Vikas Bhanti

Horror

4.2  

Vikas Bhanti

Horror

हवेली

हवेली

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"घर दिलवा दो मिश्रा जी, नया शहर है किसी को जानता भी नहीं मैं।" नौकरी के पहले दिन के ख़त्म होते ही प्रमोद ने अकाउंटेंट मिश्रा जी से बोला।

"अरे भाटी साब क्यों चिन्ता करते हो अपने ऑफिस के बगल वाला कमरा बिलकुल खाली भी है और सही भी, बस अभी बात करवा देता हूँ मकान मालिक से।" मिश्रा जी बोले और प्रमोद का हाथ पकड़ कर बढ़ लिए।

तीन मंज़िला बड़ी सी हवेली और उसमें रहने वाले सिर्फ अधेड़ उम्र के दम्पति, "आइये भाटी जी आप मनोज शाक्य हैं और आप उनकी मिसेज़।" सीधे बेडरूम की तरफ बढ़ते हुए मिश्रा जी परिचय करवाते हुए बोले।

सामान्य अभिवादन के बाद परिचय और कमरा देने की सारी फोर्मलिटी पूरी करी गयी और प्रमोद को कमरे की चाभियां सौंप दी गयी।

प्रमोद शाक्य जी के उस बेडरूम का मुआयना सा करने में लगा था, बिस्तर पर बीमार पड़े मनोज जी और एक अजीब सी दुर्गन्ध उस कमरे में और दीवारें काटने को लगती महसूस होती थीं, जैसे किसी की उपस्थिति हो उस कमरे में, खौफनाक सी उपस्थिति।

चाभी लेकर प्रमोद अपने नए ठिकाने की तरफ बढ़ लिया था पर जैसे कोई ताक़त उससे बोल रही थी कि वो ही है जो उसे देखेगा और सुनेगा। दस बाई दस के उस कमरे में एक तरफ एक अलमारी रखी थी और उसके ठीक बगल में लकड़ी के पायों पर बिनी हुई एक चारपाई मौजूद थी।

प्रमोद की नौकरी का पहला दिन बहुत व्यस्त गुज़रा था पर नींद उसकी आँखों से गायब थी। तन्त्र की किताबें पढने के शौक़ीन प्रमोद ने बैग से एक किताब निकाली और पन्ने पलटने लगा और एक पेज़ पर उसकी खोज ठहर गयी।

"कहीं भी उपस्थित गंध से वहां रह रही आत्माओं का अंदाज़ लगाया जा सकता है , शुद्ध आत्माओं की गंध फूलों जैसी या मीठी होती है, कुत्सित विचार वाली आत्मा की उपस्थिति से जलने की गंध आती है और अत्रृप्त आत्माओं की गंध बहुत तीव्र और बदबूदार होती है।" किताब उस कमरे में अत्रृप्त आत्मा के होने की तरफ इशारा कर रही थी।

प्रमोद रात भर शाक्य जी के बारे में ही सोचता रहा, "उनकी बीमारी और उस बदबू का कोई रिश्ता तो ज़रूर है, कल सुबह खुद मिल कर पूछूँगा उनसे। नहीं नहीं.... उनसे पूछना सही नहीं रहेगा। भाभी जी से पूछुंगा, हाँ..... यही सही रहेगा।" यही सब सोचते सोचते उसे नींद ने आगोश में ले लिया।

सुबह होते ही जब प्रमोद कमरे से निकला मिसेज़ शाक्य कपडे़ सुखाने डाल रहीं थीं।

"भाभी जी, आपसे कुछ बात करनी थीं।" प्रमोद बोला।

"जी आ जाइये ऊपर।" मिसेज़ शाक्य ने सहमति व्यक्त कर दी थी।

"भाभी जी, ये भाई साहब कब से बीमार हैं ?" प्रमोद ने सीढ़ीयां पूरी करते ही बोला।

"भैया, दो साल हो गए, बुखार से शुरू हुई इनकी बीमारी आज सीरियस लेवल तक पहुँच गयी है। डॉक्टरों को दिखाया, वैद्य हकीमों के चक्कर लगाए। मंदिर, मस्जिद सब जगह दुआएँ मांगी पर इनकी हालत है कि सुधरने का नाम नहीं लेती हर दिन मौत........" इतना बोल मिसेज़ शाक्य फफक कर रो पड़ीं।

