आने की वजह से, नींद में खलल पैदा हो, दिमाग में चिढ़चचिढ़ाहट उठने लगी।
"अरे यार, क्या सुबह सुबह की नाटक है? एक दिन तो मिलता है हफ्ते में फुरसत से सोने के लिये, इतनी प्यारी नींद आ रही थी और कुछ नया सुझ रहा था, इस शोर ने तो दिमाग खराब कर दिया। नींद भी तोड़ दी और सोच भी" मैं बिस्तर पर तिलमिलाते हुये, अकेली ही बड़बड़ाते हुये कान में रुई भरकर फिर से सोने का असफल प्रयास कर ही रही थी कि,
"ओ साहब, ओ मेम साब। आओ आओ, देखो देखो खेल देखो"
एक नन्ही सी आवाज कान में पड़ी और ना चाहते हुये भी मन के साथ तन, पाँव में स्लिपर और नाइटी पे दुपट्टा ओढ़, उस दिशा की ओर दौड़ पड़ी।
मोहल्ले के एक छोटे से खाली चौक में वह खेल दिखाने आये थे, जिसे हमारी मराठी भाषा में "डोंबारी" कहते है।
इतवार का दिन था। स्कूल और ऑफिसो में छुट्टी होने से, बच्चे और बड़े भी अपने अपने घरो में पंखे, कूलर की हवा में सोये थे। किंतु आवाज सुनने से सब आँखे मलते हुये एक एक करके चौक में खेल देखने इकठ्ठा होने लगे।
कुछ बांबू की लकड़ियां, मोटी रस्सी, और लोहे की रिंग जमीन पर पड़ी थी। पास ही जमीन पर चादर बिछी थी, जहाँ छोटा सा बच्चा सो रहा था। वही पास पाँच साल की एक नन्ही सी बच्ची, पच्चीस तीस साल की औरत के बाजू में खड़ी थाली और लकड़ी का खेल खेल रही थी और तीस पैतिस साल का मर्द,
"आओ रे। आओ रे बाबू लोग। देखो देखो, आपकी बस्ती में क्या आया। देखो देखो, आपकी बस्ती में खेल आया। खेल देखेगा तो साहब और मेमसाब खुश होगा। खुश होगा तो क्या होगा? खुश होगा तो इस बच्ची को इनाम देगा। अठ्ठनी देगा, रुपया देगा। बच्ची अपने भाई के साथ,पेट भर खाना खायेगी। आओ रे...आओ रे साहब लोग, बाबू लोग, देखो देखो खेल देखो। बच्ची का खेल देखो" भीड़ इकठ्ठा करने के लिये आवाजे लगाये जा रहा था।
बच्ची लकड़ी से थाली बजा रही थी। औरत शायद उसकी माँ, डमरू बजा रही थी और वह मर्द शायद उसका बाप लकड़ी को रस्सी बांध रहा था।
दो दो लकड़ी तिरछी खड़ी कर बांध रखी थी। उपर लंबी रस्सी लटकने लगी जो दोनो सिरो से बंधी थी।
अगले ही पल इशारा कर उस आदमी ने बच्ची को पास बुलाया। तब तक औरत भी बैठी जगह से उठ खड़ी हुई।
अब औरत के हाथ का डमरू उस आदमी के हाथ आया। वह जहाँ खड़ा था, वहाँ दोनो माँ बेटी आ खड़ी हुई।
वह आदमी डमरू बजाते हुए, " देखो देखो भाई लोग। देखो देखो साहब लोग। नन्हे भी देखो, बड़े भी देखो और बुजुर्ग भी देखो। सलवार वाली मेमसाब भी देखो और साड़ी वाली मेमसाब भी देखो। अभी ये बच्ची करतब दिखायेगी। खेल दिखायेगी। आप सब को खुश कर देगी। देखो देखो,सब इस लड़की का खेल देखो"
और उसने लड़की को एक हाथ से गोद में उठाते हुए, दूजे हाथ से डमरू बजाना शुरू कर दिया।
फिर धीरे धीरे लड़की को अपने हाथ के पंजे पर खड़ा करने लगा, अब उसके हाथ का डमरू औरत के हाथ में आकर जोर जोर से बजने लगा।
लड़की को हाथ के पंजो पर खड़ा कर वह लकड़ी से बंधी रस्सी की ओर चलने लगा। वहाँ खड़ा हो, "ए बच्ची, तू अब क्या करेगी?" खड़ी भीड़ की तरफ देखते हुए सवाल पुछने लगा।
"खेल दिखाउंगी"
"कौन सा खेल दिखायेगी?"
