तिरंगा
तिरंगा




"तू भोली है माँ, वो बोस हैं, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस। तेरा काढ़ा तिरंगा अपने सीने पर क्यों लगायेंगे ?" शांताराम अपनी माँ से बोला।
"लगायेंगे, तू नहीं जानता उन्हें। मैं जानती हूँ, जब कांग्रेस में थे तब आये थे आसाम, बोले थे माई बड़ा अच्छा कढ़ाई करती है तू, मेरे लिए एक एक कुरते के सीने पर तिरंगा गढ़ देना। व्यस्तता के कारण कुर्ता तो न भेज सके, पर मैंने ऐसे ही पिन से टांकने वाला झंडा तैयार करा है, उनके लिए। अपने हाथों से लगाउंगी और देखना कैसे खुश होते हैं मेरे नेता जी।" माँ उस बैच का अंतिम आंकलन करती हुई बोली।
"माँ वो युद्ध में हैं ऐसे सामने जनता में यूं नहीं घुमते फिरेंगे।" शांताराम ने तर्क दिया।
"तू बच्चा है, क्या जाने मेरे सुभाष की निर्भीकता। अंग्रेज पहरा लगाए बैठे रह गए और वो निकल गए लाहौर। देख हिटलर को भी चंद मिनटों में मुरीद कर लिया अपना और आजाद कराने आ गए हमको इन मुएँ अंग्रेजों से।" माँ ऐसे बोली जैसे बोस उनकी ही गली में खेले हुए किसी बालक का नाम हो।
जर्मनी से ब्रिटिश सेना की तरफ से विश्व युद्ध में लड़ रहे भारतीय सैनिकों को आज़ाद करा कर आज़ाद हिन्द का बिगुल फूंक पूर्वी सीमाओं पर भारतीय ध्वज फहरा चुके थे बोस, जल्दी ही उनकी सेनायें आसाम और बंगाल की सीमाओं की तरफ आगे बढ़ रहीं थीं, ऐसे में आसाम के सिबसागर जिले के एक छोटे से गाँव में रहने वाली रोहिलदेवी उस वक़्त से ईश्वर की तरह पूजती थी सुभाष को जब 1938 वो पहली बार उसके गाँव में तिरंगे का बिगुल फूंकने आये थे, तब सुभाष बोले थे, "ऐ माई, जादू है तेरे हाथों में तो, फूल, पत्ती, सूरज चाँद सीती है, तिरंगा क्यों नहीं सीती ?"
तब रोहिलदेवी को तिरंगे के बारे में कुछ भी तो पता नहीं था, हो भी कैसे सुदूर किसी गाँव में आजतक कोई भी नेता आया भी तो नहीं था, जो उन्हें आज़ादी, देश या ध्वज के बारे में बताता। जाते जाते सुभाष ने उसे एक तिरंगा दिया और बोले, "माई, सीना सीख ले इसे अगली बार आऊंगा तो कुर्ते पर टंकवाऊंगा तिरंगा, यहाँ सीने पर।"
तब से हर रोज़ दसियों तिरंगे सी सी कर मुफ्त में बांटा करती थी रोहिलदेवी, पूरे सिबसागर में बंटते इन तिरंगों से अधीर होकर कईयों बार अंग्रेज अधिकारी गाँव आये पर उसे तो बस सुभाष के लिए तिरंगा सिलने से पहले वो परिपक्वता हासिल करनी थी जिसे देखकर सुभाष उसके हाथ चूम बैठे। रोहिल के सिये तिरंगों ने ऐसा जनांदोलन खड़ा कर दिया था जिले में, कि हर लड़का, लड़की, पुरुष महिला सीने से लगाए उस तीन रंग के चिन्ह को लेकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ खड़े हो गए थे।
सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद भी उसके तिरंगे कढना बंद नहीं हुए और अब उसकी तपस्या का फल उसके सामने आने वाला था, सुभाष अगले एक दो हफ्ते में आसाम को भी आज़ाद हिन्द की सीमा में समाहित करने की तरफ आगे बढ़ रहे थे।
रोहिल आज भी बार बार तिरंगा काढती और फिर मिलीमीटर भर गड़बड़ छानकर उसे बिगाड़ देती कि बेटा शांताराम आकर खड़ा हो गया, "माँ सुभाष नहीं रहे।"
उसके ऐसे कहते ही जडवत हो गयी रोहिल देवी, जैसे किसी ने जान निकाल ली हो, या यूं कहें कि जैसे कान्हा की मूरत से बिछड़ने के बाद मीरा की हुई होगी।
"माँ माँ, तुम ठीक तो हो!" बेटे ने पास आकर झकझोरा।
रोहिल देवी होश में आई और फिर बैठ गयी, पहली ही बार में एक निर्दोष तिरंगा टंक डाला, नीचे लिखा मैं सुभाष और खुद के सीने पर लगाकर जोर से जय हिन्द का नारा लगाकर वापस बैठ गयी।
रोहिल के कढ़े मैं सुभाष नारे वाले तिरंगों ने आसाम ही नहीं , पूरे पूर्वी भारत में आज़ादी कि अलख जगा दी। रोहिलदेवी बिना रुके बिने थके, बिन सोये, 35 दिन लगातार मैं सुभाष वाले तिरंगे बनाती रहीं और शांताराम बांटता रहा।
एक रोज़ जब शांताराम तिरंगे बाँट कर वापस घर लौटा तो माँ सोई पड़ी थी, "चलो अच्छा हुआ आपने आराम तो किया।" शांताराम बोला और माँ को पलट दिया।
माँ के हाथ में एक तिरंगा था, जिस पर लिखा था आज़ाद सुभाष चन्द्र बोस, साँसे उखड़ी हुई थीं और चेहरे पर जैसे एक सुकून था सुभाष के नाम का तिरंगा कढ जाने का।