"आपके बच्चे.....?" प्रमोद इतना ही बोला था कि भाभी जी बोल पड़ीं।

"एक बेटी थी, तीन साल पहले मलेरिया ने निगल लिया। अब बस यही एक सहारा हैं जीने का, जिस दिन ये........." इसके आगे मिसेज़ शाक्य की ज़ुबान बंध सी गयी और गला रुन्ध गया। खुद के ज़ज़्बात समेटती वो आसमान की तरफ देखने लगीं।

"आप शक्तियों पर विश्वास करतीं हैं?" प्रमोद बोला।

"कैसी शक्तियां?" मिसेज़ शाक्य ने सवाल किया।

"आत्मा, प्रेत, भूत........." प्रमोद बोला।

"मतलब ! मैं समझी नहीं।" भाभी जी के चेहरे पर डर के भाव थे।

"मनोज जी बीमार नहीं, बल्कि प्रेतवाधित हैं और इसका इलाज तब तक नहीं हो सकता जब तक ये न पता चले कि ये प्रेत किसका है और चाहता क्या है।" प्रमोद ने अपनी बात आगे बढ़ाई।

मिसेज़ शाक्य के मुंह से शब्द जैसे फूट ही नहीं रहे थे, आँखे बस चारों दिशाओं को टटोलने में लगीं थीं जैसे कुछ याद सा कर रहीं हो।

"अक्सर घर में कोई सामान गायब सा हो जाता है और फिर मिल भी जाता है। पंखा कभी सीधा नाचता है तो कभी उल्टा। बल्ब जलने बुझने का खेल भी खेलते हैं। पर कभी इस एंगल से सोचा ही नहीं। आपकी बात सुनकर ...... अरे बाबा....अब क्या होगा?" मिसेज़ शाक्य भय से थर थर काम्पने सी लगीं थीं।

"चिन्ता मत कीजिये भाभी जी, ये शक्ति आपको नुकसान पहुँचायेगी नहीं क्योंकि पहुंचाना होता तो अब तक पहुंचा चुकी होती वो तो बस अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाना चाहती है। इसीलिए मनोज जी बीमार हैं और आप इलाज ढूंढती रहीं.......... आइये मेरे साथ।" और प्रमोद आगे आगे उनके बैडरूम की तरफ बढ़ लिया। मिसेज़ शाक्य ठीक पीछे ही खड़ी हो गयीं। मनोज जी नींद में बड़बड़ा से रहे थे जैसे किसी से माफ़ी मांग रहें हों।

"भाभी जी गंगाजल है घर में?" प्रमोद ने पूछा।

"जी, अभी लाई...." इतना बोल मिसेज़ शाक्य मंदिर की तरफ बढ़ीं और गंगाजल की बोतल लाकर प्रमोद के हाथों में थमा दी।

गंगाजल की कुछ बूंदे हाथ में लिए प्रमोद ने मनोज जी के पलंग के चक्कर लगाने शुरू किये, साथ ही साथ वो कुछ बुदबुदाता भी जा रहा था। हर कदम के साथ जल की कुछ बूंदे ज़मीन पर गिरती जा रहीं थीं , जैसे ही प्रमोद के कदमों का चक्कर पूरा हुआ मनोज जी की आवाज़ खर्राटों में बदल गयी।

"शक सही था भाभी जी, मनोज जी पर प्रेत का साया है। आप चिन्ता न करें मैं देखता हूँ कि क्या कर सकता हूँ।" इतना बोल प्रमोद दरवाज़े की ओर बढ़ चला।

दिन भर के काम के बाद शाम को फिर से प्रमोद मनोज जी को देखने गया।

"भाभी जी, कैसे हैं मनोज जी?" प्रमोद ने पूछा।

"भैया एक साल के बाद इतनी गहरी नींद में पहली बार सोते देखा है मैंने, मैं किस तरह आपका शुक्रियादा करूँ समझ नहीं आ रहा।" फिर कुछ रुककर बोलीं, "रात में एक बार और पूजा कर दीजियेगा।"

प्रमोद ने हामी भरी और कमरे पर आ गया। खाना खाने के बाद अच्छी तरह हाथ मुंह धोकर प्रमोद मनोज जी से मिलने जा पहुंचा।