"करतब दिखाउंगी"
"कौन सा करतब दिखायेगी?"
"बाबू लोग खुश होंगे वो करतब दिखाउंगी"
"तू बाबूलोग को खुश करेगी"
"हाँ करूंगी"
"तू रस्सी पे चलेगी?"
"हाँ। चलूँगी"
"डरेगी तो नहीं!"
"नहीं, नहीं डरूंगी"
"तू रस्सी पे चल के दिखायेगी, तो बाबू और मेमसाब खुश होंगे, तूझे इनाम मिलेगा"
"हाँ, मैं रस्सी पे चलूँगी" लड़की तोते के समान सिखाये गये जवाब दे रही थी।
"तो चल हो जा शुरू" और उस लड़की को रस्सी पर चढ़ाने से पहले उसके गाल को चूमकर, "बच्ची होशियार है। अब सबको करतब दिखायेगी" कहते हुए उसे रस्सी पर चढ़ा दिया। वह रस्सी के पहले छोर पर कोने में बैठ गयी। अब तक उस आदमी ने बच्ची का हाथ पकड़ रखा था। बाजू में डमरू बजाती हुई औरत हाथ में एक पतली लेकिन मजबूत लकड़ी ले आयी।
रस्सी पर बैठी लड़की के हाथों में वह लकड़ी थमा दी गयी। लड़की ने पहले उसे मुंँह के बीचोबीच पकड़ा, बाद में धीरे धीरे खड़े होते हुए, दोनो हाथों में मुँह से लकड़ी निकाल के पकड़ ली। नीचे जोर जोर से डमरू बजने लगा, और ऊपर रस्सी पर लड़की धीरे धीरे एक एक पाँव आगे डालते हुए चलने लगी।
पता नहीं उस वक्त, उस लड़की के और उसके माँ बाप के दिल में क्या उठ रहा था, क्या चल रहा था? कुछ चल भी रहा था या नहीं, किंतु उसके उठते एक एक कदम के साथ, मेरे सीने पर उन कदमो के जख्म उठने लगे।
ऊपर लड़की धीरे धीरे कदम उठाते हुए, रस्सी के इस कोने से, उस कोने तक चले जा रही थी और उसी गति से नीचे वह आदमी भी उसके साथ साथ जोर से डमरू बजाते हुए, "देखो साहब देखो। लड़की का खेल देखो। लड़की की करतब देखो। लड़की रस्सी फर चल रही है। बजाओ बजाओ। बच्चा लोग ताली बजाओ" कहते चल रहा था।
आखिर वह पल भी आ गया, जब देखने वालों की सीने में अटकी हुई साँस गले से निकल पड़ी और वहाँ तालियाँ गूंजने लगी, जब लड़की ने रस्सी की लंबाई पार करते हुये, दूसरे छोर पर पाँव रखा। हाथ में पकड़ी लकड़ी को जमीन पर फेकते हुए, नीचे बैठ गयी। तब उतनी ही तेज गती से वह आदमी लड़की की तरफ लपका और उसे दोनो हाथों से पकड़ते हुए, नीचे उतार दिया।
लड़की माँ की तरफ लपकी, उसने लड़की की पीठ थपथपाते हुए नीचे बैठा दिया।
मैं देख रही थी, इस पूरी गतिविधियों में उनके बीच कोई संवाद नहीं हो रहा था, बस इशारों से ही काम चला रहे थे।
लड़की स्थिर हो गयी, वही नीचे बिछे कपड़े पर बैठ गयी। मुझे लगा शायद खेल खत्म हो चुका हो। किंतु वहाँ फिर से हो रही गतिविधियों से खेल खत्म होने के कोई संकेत नजर नहीं आ रहे थे।
अभी तो खेल का एक भाग खत्म हुआ था, दूसरा भाग दिखाना बाकी था। खेल के उन दो भागों का, लड़की का भाग खत्म हो, अभी उस औरत का भाग शुरू होना बाकी था।
नीचे बैठी लड़की के हाथो में थाली और बजाने की छोटी लकड़ी आ गयी। मर्द के हाथ में वही डमरू था और औरत के हाथ में एक बड़ी, उससे दूसरी उससे छोटी, और तीसरी उससे भी छोटी ऐसी तीन साइज की तीन लोहे की रिंग आ गयी।
फिर से डमरु की "डम डम डम डम"आवाज लोंगों के शोर में घुलने लगी।
"देखो भाई लोग। अब जादू का खेल देखो"
जादू का नाम सुनते ही सब सहम से गये और शांत हो कब वह क्या जादू दिखाने वाला है, यह देखने लगे।
