हस्ताक्षर
हस्ताक्षर
"शर्म आती है! हिन्दी. अरे हिन्दी में हस्ताक्षर करते हो". एक छोटी सी, लेकिन बहुत बड़ी बात. हस्ताक्षर, हमारी पहचान. हमारे होने या न होने में हमारे हस्ताक्षर ही मायने रखते है. किसी भी कार्यालय में आना-जाना, किसी भी दस्तावेज के संबंध में हमारी सहमति या असहमति को हमारे हस्ताक्षर द्वारा स्वीकार्य माना जाता है. कोई कितना भी पढ़ा-लिखा हो कभी-कभी न हस्ताक्षर तो करता ही है. कोई-कोई तो हस्ताक्षर करने भर से ही गर्व से चहकने लगता है. बस यही हस्ताक्षर जब हिन्दी में करने में शर्म महसूस होती हो तो जाना जा सकता है कि हिंदी की क्या औकात है, एक हिन्दी राष्ट्र में. अब चलिए दूसरी बात रोजमर्रा की जरूरत में शामिल आम बोलचाल के शब्दों में कई ऐसे शब्द है, जो अंग्रेजी भाषा से निकलकर हिंदी पर इस कदर सवार हो गए कि हिंदी की आवाज ही बंद हो गई. क्या कोई ऐसा है जो रेलगाड़ी को लौहपथ गामिनी कहने का जोखिम उठाएगा. अधिकांश का जवाब होगा यह कौन सा शब्द है. किसी भी देश की पहचान उसकी भाषा ही होती है. कोई भी अपने पहचान को नहीं मिटाना चाहता. लेकिन ब्रिटिशकाल के नियम-कानूनों और विदेशियों के सहारे चलने वाले देश में अंग्रेजी भाषा पर हिंदी को कैसे वरीयता दी जा सकती है. फिर एक बात और भी है कि दुनिया जहां की जानकारी जब अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हो तो तब ऐसे में हिंदी को कौन पूछता है. हर कोई चाहता है कि मेरे बच्चे हिंदी जाने या न जाने लेकिन गलत ही बोले पर बोले इंग्लिश में ही. देसी पीने में शर्म और इंग्लिश पीने में गर्व तो फिर कैसे हो हिंदी का विकास. अब सरकार ने 14 सिंतबर को हिंदी दिवस घोषित कर रखा है, तो है. हिंदी दिवस पर कार्यक्रम होने है तो होने है. अब इसके लिए बजट है, तो है. बजट यानि पैसा. अब पैसा ठिकाने तो लगाना ही है, तो फिर वर्ष में एक बार हिंदी दिवस मना भी लिया तो क्या फर
्क पड़ जाएगा. एक दिन में कोई विकास तो हो नहीं सकता, लेकिन जेब में कुछ रकम आ ही जाती है. तब ऐसे में हिंदी दिवस मनाने में कैसी शर्म.
‘अतिथि देवो भवः’ दुनिया भर में घूमते-घूमते एक दिन अंग्रेजी हिन्दी के घर में आई। शुरू-शुरू में अच्छा लगा, नया मेहमान आया है। खूब-खातिरदारी हुई। घर के हर कोने में अच्छा सम्मान मिला, हर किसी को लगा मेहमान अच्छा है। हिन्दी मेहमाननवाजी करते-करते कब अपने घर में बेगानी हो गई, हिन्दी को पता भी न चला। अंग्रेजी ने धीरे-धीरे घर के हर कोने में अपनी जड़े जमा दी। जहां हिन्दी का स्वर्णिम इतिहास भी धूल में मिल गया। वक्त की मार खाते-खाते हिन्दी भयानक रूप से बीमार हो गई। जबकि अंग्रेजी को किसी भी तरह की कोई दिक्कत न आने के कारण वह तन्दरूस्त हो गई। आलम यह है कि आज हर तरफ अंग्रेजी हावी है, जबकि हिन्दी बेचारी अपने घर में ही बेगानों सा जीवन जी रही है। मन को खुश करने वाली बात है कि खास चीजों को सेलीब्रेट करने के लिए जैसे मदर्स डे, चिल्ड्रन डे, टीचर्स डे है, ठीक उसी तरह अंग्रेजी ने भी हिन्दी के लिए एक दिन १४ सितम्बर को हिन्दी डे घोषित कर रखा है, ताकि उसके मेजबान को बुरा न लगे। हम खुश है कि हमको मेहमान के दबाव में एक दिन की आजादी मिली हिन्दी डे को सेलीब्रेट करने। इस एक दिन में हिन्दी के स्वर्णिम पलों को याद कर लेते है, थोडा अपने ज्ञान को प्रचार-प्रसार दे लेते है, क्योंकि फिर समय मिलें या न मिले, अगर हमने किसी और दिन हिन्दी की बात की, तो हमारा मेहमान हमसे नाराज होकर चला न जाए और अतिथि देवो भवः, और हम अपने देव को नाराज नहीं कर सकते, भले ही हमारा अपना हमसे नाराज़ न हो जाए क्योंकि घर की मुर्गी दाल बराबर, तभी तो हम आज अंग्रेजी के नाज-नखरे उठा रहे है, और न जाने कब तक उठाते रहेंगे। यह सवाल हमेशा जिंदा रहेगा अतिथि तुम कब जाओगी?