"कैसे हैं मनोज जी?" घुसते ही उसने सवाल किया।

"भाटी जी, सरिता ने बताया मुझे.. आपका बहुत शुक्रिया आपने मदद की। ज़रा सोने से पहले फिर से एक बार वही प्रक्रिया दोहरा दीजिये। आज वाक़ई बड़ी शान्ति सी अनुभव हो रही है।" मनोज जी बोले।

"जी बिलकुल.... भाभी जी वो गंगाजल के साथ दो अगरबत्तियां भी ले आइयेगा और हाँ माचिस भी....." प्रमोद बोला।

मिसेज़ शाक्य तुरंत मंदिर की तरफ बढ़ीं और कहा गया सारा सामान ले आईं।

प्रमोद ने अगरबत्तियां जलाईं और गंगाजल हाथ में लेकर प्रक्रिया शुरू कर दी। चक्कर पूरा होने के बाद अगरबत्तियां पलंग के सिरहाने खोंसकर प्रमोद ने विदा ले ली।

प्रमोद ने अपने कमरे का दरवाज़ा जैसे ही खोला उस वही अजीब सी बदबू ने उसे घेर लिया था। कमरे में किसी की मौजूदगी साफ़ अनुभव हो रही थी। ऐसा जैसे कोई नाराज़ था उससे। प्रमोद भीतर घुसा तो सामने मेज़ पर तन्त्र की वो किताब फटी पड़ी थी जैसे किसी ने पूरी ताकत से उसे दो टुकड़े कर दिया हो। प्रमोद डरा तो नहीं था पर सशन्कित ज़रूर था, शायद उस ताकत ने प्रमोद का दिया चैलेन्ज स्वीकार कर लिया था।

रात तकरीबन एक बजे प्रमोद का दरवाज़ा बहुत ज़ोर से खटका, खोला तो मिसेज़ शाक्य थीं, बहुत बेचैन और घबराई हुईं।

"भाभी जी क्या हुआ?" प्रमोद ने सवाल किया।

"उनको सांस नहीं आ रही, बहुत तबियत खराब हो गई है, समझ नहीं आ रहा क्या करूँ।" मिसेज़ शाक्य घबराई हुईं सी बोल रहीं थीं।

"इंतज़ार मत कीजिये एम्बुलेन्स बुलाइये जल्दी....." प्रमोद बाहर की ओर भागता हुआ बोला।

पंद्रह मिनट के भीतर ऐम्बुलेंस दरवाजे पर खड़ी थी। प्रमोद की मदद से मनोज जी को मिसेज़ शाक्य ने ऐम्बुलेंस में लिटाया और खुद स्कूटर लेकर हॉस्पिटल की तरफ निकल लिया।

इमेर्जेन्सी में मनोज जी को एडमिट कराया गया पर एक घंटे के बाद डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए, मनोज जी को एम्स रेफेर कर दिया गया था।

कुछ देर में ही पास के शहर में रहने वाले मिसेज़ शाक्य के दोनों भाई वहां पहुँच चुके थे और उनको दिल्ली ले जाने की पूरी व्यवस्था कर ली गयी।

अचानक से आई इस समस्या के लिए मिसेज़ शाक्य तैयार नहीं थीं और घर में जेवर और कैश भी बिना ताले पड़ा था। ऐसे में प्रमोद से बेहतर विश्वासपात्र उनको कोई न लगा और घर की चाभियां वो उसे ही सौंप गयीं।

प्रमोद समझ चुका था कि उसकी अनुभवहीनता की वजह से ये नौबत आई थी पर इसमें उसकी भी कोई गलती नही थी। उसकी क्रिया की ज़ोरदार प्रतिक्रिया थी यह।

मिसेज़ शाक्य ने प्रमोद को ऊपर ही सोने को बोला था और ज़िम्मेदारी भी दे दी थी मिशेल की। सेंट बर्नार्ड नस्ल की मिशेल तकरीबन 4 फ़ीट ऊँची थी और हमेशा छत पर बने अपने आशियाने में रहा करती थी। मिसेज़ शाक्य ने हिदायत भी दी थी कि उसे खाना दरवाज़े के नीचे से ही खिसका कर डाल दिया जाए।