वह आदमी हाथों में रिंग लेते हुए, वहां जमी भीड़ की तरफ देखते हुए, "देखो भाई लोग, इस लोहे की रिंग में अब ये बाई कैद होकर दिखायेगी। इस रिंग से ये बाई बाहर निकलकर दिखायेगी। देखो देखो साहब, बाई का जादू देखो" आवाज देने लगा।
सब लोंगो का ध्यान वह क्या करने वाली है, इसकी ओर लगा था।
औरत ने सबसे पहले बड़ी रिंग उठायी। उसमें दोनो हाथों को डाल दिया। फिर दोनो पैरो को रिंग के अंदर डाल दिया, और कुछ ही पल में गर्दन भी घुसेड़ डाली। बाकी सब देखने वालों का पता नहीं, लेकिन मेरा दिल तो जोर जोर से धड़कने लगा।
"पक्का , यह उस रिंग में फंसकर अपनी जान गँवा देगी" भीतर ही भीतर मेरा कच्चा अनुमान।
आश्चर्य तब हुआ, जब बड़े ही सफाई से उसने अपने शरीर के एक एक इंच, पेट, स्तन, पीठ और जांघो के माँस को सरकाते हुए अपने आप को रिंग से आजाद करवा दिया। वाकई वह करतब किसी जादू से कम नहीं थी।
वहाँ इकठ्ठी भीड़ खुशी से तालियाँ बजाने लगी। साथ में डमरू तो बज ही रहा था।
फिर उसने दोबारा दूसरी रिंग उठायी। वह पहली वाली रिंग से कुछ छोटी थी। इस बार भी अपने शरीर के इंच इंच माँस को चुराते हुये उसने रिंग से आजाद कर दिया।
फिर उसने तीसरी रिंग उठायी। वह सबसे छोटी रिंग थी।
"इस बार तो पक्का फंसेगी ही फंसेगी" वही मेरा कच्चा अनुमान।
लेकिन वाकई उसका बदन ना जाने कौन सी हड्डियों का बना था, मक्खन की तरह फिसलकर उस रिंग से धीरे धीरे अपने आप को आजाद करवाने में सफल हो गया।
"वाओ ग्रेट" खेल देखने वाले उपस्थित सभी के साथ मेरे हाथों की तालियाँ बजने लगी। लेकिन मन में कई सवाल पैदा हुए।
"क्या वाकई इसने जो किया वह जादू है? या इसकी कला है? यदि यह कला है, तो इस कला को हमने सम्मान दिया है? या, यह कला उस गरीब मजबूर का पेट भरने का जरिया होने की वजह से, उसे अभिनय या नृत्य की कला के मुकाबले में उपेक्षित रखा गया है?
उस नन्ही सी बच्ची का रस्सी पर उठता जोखिम भरा हर कदम, फिल्मो में फिल्माये गये किसी स्टंट से कहाँ कम था? और नन्ही सी जान की यह कैसी लाचारी? यह कैसी, दो निवालों के बदले अपनी जान दाँव पर लगाने की मजबूरी?
जहाँ एक ओर हम, १४ साल से कम उम्र के बच्चो से मजदूरी ना करवाने का कानून बनवाते है, वही एक नन्ही सी जान अपना और परिवार का पेट भरने के लिये, स्वयं की जान खतरे में डालती है।
कानून हो या कला, दोनो तरफ यह कैसी असमानता है? यह कैसी खाई है दो वर्गो के बीच? आखिर कहाँ है हमारे देश के हर वर्ग के बीच में समानता। कहाँ है इक्वलिटी?
इस सोच में मैं अपने आप में खोयी थी, के तभी किसी के हाथों ने मेरे हाथों को टटोला। मैंने पाया के सामने वह नन्ही बच्ची हाथ में थाली लिये खड़ी थी। इकठ्ठा भीड़ के पास जा जाकर उसके थाली में अठ्ठनी, चवन्नी जमा हुइ थी। अब वह मेरे सामने खड़ी थी।
"मेमसाब" हाथो को टटोलते हुए उसने आवाज लगायी और मैं "इक्वलिटी" की सोच से बाहर निकलते हुए, कभी उस मासूम की तरफ, तो कभी उसकी थाली की तरफ देखने लगी। क्योंकि मैं तो खाली हाथ "खेल" देखने चली गयी थी।
बस एक मुस्कान के साथ,उसके बालो को सहलाते हुए, मेरे पाँव घर की ओर दौड़ पड़े।