क्षोभ और शंका के मनोभावों से घिरा प्रमोद हवेली पर वापस आ गया। घर के हर दरवाज़े को उसने ताले से बंद किया और सबसे आगे की बैठक में अपना सोने का इन्तेज़ाम कर लिया।

अभी आँख लगी ही थी कि ऐसा लगा जैसे कोई आरी से छत काट रहा है।

"कहीं ऐसा तो नहीं घर में किसी के न होने की खबर पाकर सेंधमार आ गए हों और चोरी की तैयारी में हों।" प्रमोद खुद से बोला, "पर छत पर तो कुत्ता भी है.....हो सकता है उसे मार दिया हो या बेहोश कर दिया हो।" यही सब सोचते हुए प्रमोद बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और आँगन की तरफ बढ़ गया।

काटने की आवाज़ आँगन में और तेज़ थी, बिलकुल साफ़ जैसी आरी के पत्थर पर घिसने की आती। प्रमोद आड़ लेकर छत पर लगे लोहे के जाल को ताकने लगा। तभी मिशेल हवा की रफ्तार से जाल के ऊपर से भागी, इतनी तेज़ कि जाल भी थरथरा गया।

"सच बोला था मिसेज़ शाक्य ने, वाकई मिशेल बहुत खतरनाक है..... पर अगर ये सही सलामत है तो छत पर तो कोई हो नहीं सकता।" प्रमोद खुद से बातें कर रहा था तभी मिशेल फिर से उस जाल से निकली और नीचे प्रमोद को देख भौंकने लगी।

प्रमोद वापस बैठक में आ गया। आवाज़ कभी धीमी पड़ती तो कभी तेज़ हो जाती। तभी अचानक आवाज़ की दिशा बदल गयी और अबकी वो किचेन से आ रही थी। प्रमोद उठ कर किचेन की तरफ भागा तो आवाज़ मनोज जी के बैडरूम से आने लगी। प्रमोद उस आवाज़ का पीछा कर रहा था और वो आवाज़ उसे पूरे घर में दौड़ा रही थी।

कुछ देर में हर दिशा में वही आवाज़ गूँजने लगी। प्रमोद वापस आ कर अपने पलंग पर बैठ गया और धीरे धीरे आवाज़ खामोश हो गई। बेचैन प्रमोद एक टक सामने के दरवाज़े को देख रहा था कि एक साया तेज़ी से दरवाज़े के बाहर से गुज़र गया। प्रमोद भागा तो दोनों तरफ से दरवाज़े से बंद उस गैलेरी में कोई भी मौजूद नहीं था।

प्रमोद के रोंगटे खड़े हो गए थे और उसे इस घर में कमरा किराये पर लेना अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती लग रही थी । पर अब शायद कोई रास्ता नहीं था, हवेली की सुरक्षा की जिम्मेदारी से भागकर वो कहीं जा नहीं सकता था।

अचानक छत पर लगा पंखा उल्टा घूमने लगा था और कमरे में लगी लाइटें जलने बुझने का खेल खेलने लगीं थीं। अब तो प्रमोद को अपने हर तरफ किसी के खड़े होने का डर लग रहा था। वो पूरी रात दहशत और डर में बीत गयी।

ऑफिस में थोड़ा सुकून तो मिला पर दिन गुज़र कर रात का साया फिर से उसी कमरे पर आ कर रुका था। आज की रात अजीब सी शान्ति थी माहौल में पर उसे तोड़ने के लिए प्रमोद ने एफ एम चला रखा था। रात के दस बजे थे, रेडियो पर बज रहे दो गानों के बीच घड़ी की टिक टिक साफ़ सुनाई दे रही थी।

किशोर कुमार का गाना 'चिंगारी कोई भड़के' अचानक से खामोश हो गया और स्पीकर से किसी के फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी। प्रमोद ने कान लगा कर उस आवाज़ को सुना,"खज़ाना.....खज़ाना.....खज़ाना" लगभग 4 मिनट तक इसी सुर में पुकारता रेडियो बंद हुआ और फिर एक नए गाने के साथ बोल पड़ा।

प्रमोद हनुमान चालीसा पढ़ने लगा था पर शायद यह कारगर नहीं था। रात के सन्नाटे में सिक्के खनकने की आवाज़ शामिल हो गई थी, जैसे बहुत सारे सिक्कों को कोई हथेली में लेकर बजा रहा हो। कभी वो खनक भीतर के कमरे से आती तो कभी बाहर गैलेरी से, दिशायें बदल बदल कर हर जगह बस सिक्के खनक रहे थे।

तभी प्रमोद के कान में एक आवाज़ गूंजी,"खज़ाना गड़ा है........" प्रमोद झटके से उठ बैठा और निगाहें आवाज़ को ढूंढने लगीं पर वहां कोई नहीं था। तभी प्रमोद की नज़र किचेन की खिड़की पर गयी एक साडी़ पहने साये से वो रूबरू था, इसके पहले कि उसकी चीख निकलती उसे पिता जी का सिखाया चौकी लगाने का मन्त्र याद आ गया। जैसे ही मंदिर से गंगाजल उठा कर प्रमोद ने चौकी लगानी चाही सब कुछ शान्त हो गया।

प्रमोद ने मंदिर के पास ही सोने का फैसला किया और वही बिस्तर लगा कर लेट गया। पर नज़रें थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले पा रहीं थीं। उस रात और कुछ नहीं हुआ पर नींद ले पाने की गुन्ज़ाइश न तो प्रमोद का मन दे पा रहा था न उसकी आँखें।

अनिद्रा से भरी रात और काम से भरे उस दिन ने प्रमोद को शारीरिक रूप से तोड़ दिया था पर जाने कौन सी ताक़त थी जो उसे मानसिक तौर पर मज़बूती दे रही थी। आज उस भूतिया हवेली में उसकी तीसरी रात थी पर आज वो बहुत मज़बूत था मन में, शायद तैयार था हर चुनौती के लिए।

आज भी रात की शुरूआत आरी की आवाज़ से हुई और फिर सिक्कों की खनक में बदल गयी। प्रमोद कमरे के बीचों बीच पड़े पलंग पर दृढ़ बैठा था। तभी एक साया चुहल भरी हंसी की आवाज़ों के साथ गैलेरी से गुज़र गया।

"आँख मिचौली ही खेलोगी या काम की बात भी करोगी।" प्रमोद चिल्लाया।

प्रमोद के इतना कहते ही कमरा शान्त हो गया जैसे दूर से मुआयना करा जा रहा हो उसका। प्रमोद की आँखें भी कमरे के हर कोने को ताड़ रहीं थीं।

कमरे के सन्नाटे को पायल की आवाज़ ने तोड़ा, छम छम छम छम, आवाज़ गैलेरी से आ रही थी और धीरे धीरे कमरे की तरफ बढ़ती जा रही थी।

होठों तक चेहरे को घूंघट में दबाये, एक महिला ने कमरे में प्रवेश किया, सफ़ेद और लाल रंग की गहरी कढ़ी हुई साडी़ जिसके किनारे गोटे से पटे हुए थे , गले में आभूषणों की बड़ी खेप, एक एक हाथ में दो कंगनों के बीच फंसी चूड़ियों की बड़ी सी लड़ और होठों पर कोई भी ज़ज़्बात नहीं। पायल की छम छम रात के सन्नाटे में घुलने लगी थी।

उस औरत के कदम प्रमोद से एक फुट की दूरी पर आ कर ठहर गए। घूंघट के पीछे से उसकी नज़र प्रमोद को ही देख रही थी।

प्रमोद ने घड़ी की तरफ देखा तो रात के 1 बज रहे थे। वो जड़वत वहीं बैठा हुआ था। बस दोनों एक दूसरे को ताक रहे थे। तभी वो औरत प्रमोद की तरफ झुकी और ठीक कान के पास आकर धीरे से फुसफुसाई, "खज़ाना गड़ा है " और फिर सीधी खड़ी हो गई।

प्रमोद को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे और अचानक ही उसके मुंह से निकल गया,"कहाँ?"

उस औरत के चेहरे पर एक कुटिल सी मुस्कान आई और चेहरे को तरेर कर बोली,"ऐसे नहीं बताउंगी, पहले तुझे एक वादा देना होगा।"

"क्.....क्.....कैसा.....कैसा वादा?" प्रमोद की आवाज़ अटक रही थी।

"कि तू मेरा एक काम करेगा।" औरत बोली।

"बिना.....काम.....जाने.....कैसा.....वादा !" प्रमोद ने ज़वाब दिया और अचानक ही उसका हाथ उस औरत की तरफ बढ़ गया अगले पल वहां कोई नहीं था।

उस औरत की आवाज़ जैसे उसके कानों में गूँज रही थी,"खज़ाना गड़ा है...... " वो औरत कौन थी और चाहती क्या थी यह उहापोह प्रमोद को बेचैन कर रही थी। वो उठा और कमरे में चहलकदमी करने लगा।

"कोई तो रिश्ता है इस ख़ज़ाने वाली औरत और इस घर के बीच, हाँ...... इसका मतलब खज़ाना इसी घर में मौजूद है... पर कहाँ?......और वो औरत चाहती क्या थी?..... आखिर कौन सा काम करवाना चाहती है वो मुझसे ?........ नहीं नहीं..... बिना काम जाने मुझे हाँ नहीं बोलनी चाहिये..... प्रेत है क्या पता मेरा शरीर ही मांग ले।" यही सब सोचते हुए प्रमोद ठिठक गया।

सामने की दीवार पर जैसे किसी ने पेन्सिल से 'खज़ाना' लिख दिया हो, पर जैसे ही प्रमोद उसके पास गया वो शब्द गायब हो गए। अबकि पलटा तो सामने वाली दीवार पर एक और शब्द लिखा था 'वादा '।

प्रमोद ज़ोर से चिल्लाया," बिना काम जाने मैं हाँ नहीं कहूंगा।"

कमरा जैसे उसे देख रहा था , दीवारों में जैसे आँखें निकल आई हों, प्रमोद अपने पलंग पर वापस आ कर बैठ गया और कुछ देर के बाद लेट गया। आज तीसरी रात उसे नींद आगोश में लेने लगी थी शायद लगातार दो दिन सो न पाने के कारण वो बहुत थक गया था। पर प्रमोद सोना नहीं चाहता था, वो उठ कर बैठ गया और इंतज़ार करता रहा कि कब वो फिर से आये और उसे वो राज़ बताये जिसे गढ़ कर वो गायब हो गई थी। पर वो नहीं आई।

"भाटी साब, कुछ खोज खबर मिली मनोज जी की?" मिश्रा जी ने सुबह पूछा।

"नहीं, पर......." इतना बोल प्रमोद चुप हो गया।

"पर क्या भाटी जी?" मिश्रा जी ने सवाल दाग दिया।

"पर मुझे उम्मीद है कि वो अच्छे होकर ही वापस आएंगे।" प्रमोद ने बात पलट दी, उसे डर था कहीं उसके कुछ कहने की वजह से राज़ यहीं दफन होकर न रह जाए और शायद यही राज़ मनोज जी की जान बचा सकता था।

आज चौथी रात थी, प्रमोद दिमागी रूप से हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हो चुका था। पिछली तीन रातों ने उसके मन में डर की जगह कुतुहल को बिठा दिया था।

खाना खा कर प्रमोद उस औरत का इंतज़ार कर रहा था , बार बार घड़ी को देखता, कभी बैठ जाता तो कभी टहलने लगता। रात के दो बज चुके थे पर आज न तो आरी की आवाज़ आई और न सिक्कों की खनक, दीवारों पर भी कोई सन्देश नहीं उभरे।

"लगता है ये सिलसिला ख़त्म हो गया। शायद मेरी बात को उसने न के तौर पर स्वीकार कर लिया।" प्रमोद ने खुद से इतना कहा और लेट गया।

तीन दिन की थकान ने उसे सोने पर मज़बूर कर दिया था। कुछ ही देर में प्रमोद ने खुद को उसी घर में खड़ा पाया, यह घर तो वही था पर दृश्य बिलकुल अलग था ऐसा जैसे तकरीबन कई साल पहले, कमरे में लाइटों की जगह मशाल जल रही थी। एक ओर बड़ी सी खिड़की थी, बैठक में सोफे की जगह दीवान पड़े थे। ऐसा जैसे प्रमोद भूतकाल में पहुँच गया हो। प्रमोद ने खिड़की से बाहर झाँका तो सामने एक इमारत पर यूनियन जैक लहरा रहा था। घोड़ों पर दो गोरे सैनिक गश्त लगा रहे थे और हर दुकान पर पूछ्ताछ कर रहे थे।

तभी दरवाज़ा ज़ोर से खटका। भीतर से एक औरत निकल कर आई और दरवाज़ा खोल दिया। डाकू के भेस वाला एक शख्स भीतर घबराया हुआ आया था।

"भंवरी अबकि बहुत बड़ा हाथ मारा है मैंने, देख पूरा थैला सोने के सिक्कों से भरा हुआ है पर पुलिस मेरे पीछे पड़ी है तू छिपा ले मुझे।" वो डाकू भीतर आते ही बोला।

"रोशन सिंह, तुम मुझे भी मरवाओगे किसी दिन, कितनी बार बोला है कि डाका डाल कर यहाँ मत आया करो। अब आ ही गए तो तो जाओ तहखाने में छिपो मैं देखती हूँ।" भंवरी बोली।

प्रमोद ने भंवरी के होठों पर नज़र दौड़ाई, ये वही रात वाली औरत थी। डाकू रोशन सिंह तहखाने की तरफ बढ़ लिया था कि दरवाज़ा फिर खटका।

अबकि दरवाज़े पर अंग्रेजी सिपाही थे।

"मैडम, कोई आया तो नहीं यहाँ?" उनमे से एक सिपाही बोला।

"नहीं किसे खोज रहे हैं आप लोग?" भंवरी बोली।

"डाकू रोशन सिंह को, राजा साहब की बेटी और पत्नी को कत्ल कर के और पैसे लूट कर भाग निकला है।" वही सिपाही बोला।

"वो मशहूर डाकू रोशन सिंह, जिसके सर पर 500 का ईनाम है?" भंवरी बनते हुए बोली, "वो यहाँ क्यों आएगा। ज़मीन्दार की विधवा हूँ मैं काट नहीं डालूंगी उसे।"

"ठीक है, परेशानी के लिए माफी चाहेंगे। आप खिड़की दरवाज़े अच्छे से बंद कर लीजिये। इसी इलाके में देखा गया है वो।" इतना बोल वो दोनों उलटे पाँव लौट गए।

उनके जाते है भंवरी के कदम तहखाने की तरफ बढ़ चले। प्रमोद भी पीछे पीछे चल पड़ा। तहखाने में पहुँचते ही भंवरी ज़ोर से चीखी,"कत्ल कर के आये हो तुम ! डाका वाका तो ठीक है पर कातिल..... तू चला जा यहाँ से।"

"चला जाऊँगा, पर ये पैसे छिपा ले, बाद में आकर ले जाऊँगा।" रोशन सिंह बोला।

भंवरी कुछ देर तो चुप खड़ी रही फिर कुछ सोच कर बोली,"ठीक है, जा ऊपर कमरे से आरी निकाल के ला।"

रोशन सिंह गया और 5 मिनट बाद एक बड़ी सी आरी के साथ लौटा। दोनों ने बारी बारी से दीवार पर आरी चला कर एक बड़ा सा छेद बनाया और उसमें सिक्के डालने शुरू कर दिए। सिक्के गिराने की खनक पूरे तहखाने में गूँज रही थी। दो घंटे में दीवार को बंद कर के पहले जैसा कर दिया गया।

फिर रोशन ने भंवरी को गोद में उठाया और ऊपर की तरफ बढ़ लिया। दोनों एक कमरे के भीतर जा कर बंद हो गए। प्रमोद बाहर ही खड़ा रहा, तभी दूसरे कमरे से दो-ढाई साल का एक बच्चा बाहर आया और माँ माँ करता इधर उधर भटकने लगा। उसकी आँखों से आंसू भी निकल रहे थे। प्रमोद ने उसको आवाज़ दी पर जैसे उसने सुना ही न हो। उसकी माँ शब्द की पुकार बढ़ती जा रही थी।

तभी दरवाज़ा खुला और भंवरी बाहर निकली। उसने प्यार से बच्चे को गोद में लिया और दूसरे कमरे में चली गयी। उसके जाते ही रोशन सिंह कमरे से निकला और मुख्य दरवाज़े से बाहर चला गया।

कुछ समय बाद दूर से गोलियों की आवाज़ आने लगी और फिर सन्नाटा पसर गया। प्रमोद ने खिड़की से झाँका तो हर घर के बाहर लोगों का मज़मा लगा था।

भंवरी भी भाग कर खिड़की पर आ गयी और ज़ोर से चीखी,"ताई, क्या हुआ?"

"अरे, डाकू रोशन सिंह मारा गया।" ताई नीचे से ही चिल्लाई।

तभी प्रमोद की आँख खुल गयी। यह था तो सपना पर शायद सच था वही सच जिसे वह जानना चाहता था। अब उसे यह भी मालूम था कि खज़ाना कहाँ है। एक ख्याल उसके मन में आया कि उसी जगह जाकर उन पैसों को निकाल ले पर जिस पैसे की वजह से भंवरी प्रेत योनि में भटक रही है उसे लेकर वो शान्त कैसे बैठ सकता था। पर एक सवाल अभी भी अनसुलझा था कि आखिर भंवरी चाहती क्या है।

यही सब सोचते हुए प्रमोद सो गया। सुबह उठ कर नहाया धोया और ऑफिस पहुँच गया। शाम के चार बजे एक ऑटो आकर हवेली के आगे रुका और अपने कदमों पर चलते हुए मनोज जी ने गेट खोला।प्रमोद काम छोड़ कर उनकी तरफ बढ़ लिया, उनको पानी पिलाया और हालचाल पूछा।

"भैया जाने क्या हुआ अचानक से इनकी तबियत में सुधार आना शुरू हो गया और आज सुबह डॉक्टर ने डिस्चार्ज भी कर दिया। भगवान की दुआ से अब एक दम स्वस्थ हैं ये।" मिसेज़ शाक्य के चेहरे पर ख़ुशी साफ़ झलक रही थी।

"चलिए मैं अपना सामान ले लेता हूँ और कुछ बात भी करनी है आपसे।" प्रमोद बोला।

"जी बिलकुल, आइये। वैसे कोई तक़लीफ तो नहीं हुई आपको घर में? मनोज जी ने पूछा।

मनोज हंसा और बोला," कुछ ख़ास तो नहीं पर एक राज़ ज़रूर पता चला है।"

बात करते करते तीनों उसी जगह आ पहुंचे जहाँ प्रमोद सोया करता था। उसके बिस्तर पर एक कागज़ फड़फड़ा रहा था। प्रमोद आगे बढ़ा और उसे उठा लिया।

"बेटा,

तुम कहानी जानते हो मेरी, पर मनोज को पूरा सच मत बताना । सही समझा तुमने वो पैसा ही है जिसने मुझे प्रेत योनि में बाँध कर रखा है। इस पैसे का किसी पुण्य में उपयोग हो जाए तो मेरी इस योनि से मुक्ति संभव है। मनोज बीमार था क्योंकि मेरे इशारे नहीं समझता था। तुम पहले इंसान हो जिसने बुलाया मुझे। वो पैसा निकाल लो और किसी अच्छे काम में लगवा दो। ताकि मुझे मुक्ति मिल जाए।"

प्रमोद ने उस कागज़ को मुट्ठी में बाँध लिया।

"क्या है प्रमोद जी?" मनोज जी ने सवाल किया।

"कुछ नहीं बस रफ वर्क है।" प्रमोद ने भंवरी की बात रख ली थी।

"आप मुझे कुछ बताने वाले थे।" मनोज जी ने पूछा।

"जी, दरअसल आपके तहखाने की बाईं दीवार के किनारे पर जहां पीला निशान लगा है एक खज़ाना गड़ा है। उसकी वजह से भंवरी नाम की एक महिला प्रेत योनि में फंसी हुई है और वही आपके स्वास्थ्य के सही न होने का कारण बनी हैं। आप उस पैसे को निकाल कर उससे मंदिर बनवा दीजिये ताकि उनको शान्ति मिल सके।" प्रमोद बेहिचक बोल गया।

मनोज जी के चेहरे पर अजीब से भाव आ रहे थे, जैसे सवाल और संवाद के बीच फंसे व्यक्ति के चेहरे पर आते।

"वैसे ये भंवरी हैं कौन?" प्रमोद ने पूछा।

"मेरी माँ........" मनोज ने ज़वाब दिया।


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